क्या दलदल में कभी बरगद उग सकता है? केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति के नाम पर जो मसौदा जारी किया गया है, पहली नज़र में लगता है कि बड़ी मेहनत के बाद और बड़े संजीदा मक़सदों के साथ यह शिक्षा नीति तैयार की गई है। स्कूली तालीम से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक की शिक्षा पर गंभीरता से सोचा गया है। पर यह दलदल में बरगद की छाँव का धोखा है।

नई शिक्षा नीति का मसौदा पेश किया गया है। स्कूली तालीम से लेकर कॉलेज और विश्वविद्यालय तक की शिक्षा पर गंभीरता से सोचा गया है। पर यह दलदल में बरगद की छाँव का धोखा है।
ऐसे समाज में जहाँ व्यापक ग़ैर-बराबरी हो, बुनियादी मसलों पर फ़ैसला लेने वाले लोग एक छोटे से संपन्न वर्ग से आएँ, और अध्यापक और छात्र-प्रतिनिधियों को फ़ैसलों में शामिल न किया जाए, तो नीतियाँ हमेशा ही ख़याली क़िले जैसी रहेंगी। मसलन, एकबारगी ऐसा लगता है कि स्नातक स्तर पर अगर सभी छात्र कामयाब नहीं हो पाते तो उन पर हमेशा के लिए असफलता का धब्बा न लगे, यह अच्छी बात है। अगर कोई चार साल तक पढ़ाई पूरी नहीं कर सकता, तो पहले साल के बाद वह सर्टिफ़िकेट लेकर निकल जाए, दूसरे साल के बाद डिप्लोमा लेकर निकल जाए, यह तो अच्छी बात होगी। पर कोई यह भी तो पूछे कि स्नातक स्तर की पाठ्यचर्या क्या ऐसी होती है कि पहले साल में पूरे प्रोग्राम के मक़सद का एक चौथाई पूरा हो जाता है? साल भर के बाद छात्र के पढ़ाई छोड़ने पर क्या उसमें इतनी काबिलियत होती है कि उसे प्रमाण पत्र दे दें, जिसके बल पर वह कुछ कमा-खा सके? यह सर्टिफ़िकेट किसको मिलेगा?