केन्द्र में मोदी सरकार आने के बाद शायद यह पहला मौक़ा होगा कि जब कोई संविधान संशोधन विधेयक बिना किसी विरोध के संसद के दोनों सदनों में पास हो गया, खासतौर से तब जबकि पूरा सत्र हंगामे की भेंट चढ़ गया हो। संसद के मॉनसून सत्र में ओबीसी जातियों की सूची बनाने का अधिकार राज्यों को सौंपने वाले इस विधेयक पर किसी भी राजनीतिक दल ने विरोध नहीं किया।
काफी समय से बहुत से राजनीतिक दल इसकी मांग कर रहे थे। लेकिन क्या इस विधेयक के पास हो जाने के बाद बात ख़त्म हो जाएगी, बल्कि माना जाना चाहिए कि बात तो अब नए सिरे से शुरू होगी। इस बिल के बाद जनगणना में ओबीसी जातियों की गिनती कराने की मांग का दबाव भी बढ़ने लगा है और साथ ही यह मांग अब ज़्यादा मुखर हो जाएगी कि आरक्षण की मौजूदा 50 फ़ीसदी की सीमा को ख़त्म करके इसे बढ़ाया जाए।
वैसे भी बहुत से दल यह मांग करते रहे हैं कि जिसकी जितनी भागीदारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी।
तो क्या यह माना जाए कि एक बार फिर 90 के दशक की मंडल राजनीति आगे बढ़ने का वक़्त आ गया है या फिर मंडल-कमंडल की राजनीति का दौर तेज होने वाला है, क्योंकि बीजेपी साल 2024 के आम चुनावों से पहले अयोध्या में राम मंदिर निर्माण की तैयारी कर रही है और इस दौरान वो इस बहाने हिंदुत्व के मुद्दे को गर्माने की कोशिश करती रहेगी। विपक्षी दलों को भी इस बात का अहसास है कि सिर्फ़ कुर्ते के ऊपर जनेऊ पहनने भर से वो बीजेपी से हिंदुत्व के मुद्दे को नहीं हथिया सकते, इसलिए वो यह लड़ाई ओबीसी जातियों के दम पर ज़रूर मज़बूत कर सकते हैं, खासतौर से दक्षिण के राज्यों में, जहाँ मंदिर मुद्दा अहम नहीं है।
इस विधेयक के पास होने के बाद राज्य सरकारें अपने राज्य के हिसाब से अलग-अलग जातियों को ओबीसी कोटे में डाल पाएंगी। इसका मतलब महाराष्ट्र में मराठा, गुजरात में पटेल, कर्नाटक में लिंगायत, हरियाणा में जाट और राजस्थान में गुर्जर को आरक्षण का रास्ता साफ़ हो जाएगा। ये जातियाँ अरसे से आरक्षण की मांग कर रही हैं, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले के बाद इस पर रोक लगी हुई थी।
बिल पास होने के बाद राज्यों को नई जातियों को इस लिस्ट में शामिल करने का अधिकार तो मिल जाएगा, लेकिन आरक्षण की सीमा अब भी पचास फ़ीसदी ही रहेगी और इसी सीमा को तोड़ने या बढ़ाने का पहला क़दम जाति जनगणना हो सकता है।
बिहार के मौजूदा मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सबसे पहले 1990 में जाति आधारित जनगणना कराने की मांग तब के प्रधानमंत्री वी पी सिंह से की थी। आज भी उन्होंने ना केवल इस मांग को फिर से उठाया है बल्कि जेडीयू की राष्ट्रीय कार्यकारिणी ने इस बारे में एक प्रस्ताव भी पारित किया है। इस सिलसिले में उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात का समय भी मांगा है, लेकिन अभी मुलाक़ात नहीं हो पाई है।
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केन्द्र सरकार ने भी विधेयक पास होते वक़्त भी जातिगत जनगणना की बात नहीं की है। इससे पहले केन्द्रीय मंत्री नित्यानंद राय ने संसद में साफ़ किया था कि सरकार नीतिगत कारणों से जातिगत जनगणना के पक्ष में नहीं है, लेकिन 31 अगस्त 2018 को साल 2021 की जनगणना की तैयारियों की एक समीक्षा बैठक हुई थी, जिसकी अध्यक्षता तब के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने की थी। इस बैठक के बाद सरकार की तरफ़ से कहा गया कि इस बार की जनगणना में पहली बार ओबीसी जातियों की गिनती भी की जाएगी।
जातिगत जनगणना का मुद्दा यूपीए सरकार के वक़्त भी आया था। साल 2010 में तब के क़ानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को एक चिट्ठी लिखकर साल 2011 की जनगणना में जातियों की गिनती कराने की ज़रूरत बताई थी।
फिर एक मार्च 2011 को तब के गृहमंत्री पी चिदम्बरम ने एक बहस के दौरान इस सवाल को टालने की कोशिश की तो काफ़ी हंगामा हुआ और तब प्रधानमंत्री सिंह ने कहा कि मैं आपको भरोसा दिलाता हूँ कि कैबिनेट इस पर जल्दी ही फ़ैसला करेगी। इसके बाद वित्तमंत्री प्रणब मुखर्जी की अध्यक्षता में एक ग्रुप ऑफ़ मिनिस्टर्स बनाया गया। और काफ़ी विचार-विमर्श के बाद यूपीए सरकार ने सोशियो इकोनॉमिक कॉस्ट सेन्सस कराने का निर्णय लिया। इसके लिए सरकार ने 4893 करोड़ रुपए के ख़र्च की मंज़ूरी दी। गाँवों में ग्रामीण विकास और शहरों में हाउसिंग एंड अरबन पॉवर्टी एलिवेशन मंत्रालय को यह काम सौंपा गया। इन दोनों मंत्रालयों की रिपोर्ट 2016 में प्रकाशित तो हो गई, लेकिन उसमें जातिगत गणना के आँकड़े जारी नहीं किए गए।
जातिगत जनगणना के लिए अक्सर कर्नाटक मॉडल की बात होती रही है। साल 2015 में कांग्रेस की सिद्दारमैया सरकार ने कर्नाटक में सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वेक्षण करवाया था, जिसे बाद में जातिगत जनगणना कहा गया। लेकिन इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट को सार्वजनिक नहीं किया गया। इस सर्वक्षण पर 162 करोड़ रुपए ख़र्च हुए थे।
दरअसल, विधेयक में संशोधन की मांग सुप्रीम कोर्ट के इंदिरा साहनी केस में दिए गए फ़ैसले की वजह से हुई। सुप्रीम कोर्ट ने इंदिरा साहनी मामले में फ़ैसले में कहा है कि अगर कोई राज्य पचास फ़ीसदी की सीमा से ज़्यादा आरक्षण देता है तो सर्वोच्च अदालत उस पर रोक लगा सकती है। बहुत से राजनीतिक दल और राज्य इस सीमा को ख़त्म करने की मांग कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने इस साल पांच मई को एक आदेश में महाराष्ट्र में मराठों को ओबीसी में शामिल कर आरक्षण देने के फ़ैसले पर रोक लगा दी थी। इस आदेश में यह भी कहा गया था कि राज्यों को सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों को नौकरी और दाख़िले में आरक्षण देने का अधिकार नहीं है।
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दरअसल, यह मसला संविधान के उस 102वें संशोधन के कुछ प्रावधानों से शुरू हुआ। साल 2018 में हुए इस संविधान संशोधन में नेशनल कमीशन फॉर बैकवर्ड क्लासेज की शक्तियों और ज़िम्मेदारियों को बताया गया था। इसमें संसद को पिछड़ी जातियों की लिस्ट बनाने का अधिकार दिया गया। इस संशोधन के ज़रिए एक राष्ट्रीय पिछड़ा आयोग बनाने की पहल की गई और 11 अगस्त 2018 को राष्ट्रपति के दस्तखत के बाद इसे संवैधानिक दर्ज़ा मिल गया। इसके साथ ही नई राजनीतिक मुश्किलें खड़ी हो गईं क्योंकि अब राज्य सरकारें अपने हिसाब से लिस्ट में जातियों को शामिल कर राजनीतिक फायदा उठाती थीं, लेकिन अब यह अधिकार उनसे छिन गया तो विरोध शुरू हो गया।
इस संशोधन का राज्य सरकारें विरोध कर रही थीं। उनके हिसाब से यह संघीय ढांचे को कमज़ोर करने वाला फ़ैसला था, लेकिन सुप्रीम कोर्ट के 5 मई के फ़ैसले के बाद इसके ख़िलाफ दबाव बढ़ गया। इससे पहले 1993 से केन्द्र और राज्य दोनों ही अपने सत्र पर ओबीसी जातियों की लिस्ट अलग-अलग बना रहे थे। फिर 2018 में संविधान संशोधन से इस पर रोक लग गई। अब यह रोक ख़त्म हो गई है।
इसके साथ ही संविधान के अनुच्छेद 338 बी और 366 में भी बदलाव किए गए हैं। ठीक दो साल बाद संसद ने उस फ़ैसले को ख़त्म कर दिया।
कांग्रेस की नरसिम्हा राव सरकार ने 1991 में आर्थिक आधार पर कमज़ोर सामान्य श्रेणी के लिए दस फ़ीसदी आरक्षण का फ़ैसला किया था। इसके ख़िलाफ़ पत्रकार इंदिरा साहनी अदालत में गईं।
तब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की नौ जजों की बेंच ने अपने आदेश में कहा कि आरक्षण का कोटा पचास फ़ीसदी से ज़्यादा नहीं किया जाएगा। लेकिन बाद में कई राज्यों ने इससे बचने के रास्ते भी निकाल लिए और कुछ राज्यों में कुल आरक्षण पचास फ़ीसदी से ज़्यादा है, इनमें केरल, राजस्थान, गुजरात, बिहार, हरियाणा, छत्तीसगढ़ और तमिलनाडु शामिल हैं।
माना जा रहा है कि इस विधेयक के क़ानून बनने से यूपी सरकार अपने पिछड़ा वर्ग सामाजिक न्याय समिति की सिफ़ारिशों को लागू कर सकती है। योगी सरकार ने जस्टिस राघवेन्द्र कुमार की अध्यक्षता में यह कमेटी बनाई थी। इस समिति ने राज्य में ओबीसी आरक्षण को तीन वर्गं में बांटने की सिफ़ारिश की थी। कहा जाता है कि यूपी में ओबीसी आरक्षण का ज़्यादातर फायदा यादव, कुर्मी और जाट समुदाय के लोग उठाते हैं। इसमें ओबीसी 27 फ़ीसदी आरक्षण को तीन हिस्सों में बांटकर पिछड़ा वर्ग को 7, अति पिछड़ा को 11 और सर्वाधक पिछड़ा वर्ग को 9 फ़ीसदी आरक्षण की सिफारिश की गई है।
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यूपी में फ़िलहाल ओबीसी के तहत 235 जातियाँ आती हैं। इनमें यादव, अहीर, जाट, कुर्मी, सोनार और चौरसिया को पिछड़ा वर्ग में, गिरी, कुशवाहा, कम्हार, लोध और लोहार सहित 65 जातियों को अति पिछड़ा वर्ग में और मल्लाह, केवट, राई, घोसी, निषाद, राजभर समेत 95 जातियों को सर्वाधिक पिछड़ा वर्ग में शामिल किया जाएगा।
देश में जातिगत जनगणना आखिरी बार 1932 में हुई थी। आज़ाद भारत में जातिगत जनगणना नहीं की गई, कहा गया कि इससे समाज में बंटवारा बढ़ेगा।
सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े सामाज को आरक्षण देने के लिए केन्द्र में पहली गैर कांग्रेस जनता पार्टी सरकार ने 1979 में बी पी मंडल की अध्यक्षता में आयोग बनाया था। 1931 की जनगणना के आधार पर आयोग ने आबादी में 52 फीसदी हिस्सेदारी ओबीसी की मानी थी। फिर 1990 में दूसरी गैर कांग्रेसी विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की सिफारिशों को लागू करने का फैसला किया था, जिसको लेकर देश भर में काफी विरोध हुआ था। 2008 में यह आरक्षण उच्च शिक्षा के दाखिलों में भी लागू कर दिया गया।
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