आज पूरे देश में कोरोना की दूसरी लहर से हाहाकार मचा हुआ है। संक्रमण और मौतों का सिलसिला थम नहीं रहा है। यह हाल तब है जब सरकार इसकी भयावहता को छुपाने की सारी कोशिशें कर रही है। संकट के बावजूद लंबे समय तक गायब रहे मोदी ने 21 मई को राजीव गाँधी की पुण्यतिथि के दिन टीवी पर आकर लोगों के प्रति रुँधे गले से संवेदना व्यक्त की।
दरअसल, मोदी ने अपने आँसुओं से गवर्नेंस की असफलता को छिपाने का भावुकतापूर्ण प्रयास किया है। यह संवेदना प्रकट करने से अपनी इमेज चमकाने का प्रयास ज्यादा था। मोदी के रोने के 'अभिनय' पर सोशल मीडिया में तीखी प्रतिक्रिया हुई।
वरिष्ठ आलोचक पुरुषोत्तम अग्रवाल ने 'बाल नरेन्द्र की मगरमच्छ' की कहानी की ओर संकेत करते हुए लिखा कि उन्होंने मगरमच्छ से यही सीखा है! मशहूर शायर मुनव्वर राणा के एक चर्चित शेर की पैरोडी बनाते हुए किसी ने लिखा -'वो अपने गुनाहों को ऐसे धो देता है। जब भी मुसीबत में फँसता है रो देता है।'
लोकप्रियता में गिरावट
इन आँसुओं के पीछे का सच क्या है? दरअसल, कोरोना संकट की अव्यवस्था ने मोदी की लोकप्रियता को ध्वस्त कर दिया है। एक अमेरिकी सर्वे एजेंसी मॉर्निंग कंसल्ट के अनुसार सितंबर 2019 से अब तक मोदी समर्थक रहे शहरी मध्यवर्ग में उनकी लोकप्रियता में 22 प्रतिशत की गिरावट आई है। रायटर्स और सी-वोटर के सर्वे में भी मोदी की लोकप्रियता घटी है।
शहरी मध्य वर्ग मोदी का अंध समर्थक रहा है। मोदी की हर बात को उसने अपने कुतर्कों से जस्टिफाई किया। मोदी की आलोचना करने वालों से वह सीधे दो-दो हाथ करने के लिए तैयार रहता था। नोटबंदी, जीएसटी, तालाबंदी, गलवान घाटी में चीनी घुसपैठ जैसे मुद्दों को भी भुलाकर यह वर्ग मोदी समर्थक बना रहा। लेकिन आज इसके अपने काल कवलित हो रहे हैं। वह अस्पतालों और दवाइयों की दुकानों के सामने धक्के खा रहा है। डाक्टरों, नर्सों के आगे गिड़गिड़ा रहा है। लेकिन हर जगह से दुत्कारा जा रहा है।
ग़ायब हो गए थे मोदी
बीमारी पर इलाज के खर्च से उसकी आर्थिक हालत चरमरा गई है। अब उसका हौसला और धैर्य जवाब दे रहा है। इस अव्यवस्था और बेबसी ने उसके वॉट्स ऐप यूनिवर्सिटी के ज्ञान को चकनाचूर कर दिया है। ऐसे में उसको मिला क्या? मरते हुए लोगों के लिए मोहन भागवत का 'मुक्ति' पाठ! तब उसके तारणहार और विश्वगुरू भारत के नए अवतार मोदी परिदृश्य से ग़ायब थे। गोया वे देश को बचाने के लिए किसी कठिन तपस्या पर चले गए हों।
दरक रहा भरोसा
एक बार फिर वे नमूँदार हुए, महर्षि के वेश में। पीले वस्त्रों और हल्के पीताभ अंगवस्त्र के साथ। (कंट्रास्ट के लिए) श्वेत धवल दाढ़ी। आहा! और फिर लाइट, कैमरा, एक्शन! एक बेहतरीन अभिनय। भावुक पटकथा का आध्यात्मिक अंत। लेकिन शहरों महानगरों के शवदाहगृह में जलती चिताओं, गंगा यमुना की पट्टी में बिछी लाशों और आँखों में अपनों को खोने के गम भरे आँसुओं के अक्स में इस बार इस मध्यवर्ग को अपना हृदय सम्राट नहीं भाया। अब उसका विश्वास दरक रहा है। वह अंदर से टूट चुका है।
बहरहाल, अब सवाल यह है कि कोरोना महामारी की दूसरी लहर से भारत सबसे ज्यादा क्यों प्रभावित हुआ? सरकारी आँकड़ों के मुताबिक़ एक दिन में औसतन चार हजार मौतें हो रही हैं और दो लाख से अधिक लोग संक्रमित हो रहे हैं।
हजारों लाशों का अंबार
गौरतलब है कि सरकारी आँकड़ों और जमीनी सच्चाई में जमीन-आसमान का अंतर होता है। ढहती स्वास्थ्य सेवाओं और सरकारी नाकामी का मंजर उत्तर भारत की गंगा यमुना की पट्टी में हजारों लाशों के अंबार में दिखाई दे रहा है। अधजली तैरती लाशों को किनारे लाकर कुत्ते नोच-नोचकर खा रहे हैं। जलाने के लिए लकड़ी आदि के अभाव में परिजन शवों को रेत में दफना रहे हैं।
सैकड़ों कोस में पसरी गंगा की पट्टी में दफन कतारबद्ध लाशों के ठीहे महामारी की भयावहता को बयान कर रहे हैं। यूपी के मुख्यमंत्री इसको झुठलाते रहे। लेकिन बारिश ने रेत में दफनाई गई लाशों को बेपर्दा कर दिया। इसने योगी की अव्यवस्था को भी नंगा कर दिया। लेकिन योगी धृतराष्ट्र बने इस महाभारत के अंत और चुनावी जीत की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
सरकारी नाकामी का आलम यह है कि पूरे देश की स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो चुकी हैं। अस्पतालों में बिस्तर, वेंटिलेटर, आईसीयू, दवाएं और डॉक्टर की कमी से मरीज मर रहे हैं। सच्चाई यह है कि मरीज कोरोना की अपेक्षा स्वास्थ्य सेवाओं की बदहाली और सरकार के गैर जिम्मेदाराना रवैये से ज्यादा मर रहे हैं।
बेबस और लाचार लोग
वास्तव में, कोरोना की दूसरी लहर मैनमेड है। वायरस के विशेषज्ञों की चेतावनी के बावजूद चुनावों में बड़ी-बड़ी रैलियाँ की गईं। कुँभ जैसे धार्मिक आयोजन हुए। ऐसे में वायरस का संक्रमण शहरों-महानगरों से निकलकर बहुत तेजी से ग्रामीण क्षेत्रों में हुआ। संक्रमण को रोकने के लिए कोई उपाय नहीं किया गया। मरीजों को मरने के लिए बेबस और लाचार बनाकर छोड़ दिया गया।
क्या मोदी भयभीत हैं?
दरअसल, मोदी को जनता के जान-माल की नहीं बल्कि हमेशा अपनी इमेज की चिंता रहती है। सूट-बूट और डिजाइनर देसी परिधानों से सुसज्जित रहने वाले मोदी हमेशा अपनी चमकदार इमेज को बनाए रखना चाहते हैं। जब सार्वजनिक हित और देश के मुद्दों पर मोदी नाकाम होते हैं तो जाहिर है ऐसे समय लोगों के मन में ढेरों सवाल होते हैं, तब मोदी चुप्पी साध लेते हैं। ऐसा उन्होंने नोटबंदी से लेकर लॉकडाउन के समय भी किया था।
आईटी सेल और गोदी मीडिया
गलवान घाटी में भारतीय सैनिकों की शहादत और चीनी घुसपैठ के समय भी मोदी लंबे समय तक खामोश बने रहे। ऐसे नाजुक मौकों के लिए लोकविमर्श को बदलने और सवालों को गायब करने के लिए उनके पास आईटी सेल और हिन्दुत्ववादियों की पूरी फेहरिस्त है। इसको लोगों तक पहुँचाने वाला मीडिया भी है और इनकी काबिलियत पर मोदी को पूरा यकीन भी है।
कोरोना संकट में नाकामियों को छुपाने के लिए कॉरपोरेट मीडिया सरकार की जगह सिस्टम शब्द को गढ़कर अपने आकाओं को बचाने की कोशिश कर रहा है। हालांकि इधर कुछ देसी-विदेशी पत्र-पत्रिकाओं ने सरकार की नाकामी पर तीखी टिप्पणियाँ लिखी हैं।
नाकामियों को छुपाने की कोशिश
आपदा में ग़ायब होने को रेखांकित करते हुए मीडिया ने अव्यवस्था और मौतों के लिए मोदी सरकार को जिम्मेदार ठहराया है। लेकिन आपदा में अवसर तलाशने वाला मोदीतंत्र अपनी जिम्मेदारियों को मीडिया मैनेजमेंट के सहारे सिस्टम जैसे शब्दों और मोदी के समर्थन में चलाए जा रहे सोशल मीडिया कैंपेन से छिपाने की कोशिश कर रहा है।
अब सवाल यह है कि इस अव्यवस्था के क्या कारण हैं। भारत को पाँच ट्रिलियन डॉलर की इकनॉमी बनाने का सपना दिखाने वाले मोदी क्यों इस आपदा को नहीं संभाल पा रहे हैं? क्या भारत के लोगों के लिए सस्ती दवाइयाँ और मेडिकल इक्विपमेंट्स नहीं उपलब्ध कराए जा सकते?
धार्मिक और सांस्कृतिक शिविर लगाने में माहिर कथित राष्ट्रसेवा करने वाला संघ मेडिकल शिविर आयोजित क्यों नहीं कर रहा है? मोदी सरकार की प्राथमिकता क्या है? लोगों से अर्जित हजारों करोड़ रुपये का टैक्स आखिर कहाँ जा रहा है? भारत के नागरिकों को समय से टीका क्यों नहीं मिला?
देश में टीके की कमी क्यों?
यूएनओ की दावोस बैठक में भाषण देते हुए मोदी ने कहा था कि भारत का विकसित टीका पूरी दुनिया में अग्रणी भूमिका अदा कर रहा है। भारत के 130 करोड़ लोगों की परवाह किए बिना मोदी सरकार ने विदेश टीके भेजे। मार्च के अंत में लोकसभा में विदेश राज्य मंत्री वी. मुरलीधरन ने बताया कि कोरोना वैक्सीन कूटनीति के तहत 6.45 करोड़ खुराक 76 देशों को भेजी गई। इसमें नेपाल, सेशेल्स जैसे 40 छोटे देशों को 1.05 करोड़ टीके फ्री में दिए गए। लेकिन विश्वगुरू भारत में टीके की कमी क्यों है? क्या मोदी अपनी वैश्विक इमेज के लिए भारत के लोगों की जान को दाव पर लगा रहे हैं?
इमेज बिल्डिंग पर खर्च
मोदी सरकार लोगों के टैक्स के पैसों का बेजा इस्तेमाल कर रही है। कोरोना संकट के बावजूद टैक्स का इस्तेमाल सार्वजनिक हित के अस्पताल बनवाने, वैक्सीन उपलब्ध कराने, दवा कंपनियों को छूट देने के बजाय सरकार कुँभ के आयोजन, मंदिर के शिला पूजन और अपनी इमेज बिल्डिंग पर खर्च करती रही।
प्रधानमंत्री की विस्टा योजना और निजी यात्रा के लिए अत्याधुनिक हवाई जहाज की खरीद पर हजारों करोड़ रुपये व्यय कर दिए गए। यह सवाल बार-बार उठ रहा है कि इतने संकट के बावजूद दो हजार करोड़ की विस्टा योजना को क्यों नहीं रोका जा रहा है। ये सवाल लोग पूछ रहे हैं कि एक प्रधानमंत्री की प्राथमिकता क्या है लोगों की जान बचाना या फिर इमारत बनाना?
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