क्या हर किसी संपादक की गिरफ़्तारी अनिवार्यत: वाणी की स्वतंत्रता और मीडिया की आज़ादी पर हमला होगी? क्या हर संपादक जो गिरफ़्तार होगा उसके पक्ष में मीडिया के दिग्गजों को खड़ा होना चाहिये? क्या ये कोई रस्म है जो हर बार निभाई जानी चाहिये? ये सवाल दरअसल पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा से जुड़े हैं।

अर्णब की पत्रकारिता और उस जैसी दूसरों की पत्रकारिता पर पिछले कई सालों से लंबी बहस चल रही है। मेरा अपना मानना है कि उस जैसे कई लोगों ने पिछले सालों में अपनी केंचुली उतार फेंकी है और अपने निजी फ़ायदे के लिये सरकार के दलाल बन गये हैं। ये लोग पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं बल्कि पत्रकारिता के भेष में ‘सुपारी किलिंग’ का काम कर रहे हैं।
ये सवाल इस बात से भी जुड़े हैं कि आख़िर पत्रकारिता है क्या और कब, कौन संपादक पत्रकारिता कर रहा होता है और कब वो सरकार का भोंपू बन जाता है और फिर वो पत्रकारिता की आड़ में वो सारे उलटे-सीधे काम कर रहा होता है जिसका पर्दाफ़ाश करने की ज़िम्मेदारी एक पत्रकार की होती है? रिपब्लिक टीवी के संपादक/मालिक अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के बाद ये सवाल उठने लगे हैं।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।