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फ़ाइल फ़ोटो

नरेंद्र मोदी का जन्मदिन आज; 'आपदा में अवसर' और सत्ता तक पहुँचने की बेहतर समझ 

17 सितम्बर 1950 को गुजरात के वडनगर में जन्मे मोदी का 2020 में दुनिया के सबसे ताक़तवर नेताओं की जमात में शुमार होने का सफर, सिर्फ़ एक कहानी भर नहीं है। नरेंद्र मोदी का राजनीतिक सफ़र ‘आपदा को अवसर’ में बदलने की उनकी कुशलता का सबूत है। मोदी की राजनीति पर विजय त्रिवेदी का आकलन।
विजय त्रिवेदी

भारतीय जनता पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी का नरेन्द्र मोदी की तारीफ़ में एक ज़माने पहले यह कहना कि – ‘ही इज द मोस्ट क्रिटिसाइज़्ड मैन, इन इंडियन पॉलिटिक्स’, आज भी ख़रा उतरता है। यह अलग बात है कि कुछ अरसे पहले आडवाणी भी उन लोगों की भीड़ में शामिल हो गए जो मोदी के आलोचक हैं।

तमाम उतार–चढ़ावों के बावजूद एक के बाद एक सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ते जाना आसान काम नहीं होता और ज़िंदगी के सात दशक पूरे करते वक़्त सबसे ऊपर होना और वहाँ टिके रहने का नाम है नरेन्द्र मोदी।

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17 सितम्बर 1950 को गुजरात के वडनगर में जन्मे मोदी का 2020 में दुनिया के सबसे ताक़तवर नेताओं की जमात में शुमार होने का सफर, सिर्फ़ एक कहानी भर नहीं है। देश में सबसे लोकप्रिय नेता, लेकिन साथ ही विरोधियों की तादाद भी देश में किसी भी नेता के ख़िलाफ़ होने वालों में सबसे ज़्यादा है। राजनीतिक क्षेत्र में कहा जाता है कि मोदी परवाह नहीं करते, बेपरवाह हैं, लेकिन लापरवाह नहीं।

यह वक़्त मोदी का इतिहास लिखने का नहीं है, क्योंकि बीजेपी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि वो ख़ुद इतिहास लिख रहे हैं, एक नयी ज़ुबान का इतिहास। नए तरीक़े की राजनीति, नए तरह का राजनीतिक व्यवहार और रफ्तार भी। इस सबके लिए भी आलोचनाओं का सामना करने को तैयार।

मोदी अक्सर ‘आपदा को अवसर’ में बदलने की बात करते हैं, इस पर ज़ोर देते हैं। वह ख़ुद इस कला में माहिर हैं, बल्कि हक़ीक़त में तो वह हर बार अपने लिए आपदा से ही अवसर को तलाशते रहे हैं।
याद कीजिए कि गुजरात विधानसभा के एक चुनाव के दौरान मोदी को ‘मौत का सौदागर’ कहा गया, लेकिन इसके बाद वो गुजरात में ज़्यादा ताक़त से ना केवल जीत कर आए, बल्कि उनकी लोकप्रियता का करिश्मा गुजरात के बाहर भी पसरने लगा। कांग्रेस अधिवेशन में मणिशंकर अय्यर का उन्हें ‘चायवाला’ कहना और वो उसके जवाब में चुनाव में ‘चाय पर चर्चा’ करके प्रधानमंत्री बन गए। राहुल गाँधी ने जब ‘चौकीदार चोर’ का नारा दिया तो मोदी ने ‘मैं भी चौकीदार’ के नाम से एक नई बहस शुरू कर दी, लगा देश में चौकीदार बनने की होड़ लग गई।

कैबिनेट केवल औपचारिकता भर?

तमाम विरोध और राजनीतिक आशंकाओं के बावजूद मोदी सरकार ने तीन तलाक़ के ख़िलाफ़ क़ानून बनाने का फ़ैसला किया। फिर नेहरू की सेक्यूलरिज़्म की दुहाई का जवाब देते हुए रामजन्मभूमि परिसर में भूमि पूजन के लिए पहुँच गए। चीन की फौज के गलवान घाटी में पहुँचने के आरोपों और दबावों के बीच वो भारतीय फौजियों के बीच लद्दाख पहुँच जाते हैं।

कुछ लोग कहते हैं कि अब सरकार में कैबिनेट केवल औपचारिकता भर रह गई है। प्रधानमंत्री के एजेंडा के सिवाय कुछ नहीं होता। पार्टी के दिग्गज नेताओं के लिए कोई जगह नहीं बची है, नंबर एक से दस तक सिर्फ़ मोदी हैं। 

ज़्यादातर नेताओं के औपचारिक तौर पर मुस्कराते चेहरे मुझे अरुण जेटली की उस समझाइश को याद दिलाते हैं कि ‘जब पार्टी में या सरकार में आपकी सुनवाई नहीं हो रही हो या नहीं चलती हो तो इसका ज़िक्र बाहर आकर मत कीजिए, सिर्फ़ मुस्कराइए, वरना आपका कार्यकर्ता और वोटर भी आपको नहीं पूछेगा’।

 ‘टोकनिज़्म’ की राजनीति?

एक ज़माने में बीजेपी के सबसे ताक़तवर महासचिव रहे गोविन्दाचार्य कहते हैं कि एक नेता को बड़ा बनने के लिए सबसे ज़रूरी बात है-विपरीत परिस्थिति में ख़ुद को मज़बूती से खड़ा रखने की पूरी तैयारी, इसके साथ तकनीक और साधन हो तो फिर रास्ता निकल आता है। गोविन्दाचार्य के मुताबिक़ मोदी के पास सत्ता तक पहुँचने की बेहतर राजनीतिक समझ है। मोदी चुनाव जीतने के लिए पूरी ताक़त लगा देते हैं और साथ ही वो किसी तरह के हमले की ना तो परवाह करते हैं और ना ही घबराते हैं।

वरिष्ठ पत्रकार के जी सुरेश मानते हैं कि ज़्यादातर राजनेता सत्ता मिलने से पहले ‘टोकनिज़्म’ की राजनीति करते हैं, फिर सत्ता हासिल करने के बाद वो सब एक जैसे हो जाते हैं। लेकिन मोदी सत्ता मिलने से पहले भी टोपी पहनने से इनकार करते हैं और प्रधानमंत्री बनने के बाद भी टोपी नहीं पहनते। सुरेश के मुताबिक़ मोदी को ‘नो रोलबैक पीएम’ कहना चाहिए।

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आरएसएस और बीजेपी  ‘जुड़वा भाई’ बना दिया?

लेखक और पत्रकार नीलांजन मुखोपाध्याय से जब आरएसएस और बीजेपी के रिश्तों को लेकर सवाल करता हूँ तो उनका जवाब है कि वाजपेयी और आडवाणी के वक़्त तक दोनों संगठनों के बीच बड़े भाई-छोटे भाई जैसा रिश्ता होता था, उसमें आरएसएस ‘बिग ब्रदर’ की भूमिका में रहता था, लेकिन नरेन्द्र मोदी के आने के बाद अब दोनों संगठन ‘जुड़वा भाई’ हो गए हैं। अब ‘रिमोट कंट्रोल’ की व्यवस्था नहीं रह गई है।

आलोचक मानते हैं कि मोदी के कार्यकाल में संवैधानिक संस्थाओं की ताक़त कम हुई है, लेकिन इसके लिए उन संस्थाओं और उनके प्रमुख आलोचना से नहीं बच सकते। याद कीजिए टी एन शेषन को, जिन्होंने मुख्य चुनाव आयुक्त के तौर पर चुनाव आयोग को सबसे ताक़तवर संस्था बना दिया था। सुना है कि चुनाव आयोग अब भी है।

कोरोना काल की विषम परिस्थितियों में संसद का मानसून सत्र शुरू हो गया है। एक पर्याप्त सत्र 14 सितम्बर से एक अक्टूबर तक, शनिवार और रविवार को भी अवकाश नहीं, लेकिन संसद में सदस्यों का सबसे बड़ा अधिकार ‘प्रश्नकाल’ नहीं रखा गया है और ‘शून्यकाल’ का वक़्त कम कर दिया गया है। यानी ज़्यादातर वक़्त सरकारी कामकाज को पूरा करने में ख़र्च होगा। मगर विपक्ष के औपचारिक विरोध के अलावा कुछ नहीं हुआ, क्या किसी ने जानना चाहा कि दोनों सदनों के प्रमुखों की इस पर क्या राय थी? कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी और सोनिया गाँधी निजी कारणों से ज़्यादातर वक़्त संसद में नहीं होंगे और कांग्रेस पार्टी में अंदरूनी कलह से किसी के पास कोई दिशा नहीं है, शायद इसीलिए राज्यसभा और लोकसभा में पार्टी के नेता की राय अलग अलग दिखाई, सरकार इसका फ़ायदा उठाए तो किसे दोष दिया जा सकता है?

देश में इस वक़्त स्पष्ट बहुमत वाली केन्द्र सरकार है और ज़्यादातर राज्यों में बीजेपी और उसके सहयोगी दलों की सरकारें हैं। यह राजनीतिक तसवीर पिछले छह साल में बदली है यानी मोदी के नेतृत्व में। इसका क्या फ़ायदा है या नुक़सान, इस पर बहस होनी चाहिए, लेकिन इसके श्रेय पर तो मतभेद नहीं हो सकता। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को जन्मदिन की बहुत शुभकामनाएँ!

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