भाजपा के नए पितृपुरुष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और अमित शाह द्वारा सांसदों व केंद्रीय मंत्रियों को मध्यप्रदेश में विधानसभा चुनाव लड़ाने के मायने क्या हो सकते हैं? इस पर मीडिया का आकलन सुनकर हंसी आती है। मीडिया चाहे गोदी मीडिया हो या सोशल मीडिया इसे संपूर्णता में समझ पाने में शायद असमर्थ है। मुमकिन है कि ये अतिश्योक्ति लगे आपको लेकिन वास्तव में मोदी जी इस प्रयोग के ज़रिए बहुत कुछ साधना चाहते हैं और इसके राजनीतिक संदर्भ अलग-अलग हैं-
- भाजपा सरकार के अनेक केन्द्रीय मंत्री तथा सांसद अपने पुत्र या भाई को चुनाव में टिकट दिलाना चाहते थे, उन सभी को विधानसभा चुनाव लड़ाकर उनके बेटे और भाई को चुनावी मैदान से बाहर कर दिया गया। अपने पुत्र/पुत्री व नातेदारों को टिकट दिलाने के सभी अभिलाषा रखने वालों को सीधे तौर पर संकेत देकर मना कर दिया गया है। यह पार्टी के भीतर पनप चुके परिवारवाद से मुक्ति पाने का मोदीजी का अपना तरीक़ा है।
- मोदी -शाह की जोड़ी ने निर्ममता के साथ पार्टी के नाम पर तीन- चार बार से चुनाव जीत चुके सांसदों से मुक्ति पाने के लिए उनको अपनी योग्यता साबित करने के लिए विधानसभा चुनाव में उतार दिया गया है। ये सभी केंद्र में मंत्री बनना चाह रहे थे और दिल्ली से प्रदेश व संगठन में हस्तक्षेप कर रहे थे। भले ही वे नरेंद्र सिंह तोमर हों या प्रह्लाद पटेल हों या फग्गन सिंह कुलस्ते। सभी के मन में अपने भाई-भतीजों को राजनीति में प्रतिष्ठित करने की गहन अभिलाषा थी। इनको मैदान में उतरने के साथ ही पार्टी के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और राकेश सिंह की भी यही गति हुई।
- भाजपा के भाग्यविधाताओं ने भांप लिया था कि वर्तमान राज्य सरकार के प्रति सत्ता विरोधी लहर है और इसे थामने के लिए या तो नेतृत्व परिवर्तन किया जाये या कोई ऐसी जमावट की जाये जो जनता को नयी लगे। नेतृत्व परिवर्तन का फ़ैसला लेने में देर हो चुकी थी। ऐसे में लंबे समय से खाये-अघाये मंत्रियों और सांसदों को मैदान में उतरना ही इकलौता विकल्प था। मोदी-शाह ने आकलन कर लिया है कि एक तो ये सब चुनाव में जीत के लिए पानी की तरह पैसा बहायेंगे जिससे कार्यकर्ताओं में व्याप्त निराशा में कमी आ सकती है। साथ ही इनमें से कई को हराकर जनता अपनी भड़ास बाहर कर सकती है।
- इस आजमाए हुए प्रयोग के ज़रिये पार्टी ने टिकट वितरण में क्षेत्रीय क्षत्रपों के हस्तक्षेप को ख़त्म कर दिया, क्योंकि वे खुद प्रत्याशी हैं। अब वे दूसरों को कैसे टिकट दिलाकर जिताने की ज़िम्मेदारी ले सकते हैं? अब केंद्रीय नेतृत्व अपने हिसाब से टिकट वितरण कर रहा है। परदे के पीछे राजनीति करने वाले सभी नेताओं को, जो मुख्यमंत्री बनने के लिए लालायित रहते थे, विधानसभा चुनाव में उतार कर अपनी क़ाबिलियत साबित करने का अवसर दिया है। इसे 'अस्तित्व के लिए फिट' होने की कसौटी बना दिया है। पार्टी ने एक तीर से न जाने कितने निशाने साध रखे हैं। मंत्री और सांसद यदि चुनाव हारते हैं तो उनसे पार्टी को स्थायी मुक्ति मिल जाएगी।
इस समय मध्यप्रदेश मंत्रिमंडल के अनेक सदस्य खुद चुनाव लड़ने के बजाय अपने बेटे-बेटियों को चुनाव लड़ाने के लिए प्रयत्नशील हैं लेकिन इसके लिए उन्हें अपनी कुर्सी छोड़नी पड़ेगी। वरिष्ठ मंत्री गोपाल भार्गव और डॉ. नरोत्तम मिश्रा की स्थिति यही है। और भी कई मंत्री हैं जो खुद चुनाव लड़ने के साथ ही अपने बच्चों को भी अपनी आँखों के सामने विधायक बना देखना चाहते हैं, लेकिन उनके सपनों पर पानी फिरता दिखाई दे रहा है। कांग्रेस में तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह का सपना पूरा हो गया किन्तु भाजपा के ‘कमलनाथ’ और ‘दिग्विजय सिंह’ बाजी हारते दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस कि कमलनाथ और दिग्विजय कौन हैं, उन्हें आसानी से पहचाना जा सकता है।
- विधानसभा चुनाव के लिए साधे गए इस निशाने के साथ ही पार्टी अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव के लिए भी तमाम कार्यकर्ताओं को तैयार करने जा रही है। क्योंकि जिन सांसदों को विधानसभा चुनाव में उतारा गया है उनकी जगहों पर नये लोगों के सांसद प्रत्याशी बनने के लिए अवसर है और ध्यान रहे कि एक संसदीय क्षेत्र में छह से आठ विधानसभा क्षेत्र होते हैं। आठ विधानसभा क्षेत्र के टिकट न पाये लोगों को सांसद प्रत्याशी बनाने का आश्वासन देकर पार्टी के खिलाफ जाने से रोका जा सकता है। केन्द्रीय मंत्रियों और सांसदों को उतार कर मोदी जी केन्द्र सरकार व खुद उनके विरूद्ध उपज रही सत्ता विरोधी लहर थामने का प्रयास कर रहे हैं। बेरोज़गारी, महंगाई आदि के कारण केन्द्र सरकार से बढ़ती निराशा से उपजी जनता की नाराज़गी से बचने के लिए यही सही प्रतीत हुआ होगा।
- ये बात अब जग-जाहिर हो चुकी है कि मोदी और शाह का लक्ष्य 2023 के विधानसभा चुनाव जीतना नहीं, अपितु 2024 का लोकसभा चुनाव जीतना है। इस चुनाव में मोदी जी अपने समकक्ष आ रहे अपने ही दल के अपने सभी राजनीतिक विरोधियों को पूरी तरह से नेस्तनाबूद करने के लिए प्रयासरत हैं। राजस्थान में पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान इसके उदाहरण हैं। इस चुनाव में यह भी तय हो रहा है कि सिंधिया राजपरिवार से एक ही व्यक्ति राजनीति में रहेगा। यशोधरा चुनाव नहीं लड़ेंगी और वसुंधरा राजे सिंधिया का भी यही होना तय है। ज्योतिरादित्य सिंधिया इकलौते चश्मोचिराग रह जायेंगे। उनके रिश्तेदारों में मया सिंह, ध्यानेन्द्र सिंह और माया सिंह के बेटे का नंबर भी अब कट सा गया है।
- प्रधानमंत्री मोदी के दोनों हाथों में लड्डू रहने वाले हैं। पार्टी जीते या हारे उनका घाटा नहीं होने वाला। वे अपने प्रयोगों से फिलवक्त टिकट वितरण की उलझनों के साथ ही आने वाले समय में होने वाले लोकसभा चुनावों के लिए अपनी रणनीति का परीक्षण भी कर लेंगे और इसके ज़रिए सांसद बनने के लिए भाजपा काडर में नयी ऊर्जा का संचार भी। मुमकिन है कि मेरी सूचनाएँ और आकलन गलत भी हो किन्तु इस पर भरोसा तो किया जा सकता है।(राकेश अचल की फ़ेसबुक वाल से साभार)
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