पिछले साल लोकसभा के चुनाव के दौरान मेरे जैसे कई लोगों को ये शक तो नहीं था कि मोदी अगले प्रधानमंत्री नहीं होंगे, ये ज़रूर आकलन था कि बीजेपी अपने बल पर सरकार नहीं बना पायेगी। उसे बहुमत का आँकड़ा छूने में दिक़्क़त होगी। उसे सरकार चलाने के लिए नए साथियों की ज़रूरत होगी और ये सरकार अपने स्वभाव में उतने अहंकार में नहीं होगी जितनी 2014 में बहुमत पाने के बाद हुई थी। पर हुआ ये कि बीजेपी को अकेले ही बहुमत मिला और उसे सरकार चलाने के लिए किसी की ज़रूरत नहीं पड़ी।

मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल का एक साल पूरा हो गया है। पिछले एक साल में मोदी सरकार और ज़्यादा अलोकतांत्रिक और निरंकुश हुई है। लोकतंत्र के जिन खंभों पर संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी थी, वे पूरी तरह दंडवत दिखाई दिए। सीएए विरोधी आवाज़ को बेरहमी से कुचला गया और न्यायपालिका आम आदमी के पक्ष में खड़ी नहीं दिखी। जामिया, जेएनयू और दिल्ली दंगों के मामले में भी सुप्रीम कोर्ट का यही रुख रहा। ये स्थिति मुझे बेहद निराश करती है।
अलोकतांत्रिक होती गई मोदी सरकार!
ऐसी सरकारें अक्सर ही दंभ से लबालब हो जाती हैं और उनसे लोकतांत्रिक व्यवहार की उम्मीद करना बेमानी होता है। मोदी सरकार के साथ भी यही हुआ। पिछला एक साल बीजेपी सरकार के लिए पूरी तरह से अलोकतांत्रिक होने का साल था। इस सरकार के ऊपर किसी तरह का कोई अंकुश नहीं रह गया और ये स्थिति देश, समाज और राजनीति, तीनों के लिए ख़तरनाक साबित हुई। खुद बीजेपी भी इस मुग़ालते में न रहे। कांग्रेस पार्टी सबसे मजबूत तब हुई जब उसे 1984 में चार सौ से ज़्यादा सीटें मिलीं। उसके बाद वो अभी तक तीन बार सरकार बनाने के बाद भी बहुमत का आँकड़ा नहीं छू पायी है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।