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'पेपर लीक': पीएम मोदी बोलते हैं तो अब कोई सुनना नहीं चाहता?

18 जून को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने लोकसभा क्षेत्र वाराणसी में थे। लोकसभा चुनाव जीतने के बाद मोदी पहली बार वाराणसी पहुंचे थे। वहाँ पहुंचकर उन्होंने कहा कि- काशी के लोगों ने उन्हें लगातार तीसरी बार अपना प्रतिनिधि ही नहीं, बल्कि प्रधानमंत्री के रूप में भी चुना है। उन्होंने आगे कहा- अब तो मुझे माँ गंगा ने भी जैसे गोद ले लिया है और मैं यहीं का हो गया हूँ। हजारों लाखों वर्षों से गंगा जैसी नदियां अनवरत बह रही हैं। चुनावी शोर और फिर से मिली सत्ता की बागडोर संभालने को आतुर मोदी यह समझने में पूरी तरह विफल हैं कि नदी चाहे गंगा हो या फिर टेम्स, मिसीसिपी, नील या आमू, इनकी भौगोलिक जिम्मेदारी सभ्यताओं के निर्माण की है। ये नदियां पूरी की पूरी सभ्यता का पालन-पोषण करती हैं, किसी एक व्यक्ति के निर्माण से या उसके पतन से उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता। 

नदियाँ भूगोल को गोद लेती हैं और तब तक परवरिश करती हैं जबतक स्वयं इंसान इन्हें खत्म करने के साधन नहीं जुटा लेता। लेकिन फिर भी यदि मोदी गंगा के साथ अपना कोई भावनात्मक जुड़ाव खोज चुके हैं तो उन्हें गंगा की साफ़-सफ़ाई के अपने 10 साल पुराने वादे पर फिर से गौर करना चाहिए। क्योंकि यदि गंगा ने सवाल पूछ लिया कि नेशनल गंगा रिवर बेसिन अथॉरिटी के 10 सालों से चेयरपर्सन होने के नाते उन्होंने नदी की साफ़-सफ़ाई अभी तक पूरी क्यों नहीं की, तो उनसे जवाब देते नहीं बनेगा।

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मोदी के नेतृत्व वाली इस सरकार में असली मसला ‘जवाबदेही’ का ही है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में इतनी गैर-जिम्मेदार सरकार खोज पाना प्रकाश की गति से चल पाने जैसा ही है। मोदी जिस तरह गंगा को याद करते हैं वैसे ही देश के युवाओं को भी बार-बार याद करते हैं लेकिन जब उनकी समस्याएँ सुनने का समय आता है तब चुप्पी साध लेते हैं। भारत में 65% आबादी युवा है। इसमें से ज्यादातर आबादी रोजगार की तलाश में है और प्रतियोगी परीक्षाओं में लगी हुई है। बेलगाम केन्द्रीकरण की समस्या से ग्रसित मोदी सरकार हर बड़ी परीक्षा को कंट्रोल कर रही है। लेकिन जब सवाल स्वस्थ्य तरीक़े से परीक्षा के आयोजन का आता है, सरकार बुरी तरह फेल हो जाती है। पिछले 7 सालों में ही देश भर में 70 परीक्षाओं के पेपर लीक हो चुके हैं जिसकी वजह से एक करोड़ 50 लाख से अधिक छात्र प्रभावित हो चुके हैं। नीट-यूजी (2024) के पेपर की लीक की ख़बर है। भारत की 140 करोड़ आबादी के स्वास्थ्य को सुनिश्चित करने के लिए डॉक्टरों की ज़रूरत होती है। भारत में ये डॉक्टर नीट परीक्षा के माध्यम से चुने जाते हैं। यह परीक्षा नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (NTA) द्वारा आयोजित की जाती है। लेकिन ताज्जुब की बात तो देखिए 2024 में आयोजित इस परीक्षा का पेपर लीक हो गया लेकिन बजाय कार्रवाई करने के NTA और सरकार का शिक्षा मंत्रालय लीपापोती में लग गये। 

सरकार ने मानने से ही इंकार कर दिया कि यह परीक्षा लीक भी हुई है। जब काँग्रेस अध्यक्ष ने बार-बार जोर से सवाल उठाया तब जाकर शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान ने माना कि परीक्षा में दो जगह चूक हुई है। नीट परीक्षा में ग्रेस मार्क देने के मामले में भी धांधली की आशंका की वजह से सुप्रीम कोर्ट ने 1563 छात्रों के पुनः परीक्षा का आदेश दिया। जिन छात्रों को किताबों के क़रीब होना चाहिए था, जिन्हें भविष्य बनाने के लिए, स्वास्थ्य सेवाओं में जल्द से जल्द पहुँचने के लिए अपनी पुस्तकों के साथ लड़ना था, मेहनत करनी थी, वो सड़कों पर प्रदर्शन में लगे हुए हैं, कारण बस इतना है कि नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली पिछली दो सरकारों की तरह यह तीसरी सरकार भी अपने ही नागरिकों की परेशानियों को कानों से सुनने में अक्षम है। यही हाल नेट-2024 परीक्षा का भी है। दो दिन पहले गुजरे 18 जून को इस परीक्षा का पेपर भी लीक हो गया। यह परीक्षा देश भर के विश्वविद्यालयों के लिए शिक्षकों की भर्ती से सम्बद्ध है और पीएचडी के लिए प्राथमिक योग्यता तय करती है। 

प्रधानमंत्री नारों-वादों और मुहावरों व मीडिया की रीढ़विहीनता के माध्यम से अपनी जिस आदर्श नायक की छवि गढ़ने में लगे हुए थे उसे 2024 के चुनाव परिणामों ने एक जबरदस्त लोकतान्त्रिक धक्का दिया है। इस धक्के को संस्थाओं द्वारा उठाए जा रहे सवालों के माध्यम से समझा जा सकता है। जो माननीय न्यायालय सैकड़ों-हजारों सिविल सोसाइटी के सदस्यों की गिरफ़्तारी पर लगभग चुप बना रहा, जो सामाजिक कार्यकर्ताओं को जमानत न मिलने पर चुप बना रहा, जो राम मंदिर निर्माण में बाबरी ध्वंस के मामले में चुप बना रहा, जो स्टैन स्वामी की मौत पर चुप बना रहा, जो ‘जनसंख्या जिहाद’ और ‘यूपीएससी जिहाद’ जैसे घटिया नैरेटिव चलाने वालों को कठोर संदेश न दे सका, वही न्यायालय नीट मामले में बेहद सधे हुए लेकिन न्यायिक रूप से आक्रोशित स्वर में केंद्र सरकार से कहता है कि- यदि नीट परीक्षा में 0.001% भी चूक हुई है तो उसकी विस्तार से जाँच होनी चाहिए। 
वाराणसी से पुनः चुने जाने पर और प्रधानमंत्री फिर से बन जाने पर ‘गौरव’ से लबरेज नरेंद्र मोदी को यह समझना चाहिए कि एक प्रतिनिधि के रूप में और प्रधानमंत्री के रूप में देश के करोड़ों नागरिक उनसे न्यायप्रिय होने की आशा रखते हैं।
उनको गौरव इस बात से होना चाहिए था कि वो भ्रष्टाचार को स्वीकार नहीं करेंगे लेकिन पेपर लीक पर उनकी चुप्पी बस एक बार फिर से बच कर निकल जाने की रणनीति भर है। पर इस बार भारत का सर्वोच्च न्यायालय न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जाहिर कर चुका है। जस्टिस विक्रमनाथ और जस्टिस भट्टी की अवकाशकालीन पीठ ने NTA को नोटिस जारी करते हुए दो सप्ताह में जवाब मांगा है। न्यायालय ने कहा कि अगर नीट परीक्षा में मामूली सी भी खामी पाई गई तो वो इससे सख्ती से निपटेंगे। इसके बाद न्यायालय ने जो कहा उसे पूरी नरेंद्र मोदी सरकार को सुनना चाहिए। पीठ ने कहा कि “कल्पना कीजिए कि व्यवस्था से धोखाधड़ी करने वाला कोई व्यक्ति अगर चिकित्सक बन जाए तो वह समाज के लिए कितना अधिक घातक होगा?” आशा की जा रही थी कि न्यायालय से पहले सरकार को इस बात को समझना चाहिए था। 
विचार से और
अपने ‘मन की बात’ से पहले लोगों की आवाज सुनने के लिए नेतृत्व का लोकतान्त्रिक सोच का होना बहुत जरूरी है। और मेरी नजर में नरेंद्र मोदी को लोकतान्त्रिक तरीके से काम का करने का कोई तजुर्बा नहीं है इसीलिए यह तीसरा कार्यकाल, यदि पूरा हो सका तो, उनके लिए ‘सीख’ और समन्वय का काल होगा। जिस नेता को सामाजिक कार्यकर्ता ‘आंदोलन-जीवी’ और विरोध प्रदर्शन करने वाले ‘एंटी-नेशनल’ समझ आते हों उसे एक ऐसी सरकार में काम करते देखना बहुत दिलचस्प होगा जिसमें मनमाना निर्णय लेने पर अंकुश लगा दिया गया हो। इससे पहले उन्हें कभी भी किसी ऐसी सरकार का हिस्सा नहीं बनना पड़ा जो अल्पमत में हो। 2001 में जब केशुभाई पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री थे, और उनकी तबीयत ठीक नहीं थी और गुजरात भुज में आए भूकंप से जूझ रहा था तब लाल कृष्ण आडवाणी ने मोदी को उप-मुख्यमंत्री बनने का प्रस्ताव दिया था लेकिन मोदी ने यह कहते हुए इंकार कर दिया था कि या तो पूरी जिम्मेदारी या कुछ भी नहीं। यहाँ तक कि जब उन्हें पहली बार मुख्यमंत्री भी बनाया गया तब भी उन्होंने कोई चुनाव नहीं लड़ा था। 
इसके बाद 13 सालों तक मुख्यमंत्री और फिर 10 सालों तक भारत का प्रधानमंत्री बने रहने के दौरान मोदी को कभी लोकतंत्र से ‘आमना-सामना’ नहीं करना पड़ा। वो बहुमत में रहे और मनमाफिक निर्णय लेते रहे।

यह अलग बात है कि सर्वसम्मति के अभाव में लिए गए उनकी नीतियाँ और निर्णय लगातार असफल होते रहे फिर चाहे ‘मेक इन इंडिया’ का धराशायी होना हो या फिर जीएसटी और विमुद्रीकरण का अर्थव्यवस्था को उठाकर पटक देना। लगातार युवाओं को नौकरी से वंचित रखना हो और विपक्षी नेताओं के साथ खराब व्यवहार और संविधान बदल देने की उनकी नीयत। सबने मिलकर उन्हें आज एक ऐसे जगह पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां से उन्हें भारतीय लोकतंत्र की बारीकियाँ सीखने का अनुभव मिलेगा।  

फाइनेंशियल टाइम्स को दिए अपने इंटरव्यू में विपक्ष का चेहरा और काँग्रेस नेता राहुल गाँधी ने चुनाव परिणामों को लेकर कहा कि “भारतीय राजनीति में टेक्टोनिक शिफ्ट आ गया है”। संभवतया राहुल गाँधी का मतलब इन्हीं लोकतंत्र की बारीकियों से ही है तभी तो वो कहते हैं कि अभी तक वर्षों से बंद रहा “भारतीय राजनीति का स्पेस अब खुल गया है”। 

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मुझे लगता है कि भले ही राजनैतिक स्पेस खुल गया हो, विपक्ष मजबूत हो गया हो लेकिन जिस तरह नरेंद्र मोदी ने सत्ता हासिल करने के लिए सांप्रदायिक तनाव पैदा करने वाले भाषण दिए, जिस तरह उन्होंने मुस्लिमों को घुसपैठिया साबित करने की कोशिश की, उसने भारतीय चुनावी राजनीति को अपने निम्नतम स्तर पर ला दिया है। कुछ दिन पहले सहारनपुर के रहने वाले तीन मुस्लिम युवकों- सद्दाम कुरेशी, चाँद मियां और गुड्डू ख़ान को 15 लोगों ने गोतस्करी के शक में बुरी तरह पीटा था, इसमें से दो की मौत तो उसी दिन हो गई थी और अंतिम तीसरा सद्दाम कुरेशी ने 18 जून को इलाज के दौरान दम तोड़ दिया। सोचिए एक समुदाय के प्रति कितनी घृणा परोसी गई है कि अपने को सभ्य समझने वाला समाज समूह में आकर पीट-पीट कर उसकी हत्या तक कर देता है। मुस्लिमों के खिलाफ हर दिन कितना उकसावा इन लोगों में बाँटा जाता है, कितना अधिक राजनैतिक, प्रशासनिक प्रश्रय दिया जाता है कि इन्हें डर ही नहीं लगता। भले ही राहुल गाँधी चुनाव परिणामों से उत्साहित हैं और कह रहे हैं कि “वास्तव में हुआ यह है कि, धार्मिक नफरत फैलाने का विचार, जोकि बीजेपी का मूलभूत ढाँचा है, वह धराशायी हो गया है”। लेकिन नफरत का यह ढाँचा ‘ऊपर’ लगातार मजबूत हुआ है। जिस नफ़रत ने सत्ता का सुख दिया, वैभव दिया उस नफ़रत को कैसे छोड़ेंगे? 

गंगा की गोद में बैठने के लिए बेताब, गंगा को अपना रिश्तेदार बनाने के लिए बेताब, भगवान द्वारा भेजे गए नेता जी क्या यह नहीं जानते कि गंगा जातियों और संप्रदायों में विभेद नहीं करती। गंगा को सत्ताधीश से मतलब नहीं है। गंगा तो विश्वास, पोषण, न्याय और जवाबदेही की प्रतीक है। गंगा ही क्यों भारत और दुनिया की हर नदी का यही स्वरूप है। क्या मोदी गंगा से यह सीख पाएंगे? या गंगा के राजनीतिकरण के बीच प्रतियोगी परीक्षाओं के पेपर लीक से पीड़ित विद्यार्थियों को भी भुला दिया जाएगा और अल्पसंख्यकों पर हो रहे अत्याचारों को भी, सरकार की अपनी नाकामी को भी छिपा दिया जाएगा और नेतृत्व की अक्षमता को भी, बेरोजगारी को भी छिपा दिया जाएगा और पैर पसार रही असमानता को भी।  

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एक तरह राहुल गाँधी एक ऐसे नेता हैं जो न्याय के लिए तब भी खड़े थे जब उनके दल की संसद में संख्या नाकाफ़ी थी और आज भी सरकार को संसद में घेरने, सवाल करने और जवाब के लिए चुनौती दे रहे हैं। राहुल नीट के भी साथ हैं, मणिपुर के भी, पहलवानों के भी साथ हैं और किसानों के भी। पर ऐसा नहीं है कि राहुल सिर्फ विपक्ष में ही रहकर लोगों की सुन रहे हैं। यूपीएससी की विभेदकारी नीतियों से पीड़ित विद्यार्थियों को सत्ता में रहते हुए राहुल गाँधी ने न सिर्फ सुना और मिले बल्कि उनकी सरकार द्वारा समय पर समाधान भी दिया और छात्रों को दो अतिरिक्त अवसर भी प्रदान किये। तो दूसरी तरफ एक रीढ़विहीन सरकार है जो छात्रों के हित में अपनी संस्था से सवाल तक नहीं कर सकती। आखिर मोदी क्यों नहीं पूछते NTA से कि नीट की परीक्षा कैसे लीक हो गई? मोदी पूछते क्यों नही कि नेट कैसे लीक हो गया, नीट का पेपर कैसे लीक हो गया, या परीक्षा पर चर्चा का कार्यक्रम ही देते रहेंगे? गंगा और जमुना की बातें छोड़कर, माँ-बेटे और ‘आतम-पर्मातम’ की बातें छोड़कर देश के युवाओं को जवाब क्यों नहीं देते मोदी कि उनकी सरकार इतनी अक्षम क्यों है कि एक राष्ट्रीय स्तर के पेपर को भी साइबर अपराध से नहीं बचा सकती। ऐसी सरकार देश की सुरक्षा कैसे कर पाएगी? 

भारत में तमाम समस्याएं हैं और इनको समाधान की तत्काल आवश्यकता है। किसी ऐसे नेता की तो आवश्यकता बिल्कुल नहीं जो अपनी जनता की कभी सुनता ही न हो, जिसके वैचारिक संगठन के मुखिया को भी कहना पड़ा कि सरकार ‘अहंकारी’ हो गई थी, ‘सबक’ मिल गया। जनता फ़ैसला कर चुकी है, अब संसद को फ़ैसला करना बाकी है। राहुल गाँधी ने तो इस जनता के ‘फैसले’ को लेकर टाइम्स से बातचीत में कहा है कि मोदी को मिला “संख्याबल कुछ इस तरह है, इतना नाजुक है कि जरा सी भी ऊँच-नीच हुई तो सरकार गिर जाएगी”।

राहुल गाँधी जब कहते हैं कि “मोदी नाम का विचार और मोदी की इमेज बुरी तरह ध्वस्त हो गई है”। तब इस बात को पूरी तरह नहीं नकारा जा सकता। जिस मोदी के नाम पर लोग सड़कों पर आ जाते थे उसे वाराणसी से अपनी सीट भी बचाना मुश्किल हुआ। अयोध्या और राम पर भरपूर निवेश करने वाले मोदी अयोध्या की सीट भी नहीं जिता सके। वास्तविकता तो यह है कि मोनोलॉग के आदी हो चुके मोदी को जनता ने न सिर्फ नकार दिया है बल्कि उनके व्यक्तिगत सम्मान में भी कमी आई है। वाराणसी में पीएम मोदी की कार पर किसी ने जूता फेंककर मार दिया। वैसे तो यह पीएम की सुरक्षा में सेंध का मामला है जिसकी जांच होनी ही चाहिए। लेकिन जरा सोचिए, जो मोदी एक ‘कल्ट’ बनने की ओर अग्रसर थे, जिसके लिए लोग सड़कों पर उतर आते थे, रिश्ते नाते में लड़ाइयाँ कर बैठते थे, वो अचानक लोगों की आँखों से गिर क्यों गए? जवाब आसान है, उन्होंने किसी को नहीं सुना, छात्रों को नहीं सुना, किसानों को नहीं सुना, विपक्ष को नहीं सुना, वंचितों को नहीं सुना, अल्पसंख्यकों को नहीं सुना इसलिए अब मोदी जब कुछ बोलते हैं तो कोई उन्हें नहीं सुनना चाहता।

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कुणाल पाठक
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