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ध्यानरत मोदी-ब्रांड के लोकप्रियता की सीमा कहां तक?

मोदी-ब्रांड पापुलिज्म की सबसे बड़ी खराबी यह है इसका अभ्यासकर्ता समय के साथ अपने को या अपनी “जादूगरी” को बदल नहीं पाता या बदलने की क्षमता नहीं होती। वह यह सोचता है कि जो दुनिया 2014 में थी वही आज भी है और उसी सोच के साथ है। चूंकि इस पापुलिज्म का बड़ा भाग इसके अभ्यासकर्ता के एक खास किस्म के “अंतर्निष्ठ व्यक्तित्व” से आता है लिहाज़ा उसमें बदलाव संभव भी नहीं होता। 
इस "व्यक्तित्व" का नमूना अभ्यासकर्ता के इस कथन से मिलता है कि सन 1982 से बनी फिल्म से पहले गांधी को कोई नहीं जानता था। गांधी फिल्म इसे करने वाला अपनी काल-सापेक्ष सफलता को शाश्वत मानने की भूल करता है जबकि उसका टारगेट ऑडियंस नयी शिक्षा, बेहतर तर्क-शक्ति और नाटक की उबाऊ पुनरावृत्ति से उब कर सम्यक विश्लेषण करने लगता है। 
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जनता का मन कैप्चर करने का गुरभारतीय मानस को पूरी तरह कैप्चर करना हो तो उसे अपने व्यक्तित्व के बारे में भ्रम द्वंद में डालना पहली शर्त है। मॉडर्न “धार्मिक गुरु” यह बात सबसे अधिक जानते हैं। वे प्रवचन देने एक करोड़ की कार से उतरते हैं। लेकिन वस्त्र आद्यंत गेरुआ होता है। खडाऊ पर चलते हैं लेकिन साथ में विदेशी शिष्या होती है। आध्यात्मिक ज्ञान के लिए गीता के “ये हि संस्पर्शजया भोगा, दुःख योनय एवते” (संस्पर्श से मिले आनंद के मूल में हीं दुःख होता है) की विवेचना करते हैं लेकिन प्रवचन वातानुकूलित हाल में होता है और उनका ठहरना किसी भक्त की आलीशान कोठी या पंचतारा होटल में। 
वह गीता के संस्कृत के श्लोक की व्याख्या भी सीधे अंग्रेजी में करते हैं। अगर बाबा हिंदी भाषी है तो चरक-सुश्रुत पध्यति का बखान करते समय अपनी लहराती दाढ़ी में मानव शरीर के अंगों जैसे (पैंक्रियास), बीमारियों, दवाओं के नाम अंग्रेजी में ऐसे लेगा जैसे पांच साल का मेडिकल डिग्री का कोर्स किया हो।
मोदी को मालूम है कि कैसे अपना मूल पिछड़ी जाति के चाय वाले के रूप स्थापित करो लेकिन दिन भर में दस बार कपडे़ बदलो, लैंड करते जहाज का विजुअल हीं नहीं अफसरों का श्वान-दौड़ भी कैमरे पर दिखवाओ ताकि जनता समझे कि “चाय बेचने वाला “अपना मोदी” कैसे “साहब” बन गया। लेकिन भाषण दो तो अपने को चौकीदार और सेवक बताओ।                
प्रधानमंत्री मोदी ने अपने को दस साल में बदला नहीं. दर्जनों कैमरों के बीच घंटों और दिनों टेलीवाइज्ड “साधना” पहली बार तो आम हिन्दुओं को अपने नेता में देवत्व के अंश देखने को उद्धत करता है। लेकिन यह वह देश है जहां साधन-पूजा हर घर में आम बात है और वह इसकी बारीकियां भी जानता है।
दस वर्षों तक अनवरत हिन्दू-मुसलमान, मंगलसूत्र, मंदिर, भैंस, बुलडोजर, चुनाव मंच पर गर्दन टेढ़ी कर ताली बजाते हुए “दीदी-ओ–दीदी” का घटिया मुजाहरा करने वाला जब तीसरी-चौथी बार अचानक राम-लला विग्रह प्राण-प्रतिष्ठा का स्वयं नायक बनता है तो नए संसद-भवन का गृह-प्रवेश भी स्वयं करता है। और किसी नदी पर पुल के उद्घाटन में भी क्षितिज के बैकग्राउंड अकेला चलता है। ऐसे में लोगों को शक होता है कि इसका कैमरा-प्रेम, कैमरा एंगल और भक्त मीडिया के जरिये बॉलीवुड के एक्टर्स को मात देना सत्य है या इसका मंदिर-संसद पर लमलेट हो कर अपने “देवत्व” का भोंडा इजहार-ए-हकीकत है। 
“मां नहीं रही तो मुझे ज्ञान हुआ कि ईश्वर ने मुझे इस दुनिया में एक खास मकसद से भेजा है” का चुनावी रहस्योद्घाटन जब लोगों ने मोदी के अगले दिन के वाक्य “मुझे जानते नहीं हैं, विपक्षी. मेरा मुंह न खुलवाए वरना उनकी सात पीढ़ियों का कच्चा चिठ्ठा खोल के रख दूंगा” का टोन देखा तो लगा कि देव सड़क छाप धमकी तो नहीं देता होगा. मोदी को लोग धीरे-धीरे नज़रों से उतरने लगे हैं।
सत्ता फिर से  मोदी के हाथ आये या न आये, आने वाली पीढियां और अकैडेमी के लोग इस बात पर रिसर्च जरूर करेंगें कि  मोदी-ब्रांड “पॉपुलिज्म” दुनिया में अभी तक के ज्ञात तरीकों से कितना और किन-किन आधारों पर अलग है। क्या इसकी भी कोई सीमा है और अगर है तो क्यों? साथ हीं तात्कालिक सामाजिक-नैतिक मानदंडों (कंटेम्पररी कम्युनिटी स्टैंडर्ड्स) से कितना हट कर है और इसमें सत्य से इतर अभाषित सत्य के आधार पर कैसे एक सपनों की खोखली ईमारत खडी की जाती है और इसके लिए हथकंडे कौन से अपनाये जाते हैं। 
मोदी-ब्रांड पॉपुलिज्म के अभ्यासकर्ता के व्यक्तित्व में हीं छलावा होता है। इसके लिए अभ्याकर्ता को कोई एक्स्ट्रा मेहनत नहीं करनी होती। भावनाओं को उभारना, खासकर धार्मिक उन्माद के स्तर तक और फिर स्वयं उसके मुखिया बन कर “अस वर्सेज देम” के द्वन्द को (बाइनरी) एक धर्माधारित व्यक्ति-समूह की चेतना में इतनी गहराई तक ले जाना कि वह भूल जाये कि उसके लिये मानव-धर्म भी है या सत्य की तराजू पर केवल चुनिन्दा तथ्य नहीं रखे जाते।     
बंगाल की खाड़ी, हिन्द महासगार और अरब सागर के मिलन बिंदु पर स्थित विवेकानंद रॉक मेमोरियल पर 45 घंटे के “मेडिटेशन” में मोदी का फोटो लगातार मीडिया को मिलता रहेगा। 1892 में विवेकानंद ने भी इसी तरह के भगवा में कई दिन तपस्या की तो उन्हें “ज्ञान” मिला। लेकिन उनके पास तब न तो पीएमओ का स्टाफ अपने  दर्जनों कैमरे और “एंगल्स” के साथ पहले से तैनात था। न हीं “भक्त मीडिया” इसे प्रचारित कर मोदी में ईश्वरत्व दिखाने कप तत्पर थी।
विवेकानंद चुनाव में झूठ, वितंडावाद, फरेब, हिन्दू-मुस्लिम, मंगलसूत्र, भैंस, मंदिर और बुलडोज़र और भड़काऊ वातावरण तैयार करने की बाद वहाँ साधना के लिए नहीं गए थे। न हीं मोदी की तरह “ध्यान” के 12 घंटें पहले विपक्ष को यह कह धमकी दी थी कि “मोदी को समझने में गलती मत करना, ईडी गठबंधन वालों , मेरा मुंह मत खुलवाओ, जिस दिन मुंह खोल दिया, उस दिन आपकी सात पीढ़ियों के पाप निकाल कर रख दूंगा”। इस वाक्य का टोन, टेक्स्ट, सन्दर्भ और बोलने वाले का स्तर देखें। क्या विवेकानंद के सैकड़ों भाषणों में आपने ऐसे भाव की अभिव्यक्ति देखी-सुनी है?
मोदी की सीटें 2019 के चुनाव के बाद आयीं सीटों से कम होगी, यह धारणा है। लेकिन मिलियन-डॉलर का सवाल यह है कि कितनी? अगर 30 सीटें भी कम हुई तो भी मोदी की शाश्वत मकबूलियत का मायाजाल टूट जाएगा। मोदी-ब्रांड पॉलिटिक्स पूर्ण स्वायत्तता में हीं चल सकती है। 
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कमजोर मोदी-पॉलिटिक्स पलायनवादी होने लगता है क्योंकि आसपास या दूर के जिन लोगों को दबाया गया वे सारे उभार पर होंगें।  कमजोर मोदी के बरक्स नागपुर के वरदहस्त लिए कोई योगी, कोई गडकरी, कोई राजनाथ या ये सभी अचानक ईश्वर द्वारा खास काम के लिए भेजे गए किरदार हो सकते हैं। 
(लेखक एनके सिंह वरिष्ठ पत्रकार हैं और ब्रॉडकास्ट एडिटर्स एसोसिएशन के पूर्व महासचिव हैं।)
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एन.के. सिंह
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