सुप्रीम कोर्ट ने गुरुवार को अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के भीतर उप- वर्गीकरण को उचित ठहराते हुए ईवी चिन्नय्या बनाम आंध्र प्रदेश राज्य मामले में 2004 के फ़ैसले को खारिज कर दिया है। मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली सात जजों की खंडपीठ ने 6-1 के बहुमत से यह फ़ैसला दिया है। जाहिर तौर पर इस फ़ैसले का देश की राजनीति पर बड़ा असर होने जा रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस, बीजेपी के साथ सपा और बसपा जैसे बहुजन समाज की राजनीति करने वाले राजनीतिक दलों ने भी सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले पर खुलकर कोई टिप्पणी नहीं की है। हालांकि, सोशल मीडिया में दलितों और आदिवासियों के भीतर इस फ़ैसले के खिलाफ रोष दिखाई पड़ रहा है। क्या 2 अप्रैल 2018 की तरह का कोई आंदोलन खड़ा होने वाला है? जब एससी/एसटी एक्ट को कमजोर करने के खिलाफ दलित और आदिवासी सड़क पर आ गए थे। उस समय सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ क़ानून बनाना पड़ा था।

आदिवासी अस्मिता और चेतना के उभार से जो आदिवासियों में एकजुटता आ रही है, सुप्रीम कोर्ट का ताज़ा फ़ैसला उसे चोट पहुंचाएगा। सीधे तौर पर इसका फायदा भारतीय जनता पार्टी की हिंदुत्व की राजनीति को होगा।
गौरतलब है कि लंबे समय से अन्य पिछड़ा वर्ग के भीतर अति पिछड़े समाज के लिए अलग से कोटा निर्धारित करने वाली रोहिणी कमीशन की रिपोर्ट को लागू करने की मांग हो रही है। लेकिन आश्चर्य इस बात का है कि अभी तक भारतीय जनता पार्टी की सरकार ने इसे लागू नहीं किया है। लेकिन इस बीच में ही दलित और आदिवासियों के भीतर वर्गीकरण को उचित ठहरने वाले इस सुप्रीम कोर्ट के फैसले से व भाजपा की खुशी के मायने क्या हैं? इस फैसले को किस रूप में देखा जाना चाहिए? क्या इसका भाजपा की तात्कालिक राजनीति से कोई ताल्लुक है?
लेखक सामाजिक-राजनीतिक विश्लेषक हैं और लखनऊ विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में असि. प्रोफ़ेसर हैं।