जब चुनावी राजनीति के सबसे मजबूत अखाड़ेबाज नरेंद्र मोदी ने अपने गुजरात दौरे के बीच भडोच में राज्य के आदिवासियों की तारीफ की तब बहुत काम लोगों को समझ आया कि वे इस तारीफ के साथ निशाना कहीं और साध रहे हैं। उन्होंने कहा कि मैं आदिवासियों के आगे सिर नवाता हूं कि उन्होंने नक्सलियों को अपने बीच जगह नहीं दी। और इस तारीफ़ के साथ ही उन्होंने बात ‘अर्बन नक्सल’ की तरफ मोड़ दी और आप को निशाना बनाया। उन्होंने कहा कि अर्बन नक्सल और फ़ॉरेन एजेंट गुजरात पहुँच गए हैं और वे राज्य के विकास में बाधा डालने का प्रयास कर रहे हैं। फिर उन्होंने ऐसे तत्वों द्वारा नर्मदा परियोजना में बाधा डालने की कोशिश का प्रसंग उठाकर बात और साफ की।
हम जानते हैं कि नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर ने आप के टिकट पर मुंबई से चुनाव लड़ा था। मोदी ने यह भी कहा कि इन्हीं तत्वों के विरोध के चलते सरदार सरोवर बांध बनाने में दशकों का समय लगा और खर्च काफी बढ़ गया। जिस तरह से आप पार्टी इस बार गुजरात को लेकर तैयारी कर रही है उसमें भाजपा नेता द्वारा उस पर हमला करना स्वाभाविक लगता है। अरविन्द केजरीवाल ही नहीं, पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान भी गुजरात के दौरे करने लगे हैं और आप की तरफ से जो दावे किए जा रहे हैं उसके अनुसार तो भाजपा डर गई है।
कहना न होगा कि प्रधानमंत्री के इस कथन में कोई डर नहीं दिखाता-उलटे एक चालाकी दिखती है। यह चालाकी पक्ष के साथ विपक्ष चुनने की है। आप चाहे जो कुछ कर रही हो, भाजपा के लिए यह साफ है कि अगर चुनावी मुकाबले में आप सामने हुई तो उसका जीतना आसान होगा। अरविन्द केजरीवाल अभी लोग तलाश रहे हैं और मुफ़्त बिजली-पानी समेत तरह-तरह के चुनावी वायदे कर रहे हैं जिसमें स्विस बैंकों में पड़े काले धन को लाने का हास्यास्पद वादा भी शामिल है। दूसरी ओर भाजपा राज्य के गाँव-गाँव पहुंची हुई है। संगठन और साधनों में उसका कोई मुक़ाबला नहीं। और खुद प्रधानमंत्री गुजरात आकर हजारों करोड़ की परियोजनाओं का उद्घाटन कर चुके हैं।
लेकिन प्रधानमंत्री कोई कच्चा खिलाड़ी नहीं हैं। उनको मालूम है कि चुनाव कैसे और किससे लड़ना है। आणंद में उन्होंने कहा कि कांग्रेस से सावधान रहने की ज़रूरत है क्योंकि इस बार उसने बिना शोर-शराबे के अभियान चलाने की रणनीति अपनाई है। वह गाँव-गाँव में ‘खटला बैठक’ कर रही है।
पीएम मोदी ने आणंद के विश्वास सम्मेलन में पार्टी कार्यकर्ताओं से कहा कि कांग्रेस के लोग प्रेस कॉन्फ्रेंस नहीं कर रहे हैं, टीवी पर नहीं आ रहे हैं, भाषण नहीं दे रहे हैं इसलिए भ्रमित मत होइए। कांग्रेस चुप नहीं है। वह गाँव-गाँव पहुँच रही है।
गुजरात में जिस तरह से भाजपा और आप की तैयारी दिखती है या इसके नेता जिस तरह चुनाव घोषणा के पहले से हंगामा करने लगे हैं, उससे किसी को भ्रम हो सकता है कि कांग्रेस लड़ाई से बाहर हो रही है। कांग्रेस के स्टार प्रचारक राहुल गांधी पदयात्रा में हैं और उनके रूट में गुजरात है भी नहीं। चुनाव होने तक पदयात्रा चलनी है। सो यह धारणा बन रही है तो आश्चर्य नहीं है।
मोदी पिछला चुनाव भी नहीं भूले हैं। पिछली बार भी कांग्रेस ने काफी परेशान किया था पर नरेन्द्र मोदी ने अपनी चालाकियों और राज्य के लोगों के मन से जुड़ाव के चलते अकेले उसको तार-तार कर दिया। लेकिन सवा करोड़ से ज़्यादा मिस्ड कॉल वाले सदस्य, साठ लाख वेरीफायड सदस्य, हर बूथ की मतदाता सूची के एक-एक पन्ने के लिये पन्ना प्रमुख की मुस्तैदी, हर घर पर बार-बार दस्तक, हर केन्द्र का इंचार्ज, हर तीन-चार केन्द्र पर एक सुपरवाइजर, हर क्षेत्र और जिले के प्रभारी और उसके ऊपर पचास केन्द्रीय मंत्रियों और बाहरी मुख्यमंत्रियों समेत हजारों बाहरी कार्यकर्ता तथा असंख्य स्वयं सेवकों वाली फौज अगर गुजरात में मात्र डेढ़ करोड़ वोट जुटाने में खुद को अक्षम रही (भाजपा को एक करोड़ सैंतालीस लाख वोट मिले जबकि कांग्रेस गठबन्धन को एक करोड़ सत्ताइस लाख) है तो उसे नरेन्द्र मोदी नामक करिश्मे पर आश्रित होने का पूरा हक है, लेकिन यह करिश्मा भी हर बार काम कर ही जाए यह कोई जरूरी नहीं है। इतनी बड़ी चुनावी तैयारी और इतना अपार संसाधन वाली लड़ाई आखिर में नरेन्द्र मोदी के सिर ही आ जाए तो यह सफलता है या असफलता?
पर 27 साल शासन कर चुकी बीजेपी के लिए मुश्किल यह है कि इस बार वह क्या कहकर वोट मांगेगी। लेकिन उससे ज्यादा बड़ी परेशानी यह है कि उसके लिए जीत का मतलब जितना अच्छा है, हार का मतलब उससे ज़्यादा ख़राब होगा। गुजरात दंगों से लेकर न जाने कितने प्रसंग वहां अभी दबे पड़े हैं। अगर गुजरात हाथ से निकला तो केंद्र पर भी आफत आने में वक़्त नहीं लगेगा।
चालाकी में अरविन्द केजरीवाल भी कम नहीं हैं। खुद को मोदी का विकल्प बनाने की उनकी मुहिम में अगर गुजरात उनके हाथ आ गया तो लोकसभा चुनाव तक वे सचमुच बड़े खिलाड़ी हो जाएंगे। पर पिछली बार कांग्रेस ने राहुल के सहारे विभिन्न जातियों के नेताओं के सहारे चुनाव लड़ा था। कार्यकर्ता, साधन और संगठन उपेक्षित थे। इस बार उस तरफ़ ध्यान लगता है। और यह संभव है कि केजरीवाल कांग्रेस की जगह भाजपा का ज्यादा नुक़सान करें क्योंकि दोनों दलों और नेताओं की अपील समाज के एक ही वर्ग में है। अल्पसंख्यक, आदिवासी, क्षत्रिय, हरिजन अभी भी कांग्रेस को ज़्यादा पसंद करते हैं।
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