एक तरफ दुनिया के तमाम छोटे-बड़े और अमीर-गरीब सभ्य देश हैं, जिन्होंने भारत में कोरोना महामारी के चलते अस्पतालों में मरीजों की भीड़, ऑक्सीजन और जरूरी दवाओं के अभाव में असमय दम तोड़ रहे लोगों, श्मशान में अंतिम संस्कार के लिए लगी कतारों, जलती चिताओं से उठती लपटों, नदियों में तैर रही इंसानी लाशों पर मंडराते चील-कौवों की तसवीरें देख कर सच्ची संवेदना दिखाई है और मदद का हाथ आगे बढ़ाया है।
तो दूसरी ओर भारत में केंद्र सरकार, सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ओर से लगातार मगरूरी भरे ऐसे बयान आ रहे हैं, जो लोगों के जले पर नमक छिड़कने का काम कर रहे हैं।
‘सकारात्मकता का जश्न’
जले पर नमक यह है कि सरकार यह बात मानने के लिए कतई तैयार नहीं है कि वह इस महामारी से निपटने में लगातार अक्षम साबित हुई है। उसकी संवेदनहीनता का चरम यह है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी आगामी 30 मई रविवार को 'मन की बात’ कार्यक्रम के तहत देशवासियों से 'सकारात्मकता का जश्न’ मनाने को कहेंगे।
इस सिलसिले में उन्होंने लोगों से ऐसे कहानी-किस्से भी मंगवाए हैं जो लोगों को प्रेरित कर सकें। कहा जा सकता है कि बर्बादियों का जश्न मनाने में इस सरकार का कोई जवाब नहीं।
गौरतलब है कि जब अमेरिका में कोरोना संक्रमण से मरने वालों का आंकड़ा दो लाख को पार कर गया था तो वहां एक श्रद्धांजलि सभा आयोजित की गई थी, जिसमें 20 हजार खाली कुर्सियां रखी गई थीं। हर एक कुर्सी 10 मृतकों का प्रतिनिधित्व करने वाली थी और इस तरह राष्ट्रीय स्तर पर उनको श्रद्धांजलि दी गई। न्यूयॉर्क टाइम्स जैसे अखबार ने अपने पहले पन्ने पर 20 हजार मृतकों के नाम छाप कर उन्हें श्रद्धांजलि दी थी।
मोदी के उत्सवी प्रहसन
इसके उलट महान भारत के उत्सवप्रेमी प्रधानमंत्री ‘सकारात्मकता का जश्न’ मनाने का आह्वान करने जा रहे हैं। पिछले साल भी जब कोरोना वायरस ने देश में प्रवेश किया तब लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री मोदी ने ताली-थाली बजाने, दीया-मोमबत्ती जलाने, अस्पतालों पर विमानों से फूलों की वर्षा कराने और अस्पतालों के आगे सेना का बैंड बजवाने जैसे उत्सवी प्रहसन रचे थे।
दरअसल, प्रधानमंत्री मोदी जिस ‘सकारात्मकता के जश्न’ का आह्वान करने वाले हैं, वह जश्न मूल रूप से आरएसएस की एक परियोजना का हिस्सा है, जिसका मकसद सरकार और संघ से मोहभंग का शिकार हो रहे समर्थक वर्ग को किसी तरह थामना है।
गौरतलब है कि आरएसएस के कोविड रिस्पांस समूह द्वारा 11 से 15 मई तक 'पॉजिटिविटी अनलिमिटेड: हम जीतेंगे’ शीर्षक से एक ऑनलाइन व्याख्यान माला का आयोजन किया जा चुका है।
भागवत का बयान
इस व्याख्यान माला का समापन करते हुए आरएसएस के मुखिया मोहन राव भागवत ने जो कहा है वह हैरान करने वाला है। उन्होंने कहा, ''कोरोना से जिन लोगों की मौत हुई है वे एक तरह से मुक्त हो गए हैं। जो चले गए हैं, उनके लिए तो अब कुछ किया नहीं जा सकता। परिस्थिति कठिन है लेकिन हमें निराश नहीं होना है और अपने मन को नेगेटिव नहीं होने देना है।’’ जाहिर है कि सकारात्मक लापरवाही और अक्षमता पर पर्दा डालने के लिए भागवत सकारात्मकता का राग अलाप रहे हैं।
खट्टर का असंवेदनशील बयान
मरने वालों के बारे में जो बात भागवत ने थोड़े सधे हुए अंदाज में कही, वही बात उनके संगठन के प्रचारक रहे हरियाणा के मुख्यमंत्री ने निपट दूसरे अंदाज में कह दी। अपने सूबे में कोरोना संक्रमितों की इलाज के अभाव के चलते हो रही मौतों के मामले में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने कहा कि मरने वाले तो मर गए अब उनके आंकड़ों पर बहस करने से क्या फायदा! उन्होंने फरमाया कि बहस करने से मरने वाले जिंदा तो नहीं हो जाएंगे? यह संवेदनहीनता की पराकाष्ठा है। सवाल है कि वे किसी अपने के मरने पर भी ऐसा ही कह सकते हैं?
इससे कुछ ही दिन पहले मध्य प्रदेश सरकार के पशुपालन मंत्री प्रेम सिंह पटेल ने कोरोना से हो रही मौतों पर कहा था, ''वायरस से मरने वालों की संख्या को रोका नहीं जा सकता, क्योंकि जिसकी उम्र पूरी हो जाए, उसको तो मरना ही पड़ता है। ऊपर से बुलावा आ जाए तो क्या किया जा सकता है।’’
नारियल चढ़ाने की सलाह
पिछले दिनों राजस्थान का एक ऐसा ही मामला सामने आया था। एक महिला अपने बीमार बच्चे के इलाज के लिए मदद मांगने पहुंची तो केंद्रीय जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने उस महिला से कहा कि वह बालाजी को नारियल चढ़ाए उससे लाभ मिलेगा। कितनी हैरानी की बात है कि भारत सरकार का मंत्री इलाज की सुविधा दिलाने के बजाय मंदिर में नारियल चढ़ाने की सलाह दे रहा है!
देश में चार महीने पहले उत्सवी माहौल में शुरू हुआ वैक्सीनेशन अभियान इस समय वैक्सीन के अभाव में ठप पड़ा हुआ है। किसी को नहीं मालूम कि यह अभियान फिर से कब शुरू होगा, यहां तक कि सरकार को भी नहीं मालूम।
खुद को फांसी पर लटका लें?
वैक्सीन के इसी संकट को लेकर हाल ही में केंद्रीय रसायन एवं उर्वरक मंत्री डीवी सदानंद गौड़ा से जब पत्रकारों ने बेंगलुरू में सवाल किया तो उन्होंने इसका कोई तर्क संगत जवाब देने के बजाय उलटे पत्रकारों से ही पूछ लिया कि क्या सरकार में बैठे लोगों को वैक्सीन के उत्पादन में नाकामी की वजह से खुद को फांसी पर लटका लेना चाहिए?
उन्होंने कहा कि व्यावहारिक रूप से जो चीजें सरकार के नियंत्रण से परे हैं, क्या सरकार उसका प्रबंधन कर सकती है? यह सवाल दागने के बाद उन्होंने दावा किया कि केंद्र सरकार अपनी ओर से सर्वश्रेष्ठ काम कर रही है।
केंद्रीय मंत्री के साथ मौजूद बीजेपी के राष्ट्रीय महासचिव सीटी रवि ने निर्लज्जता में एक कदम आगे बढ़ते हुए दावा किया कि अगर पहले से उचित व्यवस्था नहीं की गई होती तो मौतें 100 गुना ज्यादा होतीं। विभिन्न अदालतों द्वारा कोरोना वायरस के मुद्दे पर सरकार की खिचाईं किए जाने को लेकर भी बीजेपी महासचिव ने बेहद ढिठाई से कहा कि न्यायाधीश सर्वज्ञ नहीं होते हैं।
ऑक्सीजन की कमी बताना गुनाह
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन को अपेक्षाकृत समझदार और संवेदनशील इंसान माना जाता था लेकिन वे भी अपने को धीरे-धीरे उन नेताओं की जमात में शामिल कराते जा रहे हैं, जिनको बोलने से पहले सोचने की आदत नहीं है, जैसे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उनके राज्य में ऑक्सीजन की कमी नहीं है और किसी ने कहा कि ऑक्सीजन की कमी है तो उस पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) लगा देंगे। यह अलग बात है कि अन्य राज्यों की तरह उत्तर प्रदेश में भी हर दिन ऑक्सीजन की कमी से लोग मर रहे हैं।
पहले से तैयारी बेहतर!
बहरहाल, केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कहा है कि कोरोना वायरस की दूसरी लहर से मुकाबले के लिए भारत की तैयारी पहली लहर के मुकाबले बेहतर है। उनका यह बयान साफ तौर पर उनके सोचने-समझने की क्षमता पर सवालिया निशान लगाता है।
जब पूरे देश में हाहाकार मचा हुआ है, अस्पतालों में पर्याप्त संख्या में बिस्तर नहीं हैं, निजी अस्पताल लोगों को जी भर कर लूट रहे हैं, ऑक्सीजन के सिलेंडर नहीं मिल रहे हैं, वेंटिलेटर तो मिलना परम सौभाग्य की बात है, दवाओं और इंजेक्शन की कालाबाजारी हो रही है और अब वैक्सीन की भी कमी हो गई है और ऐसे में स्वास्थ्य मंत्री कह रहे हैं कि तैयारी पहले से बेहतर है।
पिछली सरकारें जिम्मेदार?
केंद्र सरकार के मंत्रियों में विदेश मंत्री एस. जयशंकर की स्थिति भी कम विचित्र नहीं है। वे लंबे समय विदेश सेवा में रहे हैं, इसलिए जाहिर है कि औपचारिक तौर पर तो पढ़े-लिखे हैं ही। लेकिन वे राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर कुछ भी बोलने से पहले सोचने की जहमत नहीं उठाते हैं। कोरोना महामारी को लेकर भारत की हर तरह से मदद कर रहे जी-7 देशों के विदेश मंत्रियों की इसी महीने के पहले सप्ताह में हुई बैठक के दौरान भारतीय विदेश मंत्री जयशंकर ने लगातार हास्यास्पद बातें कही।
उन्होंने कहा कि महामारी से निपटने में भारत सरकार से कोई गलती नहीं हुई। देश की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं के लिए उन्होंने पिछले 70 साल में रही सरकारों को जिम्मेदार ठहराया।
जब जी-7 देशों के विदेश मंत्रियों ने कोरोना महामारी के दौरान चुनावी रैलियों का मुद्दा उठाया तो जयशंकर ने कहा कि इस पर सवाल नहीं किया जा सकता, क्योंकि भारत में चुनाव एक पवित्र कार्य है और भारतीय समाज अपनी मूल प्रवृत्ति में राजनीतिक समाज है, इसलिए चुनाव होना और चुनाव के दौरान रैलियां होना जायज है।
सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि जी-7 देशों के विदेश मंत्री भारत के बारे में, भारत की सरकार के बारे में और भारतीय विदेश मंत्री के बारे में क्या प्रभाव या धारणा लेकर गए होंगे।
प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्रियों, केंद्रीय मंत्रियों, राज्य सरकारों के मंत्रियों और संघ प्रमुख के ये बयान बताते हैं कि इस सरकार को और सत्ताधारी पार्टी के नेताओं को देश के मौजूदा दर्दनाक और शर्मनाक हालात पर न तो शर्म आ रही है और न ही देश की जनता पर रहम।
इस सिलसिले में आरएसएस के मुखिया मोहन भागवत के बयान से यह भी जाहिर हुआ है कि उनका संगठन अब सरकार का पिछलग्गू बन कर रह गया है और सत्ता-संस्कृति ही अब उसके लिए हिंदू यानी भारतीय संस्कृति हो गई है।
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