क्या हर किसी संपादक की गिरफ़्तारी अनिवार्यत: वाणी की स्वतंत्रता और मीडिया की आज़ादी पर हमला होगी? क्या हर संपादक जो गिरफ़्तार होगा उसके पक्ष में मीडिया के दिग्गजों को खड़ा होना चाहिये? क्या ये कोई रस्म है जो हर बार निभाई जानी चाहिये? ये सवाल दरअसल पत्रकारिता की लक्ष्मण रेखा से जुड़े हैं।
ये सवाल इस बात से भी जुड़े हैं कि आख़िर पत्रकारिता है क्या और कब, कौन संपादक पत्रकारिता कर रहा होता है और कब वो सरकार का भोंपू बन जाता है और फिर वो पत्रकारिता की आड़ में वो सारे उलटे-सीधे काम कर रहा होता है जिसका पर्दाफ़ाश करने की ज़िम्मेदारी एक पत्रकार की होती है? रिपब्लिक टीवी के संपादक/मालिक अर्णब गोस्वामी की गिरफ़्तारी के बाद ये सवाल उठने लगे हैं।
उथल-पुथल मचाते सवाल
ये सवाल मेरे जैसे व्यक्ति के लिये एक बड़ा धर्मसंकट खड़ा कर देते हैं। धर्मसंकट इस मायने में कि अर्णब और मैंने काफ़ी समय तक साथ रिपोर्टिंग की है और हम एक-दूसरे को मित्र कहते हैं। वो मेरा प्रशंसक कभी था और कभी मैं उसका प्रशंसक था। हालाँकि हमने कभी साथ-साथ एक ही संस्थान में काम नहीं किया।
इस निजी रिश्ते में दिल और दिमाग के बीच एक अजीब सा अंतरद्वंद्व मचा रहता है। मन में उठ रहे सवालों के जवाब कभी मिलते हैं और कभी नहीं मिलते। ऐसे में आज भी मेरे साथ ये सवाल खड़ा है कि ऐसे समय में जबकि उसे पुलिस ने गिरफ़्तार कर लिया है तो क्या करना चाहिये?
एक व्यक्ति के नाते मेरी पूरी सहानुभूति अर्णब और उसके परिवार के साथ है। लेकिन एक पत्रकार के नाते मैं ये सोचने पर मजबूर हूँ कि जो उसने किया है, क्या उसको उसकी सजा मिलनी चाहिये या नहीं?
पत्रकारिता के भेष में दलाली!
अर्णब की पत्रकारिता और उस जैसी दूसरों की पत्रकारिता पर पिछले कई सालों से लंबी बहस चल रही है। मेरा अपना मानना है कि उस जैसे कई लोगों ने पिछले सालों में अपनी केंचुली उतार फेंकी है और अपने निजी फ़ायदे के लिये सरकार के दलाल बन गये हैं। ये लोग पत्रकारिता नहीं कर रहे हैं बल्कि पत्रकारिता के भेष में ‘सुपारी किलिंग’ का काम कर रहे हैं।
वो एक अलग सवाल है और उस पर चर्चा भी फिर कभी होगी लेकिन पहले ये साफ़ कह लेते हैं कि जिस मामले में अर्णब को गिरफ़्तार किया गया है उसका पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं है। ये वो मामला नहीं है जिसमें किसी को इसलिये जेल भेज दिया गया कि उसने कोई ऐसी रिपोर्ट दिखाई या लेख लिखा जिससे सरकार को तकलीफ़ हो सकती थी।
ऐसे ढेरों मामले पिछले दिनों कई राज्यों में देखने को मिले हैं जहां किसी पत्रकार को इसलिये जेल में डाल दिया गया क्योंकि उसकी रिपोर्ट सरकार को चुभ गयी या सरकार का ऐसा राज़ फ़ाश हो गया कि जनता में उसकी छवि ख़राब हो गयी।
आर्किटेक्ट को नहीं दिए पैसे
इस मामले में कुछ तथ्य सामने रखने ज़रूरी हैं। अर्णब को अपना न्यूज़ चैनल लॉन्च करना था। अपना दफ़्तर बनाने के लिये अर्णब ने एक आर्किटेक्ट की कंपनी हायर की और आरोप ये लगा कि काम होने के बाद पूरे पैसे देने से इनकार कर दिया। लिहाज़ा आर्किटेक्ट अन्वय नाइक और उसकी कंपनी आर्थिक संकट में डूब गयी। जब बार-बार पैसे माँगने पर भी पैसे नहीं मिले तो अन्वय और उसकी माँ ने तनाव में आकर आत्महत्या कर ली।
आत्महत्या से पहले अन्वय ने एक नोट लिखा था। इस नोट में पूरे मामले का ज़िक्र है और अर्णब गोस्वामी और दो और लोगों के नाम हैं। यानी ये सुसाइड नोट है और नोट में अर्णब का नाम होने से आत्महत्या के लिये उकसाने या मजबूर करने का केस बनता है।
ये मामला 2018 का है। तब बीजेपी की सरकार महाराष्ट्र में थी। आरोप ये लगा कि पुलिस ने इस मामले में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई और मामला ये कह कर बंद कर दिया कि पर्याप्त सबूत नहीं मिले।
सुशांत मामले में अर्णब की पत्रकारिता
2019 में महाराष्ट्र में सरकार बदलने के साथ हालात बदल गये। इस बीच सुशांत सिंह राजपूत के मामले में रिपब्लिक टीवी और दूसरे चैनलों ने पत्रकारिता के नाम पर जो गंदगी मचाई, उसकी पूरी दुनिया में थू-थू हुई। लेकिन अर्णब ने सारी हदें पार कर दी। उन्होंने महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे, शिवसेना और मुंबई पुलिस के साथ जमकर गाली-गलौच की।
अर्णब ने ऐसी भाषा का इस्तेमाल किया जो किसी भी पत्रकार को शोभा नहीं देता और न ही वो भाषा एक पत्रकार की हो सकती है। बाद में सुशांत का पूरा मामला ही उल्टा पड़ गया। साफ़ है कि महाराष्ट्र पुलिस ताक में थी। उसने कोर्ट के आदेश पर आर्किटेक्ट की आत्महत्या वाले केस की नये सिरे से जाँच पड़ताल शुरू की और अर्णब को गिरफ़्तार कर लिया।
सवाल अब यहाँ ये उठता है कि क्या पुलिस ने बदले की कार्रवाई की? पिछले छह महीने के घटनाक्रम को देखते हुए इस आरोप में दम लगता है।
टीआरपी घोटाले में रिपब्लिक का नाम
इससे पहले टीआरपी घोटाले में भी पुलिस रिपब्लिक टीवी और अर्णब को आरोपी बना कर जाँच कर रही थी। रिपब्लिक टीवी के कई पत्रकारों के ख़िलाफ़ एफआईआर दर्ज हो चुकी है और उनसे कई राउंड की पूछताछ भी हो चुकी है।
ये संभावना जताई जा रही थी कि टीआरपी घोटाले में पुलिस अर्णब को गिरफ़्तार कर सकती है। इस मामले में दो टीवी चैनलों के मालिक पहले से ही जेल में हैं। पर इस बीच पुलिस आर्किटेक्ट की आत्महत्या के केस में 4 नवंबर की सुबह उनके घर जा धमकी और उठा लिया।
बड़ा सवाल
सवाल ये है कि अगर किसी और शख़्स का नाम आत्महत्या के बाद सुसाइड नोट में पाया जाता और एक ही परिवार के दो लोग आत्महत्या कर लेते तो पुलिस क्या करती? क्या पुलिस कोई कार्रवाई नहीं करती? हाथ पर हाथ धरे बैठी रहती? गिरफ़्तारी नहीं करती?
पुलिस क़तई लिहाज़ नहीं करती। सौ फ़ीसदी गिरफ़्तार करती, कस्टडी में लेकर पूछताछ करती, गवाहों से आमना-सामना करवाती। बाद में हो सकता है कि कोर्ट से ज़मानत मिल जाती और केस चलता रहता। अगर क़ानून की नज़र से देखा जाये तो पुलिस के काम में खोट नहीं निकाला जा सकता। लेकिन यहाँ तो हंगामा मचा हुआ है।
अर्णब की गिरफ़्तारी को आनन-फ़ानन में प्रेस की आज़ादी पर हमला बोल दिया गया। पत्रकार कूदते इससे काफ़ी पहले बीजेपी और मोदी सरकार के शीर्ष मंत्री और नेता इसमें कूद पड़े।
जो मंत्री किसी पत्रकार की गिरफ़्तारी पर अमूमन चुप रहते हैं, वे ट्विटर पर बेहद सक्रिय दिखे। प्रधानमंत्री को छोड़कर केंद्र सरकार के बाक़ी मंत्रियों ने महाराष्ट्र सरकार को कठघरे में खड़ा कर दिया। देश के रक्षा मंत्री का भी ट्वीट आया, जो अक्सर ट्वीट नहीं करने के लिये जाने जाते हैं। गृहमंत्री ने भी बयान दे डाला।
बीजेपी नेताओं का विलाप
मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भला कहां पीछे रहते। क़ानून मंत्री ने तो सोनिया गांधी और राहुल गांधी को भी लपेटे में ले लिया। सूचना और प्रसारण मंत्री को लगा कि ये पत्रकारिता पर हमला है। एक तेज तर्रार कैबिनेट मंत्री हैं, उन्हें तो फासीवाद की याद आ गयी। और तो और यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ जिनके शासन काल में न जाने कितने पत्रकार जेल की सलाख़ों के पीछे हवा खा रहे हैं, उनको भी प्रेस की आज़ादी ख़तरे में लगने लगी।
बीजेपी के संगठन मंत्री भी जाग गये। बाकी के बीजेपी के नेताओं, सांसदों और प्रवक्ताओं की तो बात ही नहीं है। ऐसा लगता है जैसे अर्णब की गिरफ़्तारी से इन नेताओं को कोई निजी क्षति हुई है।
बीजेपी नेताओं और मोदी सरकार की ये प्रतिक्रिया कई मायने में अप्रत्याशित बिल्कुल नहीं। क्योंकि बीजेपी और अर्णब का रिश्ता सबको मालूम है। वो सरकार का एजेंडा धमाके से चलाता है। जो काम बीजेपी के अपने नेता नहीं कर पाते या करना नहीं चाहते, वो उसके माध्यम से पार्टी और सरकार करवा लेती है।
बीजेपी के कई वरिष्ठ नेता मुझसे कह चुके हैं कि इस चैनल पर तो हमें कुछ बोलने की ज़रूरत ही नहीं होती। वो खुद ही पार्टी का काम कर देता है। बीजेपी के एक प्रवक्ता ने मुझसे कहा कि कई बार तो शर्म आने लगती है। ऐसे में अर्णब की गिरफ़्तारी का अर्थ है- सत्ताधारी पार्टी के एक अंग का कमजोर होना।
आज़ाद है मीडिया?
लिहाज़ा, सब दाना-पानी लेकर महाराष्ट्र सरकार पर पिल पड़े और 1975 के आपातकाल की बात करने लगे हैं। उनकी बातों से लगता है कि दुनिया में अगर कहीं मीडिया सबसे ज़्यादा आज़ाद है तो वो भारत है और ये गिरफ़्तारी प्रेस पर सबसे बड़ा हमला है। काश ये सच होता! देश के अंदर और बाहर सबक़ो पता है कि मीडिया की हालत पिछले कुछ सालों में क्या हो गयी है। और क्यों भारतीय मीडिया को उत्तर कोरिया का मीडिया कहा जाने लगा है।
ये वही मंत्री हैं जो यूपी में पत्रकारों की गिरफ़्तारी पर चुप रहते हैं। पत्रकारों पर देशद्रोह का मुक़दमा लगने पर न तो बयान देते हैं और न ही उनको आपातकाल की याद आती है।
यहाँ तक कि जब किसी भारतीय पत्रकार को मैगसेसे पुरस्कार मिलता है तो पार्टी और सरकार का एक भी आदमी उसे बधाई नहीं देता और ऐसा बर्ताव किया जाता है जैसे वो पत्रकार पाकिस्तान का नागरिक हो या फिर चीन का।
आलोचना करो तो देशद्रोही
जब किसी कैमरा मैन को उसकी असाधारण तसवीरों की वजह से पत्रकारिता का सबसे बड़ा अवार्ड, पुलित्जर मिलता है तो ऐसे पत्रकारों को देशद्रोही बताने का प्रयास होता है क्योंकि उनकी तसवीरें कश्मीर की थीं। और जो पत्रकार सरकार या पार्टी की आलोचना करता है- उसे देशद्रोही, ग़द्दार, जयचंद, देश का दुश्मन, काक्रोच करार दिया जाता है और उससे सारे संबंध तोड़ लिये जाते हैं, सरकार और पार्टी में उसकी सारी ऐक्सेस बंद कर दी जाती है।
उधर, बड़े-बड़े पत्रकारों को भी लगता है इस घटना की निंदा नहीं की तो वे शायद पत्रकार होने का धर्म खो देंगे और अगर आज नहीं बोले तो फिर आगे कभी नहीं बोल पायेंगे। आखिर ये हिप्पोक्रेसी क्यों, कैसे और किसलिये?
एक वरिष्ठ पत्रकार ने कहा कि हम अर्णब की पत्रकारिता को अप्रूव नहीं करते लेकिन क्या किसी संपादक को ऐसे गिरफ़्तार किया जाना चाहिये। ये ग़लत है। मैं मानता हूँ कि ये ग़लत है। लेकिन पुलिस तो ऐसे ही बर्ताव करती है। क्या ये सच किसी को नहीं मालूम है?
जब किसी ग़रीब या किसी ज़िले में किसी पत्रकार को पुलिस घसीटती है तो ये सच क्यों उद्घाटित नहीं होता? ये सामूहिक ‘निंदा गान’ दरअसल एक सामूहिक ‘अपराध बोध’ है। ये अपराध बोध है पिछले सालों में सत्ता के सामने दंडवत होती पत्रकारिता का और उन पत्रकारों का, जो जानते हैं कि जो वो कर रहे हैं, उसका हिसाब भविष्य में देना होगा।
ये पत्रकार और संपादक, इस तथ्य से वाक़िफ़ हैं कि इस देश में स्वतंत्र पत्रकारिता बहुत जल्दी ही डायनासोर की तरह विलुप्त हो जायेगी और पत्रकारिता के नाम पर दलालों की एक नई फौज़ नई तरह की पत्रकारिता का नया गान लिखेगी।
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