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बजट में सहयोगी दलों के दबाव को कैसे छुपा पाएगी सरकार?

कई अर्थशास्त्री यह कहते रहे हैं कि सालाना बजट से बहुत कुछ नहीं होता। असली चीज वे आर्थिक नीतियां और वह सोच होती है जिसकी झलक हमें बजट में दिखाई देती है। जीएसटी के जमाने में बजट की भूमिका वैसे भी कम हो गई है। 

देश की दीर्घकालिक आर्थिक गति और स्थिति के लिहाज से देखें तो यह बात सही हो सकती है। लेकिन एक सच यह भी है कि बजट सरकार की नीयत, उसकी राजनीतिक प्रतिबद्धता और दिशा को जानने का सबसे अच्छा पैमाना होता है। बजट हर साल आता है और इसके आँकड़े रोजाना चलने वाली राजनीतिक लफ्फाजी से अलग हालात को समझने का एक नया तर्क पेश करते हैं। कुछ चीजें, जो अन्यथा दबी-छुपी रह जाती हैं उन्हें भी बजट से अच्छी तरह समझा जा सकता है।

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उदाहरण के लिए हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल को लें। पहले दो कार्यकाल के विपरीत यह एक गठबंधन सरकार है जो कुछ सहयोगी दलों पर पूरी तरह निर्भर है। हालाँकि अभी तक जो इस सरकार का 40 दिन का समय गुजरा है उसमें यही स्वांग दिखाई दिया है कि अपनी पुरानी हनक के साथ चल रही है। सहयोगी दलों से सरकार पर दबाव अभी तक भले ही छुपाए जा रहे हों लेकिन बजट में उन्हें छुपाना बहुत ज़्यादा संभव नहीं होगा। 

बजट से ठीक पहले आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री और तेलुगू देशम के नेता चंद्राबाबू नायडू की दिल्ली यात्रा यही बताती है कि वे दबाव बनाने के लिए पूरी तरह सक्रिय हैं। इस दौरान वे कई वरिष्ठ केंद्रीय मंत्रियों से भी मिले थे। चंद्राबाबू नायडू और बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश कुमार दोनों ही अपने प्रदेश को विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की बात करते रहे हैं। यह तो शायद संभव न हो लेकिन बजट में कुछ ऐसी घोषणाएं और ऐसे प्रावधान ज़रूर हो सकते हैं जो इन राज्यों के लिए फायदेमंद साबित हों।

वैसे, मनपसंद राज्यों का सीधा लाभ पहुंचाने का काम बजट के बजाए वित्त आयोग और नीति आयोग के ज़रिये ही ज्यादा होता है। इस बजट में सरकार पर यह अकेला राजनीतिक दबाव नहीं होगा। अगले कुछ महीनों में पहले हरियाणा और महाराष्ट्र में और फिर दिल्ली व कुछ अन्य जगहों पर विधानसभा चुनाव होने हैं। इस बजट में इन दबावों को संबोधित करने की कोशिश भी दिखाई देगी। 
यह सरकार शुरू से ही विकास दर बढ़ाने के सिद्धांत पर काम करती रही है। इसके पीछे वह पुरातन सोच है जो कहती है कि विकास बढ़ेगा तो उसका फायदा छन-छन कर सभी लोगों तक पहुंचेगा। अर्थशास्त्र की भाषा में इसे ट्रिकल डाउन थ्योरी कहा जाता है। पर हकीकत में यह होता नहीं है।

विकास दर बढ़ाने में तो सरकार कामयाब रही है। विकास दर आठ फीसदी के आस-पास पहुंची है। लेकिन उपभोग की दर चार फीसदी तक गिर गई है। थोड़ा सा सरलीकरण कर के कहें तो जो विकास हो रहा है उसका आधा हिस्सा ही लोगों तक पहुंच रहा है। बजट को लेकर अर्थशास्त्रियों की राय पढ़ें या सुनें तो ज्यादातर में इसकी चिंता दिख जाएगी।

हालाँकि इसके जो समाधान बताए जा रहे हैं वे ज़रूरी होते हुए भी ज्यादातर सतही हैं। मसलन, यह कहा जा रहा है कि आयकर की दरों में कटौती हो सकती है, किसान सम्मान निधि को बढ़ाया जा सकता है। कई कारणों और खासकर महंगाई को देखते हुए ऐसी रियायतें ज़रूरी हैं लेकिन सिर्फ इतने से ही पूरी अर्थव्यवस्था का भला हो जाएगा ऐसी उम्मीद नहीं की जा सकती। वैसे भी पिछले एक दशक का अनुभव यही बताता है कि राजनीतिक रूप से भले ही कहा जाता रहा हो कि मोदी सरकार का सबसे बड़ा आधार मध्य वर्ग में है लेकिन सरकार ने किसी भी बजट में इस वर्ग का कोई बहुत बड़ा भला नहीं किया।  

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सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती बढ़ती बेरोजगारी की है। इसकी इन दिनों काफी चर्चा है। यह भी कहा जा रहा है कि चुनाव नतीजे भाजपा के ख़िलाफ़ चले गए इसमें सबसे बड़ी भूमिका बेरोजगारी की ही थी। लेकिन बेरोजगारी कोई नई समस्या नहीं है और अपने पिछले किसी भी बजट में सरकार इसके लिए कुछ ठोस करती नहीं दिखाई दी। इसलिए इस बार कुछ बड़ा हो जाएगा इसकी उम्मीद बहुत कम ही है। 

बेरोजगारी के सवाल पर सरकार कौशल विकास जैसी योजनाओं की बात करती रही है। उम्मीद कर सकते हैं कि इस बार भी ऐसी ही बातें होंगी, जिनका जमीन पर असर शायद बहुत नज़र नहीं आए।

देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा अनौपचारिक क्षेत्र और छोटे उद्योगों पर निर्भर है। नोटबंदी, जीएसटी और कोविड का सबसे ज़्यादा असर इसी क्षेत्र पर पड़ा है। एक असर यह भी हुआ है कि नई तकनीक ने अनौपचारिक क्षेत्र के बहुत सारे अवसरों को संगठित क्षेत्र में पहंुचा दिया है। बजट से ज्यादा इन क्षेत्रों में फिर से नई जान फूँकने के लिए एक विस्तृत रोडमैप की ज़रूरत है जो अभी तक सामने नहीं आया है। 

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अगर हम पिछले दस साल का हिसाब-किताब सामने रखें तो यह सरकार समय-समय पर बहुत सी कल्याण योजनाओं को बंद किया गया है। जैसे कोविड के बहाने वरिष्ठ नागरिकों को मिलने वाली रेल किराए की रियायत बंद कर दी गई जो कोविड का असर पूरी तरह ख़त्म होने के बाद भी बहाल नहीं की गई।

पुरानी कल्याण योजनाओं में मनरेगा ऐसी योजना है जो सरकार से न उगलते बन रही है और न निगलते। इसे प्राथमिकता में काफी पीछे कर दिया गया है और साल दर साल इसके लिए प्रावधान में कटौती की गई है। सरकार इस योजना को किस अंजाम तक ले जाना चाहती है, यह इस बजट से ज़्यादा स्पष्ट हो सकेगा। 

पिछले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने अपने घोषणापत्र में जो आर्थिक वादे किए थे उनके जनता पर असर की एक झलक हम चुनाव नतीजों में भी देख सकते हैं। क्या ये नतीजे मोदी सरकार पर भी कोई दबाव बना रहे हैं, इसका कुछ जवाब हमें मंगलवार को निर्मला सीतारमण द्वारा पेश किए जाने वाले बजट से मिलेगा।

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हरजिंदर
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