जब भी चुनाव आता है मोदी जी विपक्ष के नेताओं के ऊपर एजेंसियों के माध्यम से दबाव बना कर विपक्षी पार्टियों के नेताओं को अपने पक्ष में ले आते हैं ताकि चुनाव जीतने में आसानी हो। कभी सफल भी हुए कभी असफल भी।
नारदा–शारदा स्कैंडल में कैमरे पर पैसा लेते देखे गए टीएमसी के पूर्व नेता मुकुल राय (जो अब फिर से टीएमसी में आ चुके हैं), शुभेंदु अधिकारी आज बीजेपी के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष और दागमुक्त नेता घोषित हैं। पूर्व कांग्रेसी हिमंत बिस्वा सरमा, जिन्हें अमित शाह खुद जेल भेजने वाले थे आज बीजेपी की तरफ़ से असम के मुख्यमंत्री हैं और अमित शाह के दाहिने हाथ भी।
‘जमीन घोटाले’ वाले ‘चक्की पिसिंग’ अजित पवार के साथ बीजेपी सरकार बना लेती है। बी एस येदियुरप्पा बीजेपी के मुख्यमंत्री बनाए जाते हैं। बेल्लारी ब्रदर्स बीजेपी के मुख्य फाइनेंसर रहे हैं। जब मनीष सिसोदिया को गिरफ्तार किया गया उसी समय कर्नाटक के लोकायुक्त पुलिस ने बीजेपी विधायक के बेटे के घर से 8 करोड़ रुपए नकद जब्त किया लेकिन उसे जमानत मिल गई। जबकि सिसोदिया को बिना सबूत, बिना अपील, बिना दलील जेल में डाल दिया गया है।
हालिया सनसनी तो 2024 के लोकसभा चुनाव के संदर्भ में है। यह भी सर्वविदित है कि मोदी और आरएसएस सहित बीजेपी हिंदुत्व मुद्दे के ढलान के दौर में हैं। जिसके कारण मोहन भागवत नई नई समीक्षात्मक बातें करते दिख रहे हैं। दूसरी तरफ राजनीतिक भरपाई करने के लिए लगातार जांच एजेंसियों का दुरुपयोग किया जा रहा है। इसका तात्पर्य यह नहीं कि विपक्ष के हरेक दल के ऊपर निराधार छापा मारा जा रहा है। मोदी-शाह का स्पष्ट मानना है कि सत्ता उनके पक्ष में होनी चाहिए। जहां सत्ता इनके पक्ष में नहीं होती एजेंसियां केवल वहीं छापा मारती है।
मध्यप्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र में सफलतापूर्वक किया गया ‘ऑपरेशन लोटस’ दिल्ली और बिहार में पंक्चर हो जाता है क्योंकि समीकरण फ़िट नहीं बैठता। एक बात नहीं भूलनी चाहिए कि दिल्ली और बिहार के नेता तिकड़म में मोदी–अमित शाह को बराबर की टक्कर देते रहे हैं।
तेलंगाना के मुख्यमंत्री केसीआर और तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन मोदी के धुर विरोधी हैं। दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है। राजस्थान, हिमाचल, छत्तीसगढ़ में कर्नाटक और मध्यप्रदेश की तरह कांग्रेस या तो सत्ता में है या कम अंतर से विपक्ष में। बीजेपी अगर अपने दम पर कहीं सरकार में है तो उत्तर प्रदेश, गुजरात, हरियाणा में।
तथाकथित शराब घोटाले में मनीष सिसोदिया की गिरफ्तारी और केसीआर की बेटी के कविता से ईडी द्वारा पूछताछ और समन के मुद्दे पर सामूहिक चिट्ठी लिख कर विपक्षी एकता प्रदर्शित की गई। ऐसा इसलिए हो पाया क्योंकि केजरीवाल की पार्टी की छवि भ्रष्टाचार विरोधी रही है। जबकि लालू यादव और उनके परिवार कई मामलों में सजायाफ्ता होते हुए भी सांप्रदायिकता विरोधी होने कारण सहानुभूति पा रहे हैं।
केजरीवाल की एक रणनीतिक गलती जिसका फायदा बीजेपी उठाना चाहती है, वो यह कि अपने सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति मनीष सिसोदिया, जिनके शिक्षा मॉडल को वैश्विक प्रशंसा मिल रही है, उन्हें ही आबकारी विभाग दे दिया। हालाँकि बच्चों को शिक्षा देना और शराब नीति बनाना दोनों सरकार का ही काम है, परंतु एक व्यक्ति दोनों काम करें तार्किक भी नहीं लगता और नैतिक भी नहीं।
यहीं से मोदी-शाह को केजरीवाल और सिसोदिया पर निशाना साधना आसान हो गया।
केजरीवाल की पार्टी को बीजेपी की ‘बी टीम’ बताने वाली कांग्रेस असमंजस में है कि विपक्षी एकता को कैसे साधा जाए और अपना राष्ट्रीय नेतृत्व कैसे स्थापित किया जाए?
ऐसे में कई सवाल भी उठते हैं। कांग्रेस पार्टी अपने स्टैंड और नेतृत्व को लेकर असमंजस में है, समानांतर में अन्य विपक्षी दल भी कांग्रेस के नेतृत्व को स्वीकार करते नहीं दिखते।
इसके कई कारण हैं
- मोदी के सामने कांग्रेस नेतृत्व प्रभावहीन हो जाता है और बीजेपी एकतरफा जीत कायम कर लेती है।
- क्षेत्रीय दल कांग्रेस के जनाधार को अपना कर ही अस्तित्व में आये हैं या कांग्रेस विरोध से ही अपनी राजनीति शुरू की थी।
- कई प्रभावी क्षेत्रीय दलों का मानना है कि कांग्रेस द्वारा बनाई परंपरा को ही मोदी बीजेपी आगे बढ़ा रहे हैं। चाहे राज्य सरकार को गिराना हो, पार्टी तोड़ना या एजेंसी का दुरुपयोग करना।
आज कांग्रेस सत्ता से बाहर है तो विपक्ष के अन्य दलों से सहानुभूति चाहता है।
ऐसे में विपक्ष चौराहे पर खड़ा दिखता है। लेकिन कुछ मुद्दे पर तो सबकी राय स्पष्ट है। सांप्रदायिकता, क्रोनी कैपिटलिज्म, अडानी–अंबानी और अन्य पूंजीपतियों को लाभ देना और लेना। साथ ही केंद्रीय सत्ता के दुरुपयोग से स्वतंत्र संस्थाओं पर कब्जा करना विपक्षी एकजुटता का केंद्रीय आधार स्तंभ है। मोदी-शाह केंदीय जांच एजेंसी का उपयोग कर यह जनता में यह संदेश देना चाहते हैं कि भ्रष्टाचार के विरुद्ध वो कार्यवाही कर रहे हैं, जो सही नहीं है। उनका असली मक़सद भ्रष्टाचार के माध्यमों पर कब्जा करना और विपक्षी पार्टी को तोड़कर अपनी सत्ता बनाना है।
कांग्रेस ऐसी परिस्थिति पैदा करना चाहती है कि उनका राष्ट्रीय नेतृत्व विपक्ष स्वीकार कर ले जो फ़िलहाल संभव नहीं है। इस अंतर्द्वंद्व का फायदा उठाने में मोदी-शाह लगे हैं। इस बिंदु पर विपक्ष को कॉमन मिनिमम प्रोग्राम बना कर सहमति की स्पष्ट घोषणा करनी होगी।
कांग्रेस को समझना पड़ेगा कि जिस भी राज्य में स्पष्ट प्रतिद्वंद्विता है वहाँ मजबूती से वो अपनी भूमिका निभाए। जहाँ कमजोर है वहाँ प्रमुख क्षेत्रीय दल को आगे आकर लड़ने का मौक़ा दे क्योंकि अगर क्षेत्रीय दल उनसे गठबंधन कर कांग्रेस को ज़रूरत से ज़्यादा महत्व और सीट दे भी दे तो जनता उसे वोट नहीं देती है। उत्तर प्रदेश, बिहार, महाराष्ट्र इसके प्रमुख उदाहरण हैं। साथ ही कांग्रेस के बिकाऊ विधायकों ने पार्टी की विश्वसनीयता को कमजोर किया है वो अलग।
ऐसे में इतिहास खुद को दोहराता नज़र आ रहा है जब ‘इंदिरा इज इंडिया और इंडिया इज इंदिरा’ का नारा बुलंद होता था, तब आपातकाल लगा कर भी इंदिरा गांधी अपना चुनाव हार गई थीं और सत्ता खो दी थीं।
आज मोदी जी स्वयं को इंडिया घोषित कर रहे हैं। वो अघोषित आपातकाल की स्थिति बना चुके हैं। ऐसे में विपक्ष को 1974 की तरह एकजुट होकर मज़बूती से चुनाव लड़ना चाहिए, और चुनाव से पहले यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री पद का निर्णय चुनाव बाद परिणाम से तय कर लिया जाएगा।
हिंडनबर्ग–अडानी मुद्दे से जनता में यह संदेश तो स्पष्ट चला गया है कि मोदी सरकार किसके पक्ष में क्या और क्यों काम कर रही है? जबकि किसान युवा भयंकर बेरोज़गारी, महंगाई से परेशान है। विपक्ष को इन मुद्दों के साथ आक्रामक तरीक़े से सड़क पर उतर कर लड़ाई लड़नी पड़ेगी, मीडिया से कोई अपेक्षा करना बेईमानी होगा।
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