भारत सरकार ने यह फ़ैसला देर से किया लेकिन अच्छा किया कि प्रवासी मज़दूरों की घर वापसी के लिए रेलें चला दीं। यदि बसों की तरह रेलें भी ग़ैर-सरकारी लोगों के हाथ में होतीं या राज्य सरकारों के हाथ में होतीं तो वे उन्हें कब की चला देते। करोड़ों मज़दूरों की घर-वापसी हो जाती और अब तक काम पर लौटने की उनकी इच्छा भी बलवती हो जाती लेकिन अब जबकि रेलें चल रही हैं, बहुत ही शर्मनाक और दर्दनाक नज़ारा देखने को मिल रहा है। जिन मज़दूरों की जेबें खाली हैं, उनसे रेल-किराया माँगा जा रहा है और एक वक़्त के खाने के 50 रुपये ऊपर से उन्हें भरने पड़ रहे हैं।