सांप्रदायिक हिंसा भारतीय समाज का अभिशाप है। पूर्व-औपनिवेशिक काल में कभी-कभार नस्लीय विवाद हुआ करते थे। मगर अंग्रेजों के आने के बाद धर्म और कौम के नाम पर विवाद और हिंसा बहुत आम हो गए। अंग्रेजों ने अतीत को तत्कालीन शासक के धर्म के चश्मे से देखने वाला सांप्रदायिक इतिहास लेखन किया। यहीं से वे नैरेटिव बने जिनसे हिन्दू और मुस्लिम सांप्रदायिक सोच और धाराएँ उभरीं। इन दोनों धाराओं ने अपने-अपने हितों को साधने के लिए आम सामाजिक समझ के अपने-अपने संस्करण विकसित किये और धर्म के नाम पर हिंसा भड़काने की नयी-नयी तरकीबें ईजाद कीं। पिछले क़रीब तीन दशकों में सांप्रदायिक हिंसा और तनाव में बहुत तेजी से बढ़ोतरी हुई है। अध्येता, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता और शोधार्थी बहुसंख्यक समुदाय का साम्प्रदायिकीकरण करने और हिंसा भड़काने के नये तरीकों को समझने के प्रयास में लगे हुए हैं।