क्या मोदी सरकार भारत देश को हिंदू राष्ट्र बनाने की तैयारी मैं है? इस सवाल से कुछ लोग चौंकेंगे, कुछ ख़ुश होंगे तो कुछ निराश। यह एक सवाल है जिसका इंतज़ार लंबे समय से संघ परिवार कर रहा था। जब से लोकसभा के चुनाव में बीजेपी को तीन सौ से अधिक सीटें मिली हैं तब से मोदी सरकार की सारी कोशिशें उसी दिशा में हैं। इसलिए मई के बाद से सरकार की तरफ़ से हर वह कोशिश हुई है जो संघ के एजेंडे को डंके की चोट पर लागू कर रही है। इस दौरान अर्थव्यवस्था बद से बदतर हुई है पर उस ओर सरकार का ध्यान नहीं है। सारा ध्यान हिंदू मुसलमान पर है। मौजूदा नागरिकता क़ानून पर उठा विवाद इस प्रक्रिया से उठी चिंगारी से लगी आग का एक प्रतिबिंब मात्र है। लोग सड़कों पर उतर रहे हैं क्योंकि वे समझ रहे हैं कि भारत का लंबे समय तक सेक्युलर बने रहना मुश्किल हो जाएगा अगर मोदी सरकार इसी राह पर चलती रही या इसी तरह से उसको जनादेश मिलता रहा।
यह सवाल ज़रूर उठना चाहिए कि हिंदू राष्ट्र से इतना डरने की ज़रूरत क्यों है और क्यों संघ परिवार मोदी सरकार के ज़रिए हिंदू राष्ट्र बनाना चाहता है? आरएसएस का यह मानना रहा है कि भारत का इतिहास धर्मों के सतत संघर्ष का इतिहास रहा है। संघ का कहना है कि सात सौ साल तक इसलाम का शासन रहा है और बाद में ईसाई धर्म ने भारत को अपने क़ब्ज़े में लिया। हिंदुत्व के ‘आदि’ विचारक दामोदर सावरकर का मानना है कि हिंदू इसलिए ग़ुलाम बना कि वह कमज़ोर था, सहिष्णु था जबकि मुसलमान और ईसाई आक्रामक रहे, उन्हें हिंसा से कोई गुरेज़ नहीं रहा। जबकि हिंदू अहिंसा में यक़ीन करता है, और वह इन दोनों से अलग एकजुट भी नहीं रहता है। आरएसएस का गठन ही हिंदुओं को आक्रामक और एकजुट करने के लिए 1925 में कांग्रेस छोड़कर आए हेडगेवार ने किया था। आरएसएस के दूसरे प्रमुख गोलवलकर ने न केवल सावरकर और हेडगेवार की लाइन को आगे बढ़ाया बल्कि अपने लेखन और भाषणों में मुसलिम तबक़े के ख़िलाफ़ ज़हर उगला। उन्होंने मुसलमानों को आज़ाद भारत में नागरिक अधिकार तक न दिए जाने की वकालत की।
आज भारत आज़ाद है। लोकतंत्र है और इसने पाकिस्तान और दूसरे मुसलिम देशों की तरह धार्मिक देश बनने का फ़ैसला नहीं किया। इसने धर्मनिरपेक्षता को अपनाया जहाँ सभी धर्मों के लोग बराबरी के साथ रहें और धर्म के आधार पर किसी धार्मिक समुदाय के ख़िलाफ़ भेदभाव न हो। पाकिस्तान एक इसलामिक देश है। वहाँ दूसरे धर्मों के साथ भेदभाव होता है। भारत में हिंदू भी हैं और मुसलमान भी, सिख भी हैं और ईसाई भी, पारसी भी हैं और यहूदी भी, जैन भी और बौद्ध भी। सब परस्पर सौहार्द से रहते हैं। भारत का संविधान किसी भी सरकार को इस बात की इजाज़त नहीं देता कि वह कोई भी ऐसा क़ानून बनाए जो धर्म के आधार पर भेदभाव करे। भारत की जो दुनिया में साख है वह उसकी लोकतांत्रिक धर्मनिरपेक्ष छवि के कारण है। पर हिंदू राष्ट्र बनाने का मतलब है कि भारत एक धार्मिक देश बन जाएगा। जहाँ धर्म के आधार पर दूसरे धर्मों के ख़िलाफ़ भेदभाव होगा, और फिर भारत का वही हाल होगा जो पाकिस्तान का हुआ। जहाँ धार्मिक नेता तय करेंगे कि क्या क़ानून बने और क्या नहीं। क्या भारत ऐसा देश बनना चाहता है जहाँ धर्म की वजह से विचारों की स्वतंत्रता न हो, जहाँ महिलाओं को इसलामिक देशों की तरह पर्दे में रहना पड़े?
जहाँ धर्मगुरु तय करें कि आदमी कौन-से कपड़े पहने, कौन-सा आचरण करे या भोजन करे? क्या आप ऐसा भारत देश चाहते हैं? आप चाहें या न चाहें लेकिन संघ परिवार ऐसा ही भारत देश बनाना चाहता है। इसलिए वह हिंदू राष्ट्र की बात करता है।
मोदी के पहले कार्यकाल में इस हिंदू राष्ट्र का एक ट्रेलर देखने को मिला है। मॉब लिंचिंग की घटनाओं में मुसलिम समुदाय पर जानलेवा हमले इसकी एक बानगी भर है। क्या यह बताने की ज़रूरत है कि दादरी के अख़लाक़ को कैसे गो माँस के नाम पर घर में घुसकर मारा गया? क्या यह बताने की ज़रूरत है कि जुनैद को कैसे गो माँस की आड़ में ट्रेन में जान से मार दिया गया? झारखंड में तबरेज़ अंसारी का मामला तो अभी हाल का है। भीड़ ने चोरी के आरोप में उसे जम कर पीटा और ‘जयश्री राम’ के नारे लगवाए। मैं यह नहीं कहता कि इस तरह की घटनाएँ ग़ैर-बीजेपी सरकारों के दौर में नहीं हो सकती या नहीं हुई हैं। लेकिन एक फ़र्क़ है। ऐसी घटनाओं पर केंद्र, बीजेपी सरकारों और संघ परिवार की रहस्यमय चुप्पी। जिनपर क़ानून-व्यवस्था को बनाए रखने की ज़िम्मेदारी है उनकी इन मामलों में मिलीभगत है या फिर पूरे हादसे को दफ़्न करने की आपराधिक कोशिश।
अख़लाक़ के क़त्ल के बाद क्या हुआ?
क्या यह याद दिलाने की ज़रूरत है कि अख़लाक़ के क़त्ल के बाद देश के प्रधानमंत्री, जो हर छोटी बात पर ट्वीट करते हैं, ने कैसे होंठ सिल लिए थे और नौ दिन बाद तब बोले जब राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने घटना की निंदा की। जबकि इस दौरान पूरे देश में हंगामा मचा था। क्या यह बताने का ज़रूरत है कि उस वक़्त मोदी सरकार में मंत्री महेश शर्मा किस के साथ खड़े होकर फ़ोटो खिंचवा रहे थे या फिर दूसरे केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा कैसे मॉब लिंचिंग में आजीवन कारावास पाए लोगों को ज़मानत मिलने पर मिठाई खिला रहे थे? क्या यह भी बताने की ज़रूरत है कि यूपी में बीजेपी की सरकार बनने के फ़ौरन बाद रातोरात बूचड़खानों का बंद करने का फ़रमान योगी सरकार ने दे दिया, बिना यह सोचे कि इस धंधे से जुड़े लोगों का घर परिवार कैसे चलेगा? किसी को यह बताने की ज़रूरत नहीं कि बूचड़खाने चलाने और माँस का व्यापार करने वाले किस धर्म के लोग हैं। यूपी में सरकार बनने के बाद सरकार की प्राथमिकता ‘लव जिहाद’ रोकने की ज़्यादा थी और गुंडे-मवालियों को जेल भेजने की कम?
देशद्रोह का तमगा!
पिछले पाँच सालों में हर उस शख़्स को देशद्रोही साबित करने की कोशिश की गयी जो हिंदुत्व की विचारधारा से सहमत नहीं था या मुखर विरोध करता पाया गया। फिर चाहे जवाहरलाल विश्वविद्यालय हो या फिर टीवी के स्वतंत्र पत्रकार, या फिर बुद्धिजीवी, क्रिएटिव आर्टिस्ट और साहित्यकार हों। सोशल मीडिया के माध्यम से महिला पत्रकारों के साथ जो बर्ताव किया गया उसने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को शर्मसार किया। अमर्त्य सेन जैसे नोबेल पुरस्कार विजेता को भी नहीं बख्शा गया। भीमा कोरेगाँव में दलितों पर हुए अत्याचार के आरोप में शुरू में जिन हिंदुत्ववादियों के नाम आए थे, उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई नहीं की गयी, उलटे अर्बन नक्सल का भूत खड़ा कर देश के कुछ बड़े बुद्धिजीवियों और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को सलाखों के पीछे धकेल दिया गया।
नरेंद्र दाभोलकर की दिनदहाड़े हत्या की गयी पर महाराष्ट्र की बीजेपी सरकार के रहते जाँच में कोई तेज़ी नहीं आयी और ऐसा तब हुआ जबकि बॉम्बे हाईकोर्ट लगातार जाँच एजेंसियों को डाँट पर डाँट लगाता रहा। गौरी लंकेश की हत्या के बाद जब यह सवाल उठाया गया कि प्रधानमंत्री ट्विटर पर उन लोगों को फ़ॉलो करते हैं जो उनकी हत्या को जस्टीफ़ाई करने का काम कर रहे थे, तब भी प्रधानमंत्री ने उनको अनफ़ॉलो नहीं किया।
टीवी मीडिया की आज़ादी को ख़त्म करने का काम हुआ और न्यायपालिका की वह हालत हो गई कि चार बड़े जजों को मीडिया के सामने आना पड़ा और कहना पड़ा कि लोकतंत्र ख़तरे में है। यानी पहले पाँच सालों में सत्ता ने ‘माहौल’ बनाने का काम किया।
लेकिन 2019 के चुनाव में बीजेपी को बंपर बहुमत मिला। बीजेपी को यह बात समझ में आ गयी कि जनता ने पाँच साल के उसके काम पर मुहर लगा दी है तो सरकार बनते ही ‘संरचनात्मक’ बदलाव करने का काम शुरू हो गया। यह सच है कि लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है। जनता ने मॉब लिंचिंग और दूसरे तमाम कामों के बाद भी अगर उन्हें पहले से अधिक सीटें दीं तो इसका अर्थ है कि उन्हें अपने एजेंडे को लागू करने का संवैधानिक अधिकार मिल गया है। 2014 से लेकर 2019 तक, मोदी सरकार के पहले कार्यकाल में बीजेपी के पास इतनी सीटें नहीं थीं कि वह संविधान में कुछ बुनियादी बदलाव कर सके। लोकसभा में उसके पास बहुमत तो था लेकिन राज्यसभा में बीजेपी अल्पमत में थी। लिहाज़ा ‘संरचनात्मक परिवर्तन’ की तरफ़ क़दम नहीं बढ़ाए गए। अब राज्यसभा में भी वह जोड़तोड़ कर बहुमत जुटा लेती है। लिहाज़ा नतीजा सामने है।
मुसलमानों पर बीजेपी की चुप्पी
पहले तीन तलाक़ को आपराधिकता का जामा पहनाया गया, संसद के ज़रिए। फिर अनुच्छेद 370 में बदलाव किया गया और उसको केंद्र शासित प्रदेश में तब्दील कर दिया गया। इस बीच अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फ़ैसला भी आ गया जो ढाई दशकों से लटका था। अब नागरिकता क़ानून बना दिया गया। तीन तलाक़, अनुच्छेद 370 और नागरिकता क़ानून तीनों ही संसद से पास हुए और संविधान में बदलाव के बाद अस्तित्व में आए। और तीनों ही मामलों में मुसलिम तबक़ा ही प्रभावित हो रहा है। असम में एनआरसी के निशाने पर भी मुसलिम ही हैं। बांग्लादेश से आए मुसलिम। वहाँ भी बीजेपी की ही सरकार है। हालाँकि एनआरसी को लागू करने का आदेश सुप्रीम कोर्ट का था। अब यह अलग बात है कि एनआरसी लागू होने पर सबसे ज़्यादा फँसे हिंदू। अब बीजेपी पूरे देश में एनआरसी लागू करने की बात कर रही है।
बीजेपी नागरिकता क़ानून ला कर कह रही है कि किसी भी हिंदू को, भले ही वह इस देश का नागरिक न हो या शरणार्थी हो, देश निकाला नहीं दिया जायेगा। पर उन मुसलमानों का क्या होगा जो अपनी नागरिकता साबित नहीं कर पाएँगे? उनके बारे में सरकार ऐसा भरोसा नहीं देती। क्यों?
‘हिंदू राष्ट्र’ का राज
इस ‘क्यों’ में ही छिपा है ‘हिंदू राष्ट्र’ बनाने का राज। गोलवलकर ने यूँ ही नहीं कहा था कि मुसलमानों के भारत में कोई नागरिक अधिकार नहीं होने चाहिए। दीन दयाल उपाध्याय भी इसी संदर्भ में कहते हैं कि मुसलमानों को देश से बाहर तो नहीं भेज सकते। पर वह संविधान को बदलने की बात करते हैं। यह अकारण नहीं है कि संघ परिवार हमेशा से यह कहता रहा है कि भारतीय संविधान विदेशी मूल्यों से प्रभावित है। वह कहना ये चाहते हैं कि संविधान में बदलाव करना होगा। यह भी उतना ही बड़ा सच है कि बिना संविधान को बदले हिंदू राष्ट्र नहीं बन सकता। फ़िल्म अभी बाक़ी है।
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