2014 से नई सोच की बुनियाद पड़ी और अब तक यह सोच एक मंजिल हासिल कर चुकी है। कुछ वर्षों से झूठ बोलना कोई असुविधाजनक बात नही रह गई। जब देश के बड़े जिम्मेदार लोग झूठ बोलें तो सामान्य लोग उससे सीखते हैं। कुछ लोग जरूर असहमत हों लेकिन भीड़ की आवाज उन्हें चुप करा देती है। 




पड़ताल करना चाहिए कि झूठ का असर कितना पड़ चुका है। लाखों लोग कोरोना में मरे और नदी में तैरती लाशें देखी गई। समाज का एक हिस्सा इससे द्रवित नही हुआ। अपने नेता के झूठ को सुनते सुनते उसका देखने का नजरिया बदल चुका है। वो मानने को तैयार नही हैं कि लाखों लोग मरे और सरकार ने उपचार की अग्रिम तैयारी नही की।