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मनमोहन सिंह को वक़्त पर क्यों पहचान नहीं सके लोग?

10 साल पहले जिस प्रधानमंत्री को लेकर तथाकथित ‘भ्रष्टाचार विरोधी’ आंदोलन चलाया गया था, जिसके बारे में यह साबित करने की कोशिश की गई थी कि उनके नेतृत्व वाली यूपीए-2 सरकार बेहद भ्रष्ट है, जिसके बारे में ‘आंदोलन’ के नाम पर ‘ओपिनियन’ तैयार की गई जिसमें मीडिया ने अपनी ‘एकपक्षीय’ भागीदारी से इस वैश्विक नेता को अपमानित किया, आज आश्चर्यजनक रूप से हर कोई उनकी बात करता दिख रहा है। यदि कुछ दक्षिणपंथी वैतनिक फ्रिंज तत्वों को छोड़ दें तो एक वरिष्ठ पत्रकार विश्वदीपक के अनुसार यह कहा जा सकता है कि सम्पूर्ण भारत का मध्यमवर्ग और बुद्धिजीवी समूह एक ‘सामूहिक पश्चाताप’ के दौर से गुज़र रहा है।

यह कहा जाए कि आज शायद ही कोई होगा जो डॉ. मनमोहन सिंह को ‘एक्सीडेंटल प्राइममिनिस्टर’ मानता होगा। यदि सामाजिक सुधार, आर्थिक सुधार, आमलोगों के जीवन में बदलाव आदि को पैमाना मानें तो 2024 के अंत तक, मेरी नजर में डॉ. मनमोहन सिंह भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के बाद सर्वश्रेष्ठ प्रधानमंत्री हैं। पंडित नेहरू के बाद कोई ऐसा प्रधानमंत्री नहीं रहा जिसने सामाजिक सुधारों जिसे आंबेडकर के शब्दों में ‘सामाजिक न्याय’ कहा जाना चाहिए, में इतनी बड़ी क्रांति की हो।

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अगर मनमोहन सिंह ने आर्थिक सुधार न किए होते तो शायद भारत में प्रतियोगिता शब्द का कोई मायने नहीं होता। जैसे हर सुधार के कुछ स्याह पक्ष होते हैं, इन सुधारों का भी रहा, उदाहरण के तौर पर- आर्थिक असमानता आदि लेकिन जल्द ही जब 2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनने का मौक़ा मिला तो उन्होंने इस असमानता को कम करने और कल्याणकारी आर्थिक नीतियाँ बनाने का काम संस्थागत तरीक़े से शुरू कर दिया और एक के बाद एक माइलस्टोन बनाते चले गए। जैसे- सूचना का अधिकार अधिनियम (RTI)-2005, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा)-2005, शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE)-2009, खाद्य सुरक्षा अधिनियम- 2013 आदि।

सूचना का अधिकार एक ऐसा क़ानूनी हथियार है जिसे कोई भी सरकार अपने कार्यकाल में नहीं लाना चाहेगी क्योंकि यह सरकार के ख़िलाफ़ ही इस्तेमाल किया जा सकता है। ऐसे अधिकारों की वकालत अक्सर विपक्षी दल किया करते हैं लेकिन मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए-1 सरकार इस क़ानून को ले आई। इसने नागरिकों को सरकारों से सूचना प्राप्त करने का क़ानूनी अधिकार दे दिया। अब सरकार चाहकर भी लोगों को सूचना देने से मना नहीं कर सकती। अब लोग पूछ सकते हैं कि प्रधानमंत्री की यात्राओं पर कितना खर्च हो रहा है? सरकार किस सलाहकार को कितना वेतन दे रही है? सरकार मीडिया पर कितना ख़र्च कर रही है? किस मीडिया हाउस को कितना धन दिया जा रहा है आदि। ये सवाल सरकारों को असहज करते हैं लेकिन मनमोहन सिंह को कोई असहज नहीं कर पाया।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार ने लोगों से सूचनाएं छिपाने के लिए क़ानूनी दाँवपेंचों का इस्तेमाल किया है, आजकल क़ानून में उपस्थित फॉल्टलाइन का इस्तेमाल करके नागरिकों को सूचना देने से इनकार कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए कोरोना काल में बने पीएम केयर फंड से संबंधित सूचना नहीं दी गई। जिस फंड में आम लोगों का पैसा जा रहा है, नैतिक रूप से उस फंड के खर्च के ब्योरे की जानकारी जनता को होनी चाहिए। लेकिन मोदी सरकार ने इसका ब्योरा देने से इनकार कर दिया। यहाँ तक कि सूचना आयुक्तों के अधिकारों और शक्तियों को भी संसद में अपने बहुमत का लाभ उठाकर कम कर दिया गया। जबकि सूचना के अधिकार को भारत का सर्वोच्च न्यायालय (भगत सिंह, 2007) ‘मूल अधिकार’ के रूप में मान्यता दे चुका है (अनुच्छेद-19, 21 के तहत)। सभी लोग कल्पना कर सकते हैं कि मनमोहन सिंह का नैतिक बल और लोगों पर भरोसा कितना सशक्त रहा होगा कि उन्होंने यह अधिकार क़ानून की सुरक्षा में लपेटकर लोगों को दिया। 
जब 2005 में मनमोहन सिंह सरकार नेशनल ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनयम (नरेगा बाद में मनरेगा) लायी तब तमाम विपक्षी दलों ने इसका विरोध किया। पूँजीपतियों के संरक्षक अर्थशास्त्रियों ने भी इसका विरोध किया। लेकिन साल भर में 100 दिन के रोजगार की गारंटी देने वाले इस क़ानूनी अधिकार ने क्रांति ला दी।

मनरेगा अपने उद्देश्यों में सफल रहा। इस क़ानून की वजह से 22.5% ग्रामीण परिवारों को फ़ायदा हुआ है। अगर सिर्फ़ 2022-23 के ही आंकड़े देखें तो इस क़ानून की वजह से 6 करोड़ 49 लाख ग्रामीण परिवारों को रोजगार मिला, जिसमें लगभग 55% महिलाएँ और क्रमशः 21.3% व 17.3% अनुसूचित जाति और जनजाति के लोग शामिल थे।

सर्वे बताते हैं कि मनरेगा की वजह से ग्रामीण परिवारों की आय में 13% से 22% तक की बढ़ोत्तरी हुई है। इसके अलावा इन परिवारों की खपत में भी 10% से 13% तक का इजाफ़ा हुआ है। अगर यह योजना नहीं होती तो पता नहीं भारत 2007-08 के वैश्विक आर्थिक संकट को कैसे झेलता! इस योजना ने ग्रामीणों की जेब मैं पैसे बनाकर रखे और बचाकर रखे, जिससे मांगों में कमी न होने पाये। यह उन प्रमुख कारणों में से एक रहा कि भारत ने उस समय आए वैश्विक आर्थिक संकट में ख़ुद को संभाल कर रखा। यह योजना कोविड महामारी के दौरान भी काम आई। मोदी सरकार भले ही राजनैतिक कारणों से इसे कांग्रेस की असफलताओं का स्मारक कहती रही हो लेकिन इसी सरकार में नीति आयोग की 2020 की रिपोर्ट मोदी जी से सहमत नहीं है। इसके अनुसार-

मनरेगा, ग्रामीण भारत में समावेशी विकास के लिए एक सशक्त साधन है, जो सामाजिक सुरक्षा, आजीविका सुरक्षा और लोकतांत्रिक सशक्तिकरण पर प्रभाव डालती है। यह गरीबों को टिकाऊ परिसंपत्तियों के निर्माण, जल सुरक्षा, मृदा संरक्षण और भूमि उत्पादकता में सुधार के माध्यम से आजीविका सुरक्षा प्रदान करती है। इसने कृषि उत्पादन में सुधार के कारण परिवारों की आय और जीवन स्तर को सकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। मनरेगा ने ग्रामीण श्रमिकों की मजदूरी में वृद्धि की और एससी, एसटी, महिलाओं और सामाजिक रूप से हाशिए पर पड़े समुदायों को गरीबी उन्मूलन के संकेतक के रूप में जोड़ा है।

वास्तव में मनरेगा को भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का एक अंग ही माना जाना चाहिए। ग्रामीण आर्थिक विकास के इस मॉडल ने लोगों में लोकतंत्र पर भरोसा क़ायम रखा है। ग्रामीण विकास के लिए डॉ. सिंह का समर्पण बेमिसाल था, अमेरिकी अर्थशास्त्री जैफ़री सैक्स जोकि मनमोहन सिंह के प्रशंसक भी थे, उन्होंने डॉ. सिंह के राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन की बहुत तारीफ़ की थी। क्योंकि जैफ़री सैक्स जानते थे कि ग्रामीण और संसाधन विहीन क्षेत्रों में ऐसी योजनाओं का क्या लाभ होता है। 2005 में लिखे अपने एक लेख में जैफ़री सैक्स ने लिखा कि दुनिया में ग़रीबी की वजह से हर साल लगभग 80 लाख लोग मर जाते हैं। वो समझते थे कि सरकारी आर्थिक सहायता से भारत ने लाखों ग्रामीण और गरीब लोगों की जान बचाई है।

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ऐसा ही एक काम शिक्षा का अधिकार अधिनियम-2009 के माध्यम से किया गया। शिक्षा का अधिकार वैसे तो संविधान के ‘नीति निदेशक तत्वों’ में था ही लेकिन यह सरकार के दायित्वों के रूप में शामिल किया गया था। यहाँ माना गया कि सरकारें इसे अपनी जिम्मेदारी समझकर पूरी करेंगी। लेकिन भारत में पहली बार किसी सरकार ने इसे ‘मौलिक अधिकार’ का स्वरूप दे दिया (अनुच्छेद-21A)। मतलब ऐसा अधिकार जिसे देने से सरकार इनकार ही नहीं कर सकती, ऐसा अधिकार जिसमें हीलाहवाली करने पर सरकार को सुप्रीम कोर्ट में सीधे चुनौती दी जा सके। एक शिक्षक ही शिक्षा के महत्व को इतनी गंभीरता से ले सकता था, डॉ. मनमोहन सिंह ने यही किया। और इसका फ़ायदा देखिए- 2009 में इस क़ानून के लागू होने के बाद से 2016 तक कक्षा 6-8 के छात्रों में नामांकन दर में 19.4% की बढ़ोत्तरी हो चुकी थी। 2016 में 6-14 वर्ष आयु के मात्र 3.3% छात्र ही ऐसे थे जिनका किसी स्कूल में नामांकन नहीं था। यह होता है जब सरकार कुछ ठान लेती है और नागरिकों को सशक्त करना चाहती है।

पीएम मनमोहन सिंह 2013 में फिर से दो क्रांतिकारी क़ानून लेकर आए। पहला खाद्य सुरक्षा अधिनियम और दूसरा भूमि अधिग्रहण क़ानून। एक क़ानून भूख से जूझ रहे भारतीयों को लगभग ‘मुफ्त’ में भोजन प्रदान करने के लिए था ताकि गरीब भारतीय भोजन की मारामारी से आगे बढ़कर अपने जीवन के बारे में सोच सकें। यह वही योजना है जिसे मोदी सरकार ने अपना बनाकर तब पेश किया जब देश कोविड की मार झेल रहा था। 75% ग्रामीण और 50% शहरी भारतीयों के भोजन की व्यवस्था तो पहले ही की जा चुकी थी। यह भोजन किसी नेता के चुनाव के पहले स्टेज पर खड़े होकर उछलने-कूदने से आगे की बात थी। अब यह एक क़ानूनी अधिकार है जिसे कोई सरकार मना ही नहीं कर सकती है। मनमोहन सरकार जिस भूमि अधिग्रहण क़ानून को लेकर आई उसने 1894 के ब्रिटिशकालीन भूमि अधिग्रहण क़ानून को प्रतिस्थापित किया है। इसमें अनुसूचित जाति और जनजाति के अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए मजबूत प्रावधान किए गए हैं। 

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इसके अलावा उनके समय में भारत विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पोलियो मुक्त घोषित कर दिया गया (2014)। पर्यावरणीय अधिकारों को महत्ता देते हुए नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल एक्ट-2010 लाया गया। यह सामान्य क़ानून नहीं था। इस क़ानून की प्रस्तावना में लिखा है कि इस क़ानून का उद्देश्य अनुच्छेद-21 अर्थात् जीवन के अधिकार की रक्षा करना है। 

मनमोहन सरकार अपने दोनों कार्यकाल के दौरान जिस किस्म के क़ानून ले आई उनमें नागरिक अधिकार बोध, कल्याणकारी चरित्र और आर्थिक विकास अहम पहलू थे। उनके द्वारा लाए गए क़ानूनों ने भारत के लोकतंत्र को मजबूत करने का काम किया है बिल्कुल वैसे ही जैसे पंडित नेहरू ने किया था। उन्होंने पीएम नरेंद्र मोदी को एक आर्थिक रूप से सशक्त और विदेश नीति में परिपक्व व एक शांतिपूर्ण पड़ोस वाला भारत दिया ताकि वो उसे और आगे ले जा सकें। लेकिन मोदी अभी तक भारत को उस तरह सशक्त करने में असफल रहे हैं जैसी उनसे आशा की गई थी, ख़ासकर, तब जब उन्हें मनमोहन सिंह की विरासत वाला भारत मिला हो।

मनमोहन सिंह अपने पास अपनी हर आलोचना का जवाब रखते थे बस कभी खुलकर लोगों के सामने नहीं रखा। उन्हें लगा कि गांधी-नेहरू और आंबेडकर के इस महान लोकतंत्र में कभी ना कभी तो उनकी बात सामने आएगी।

वे चीख-चीख कर मंचों पर नाच नहीं करते थे, वे चिल्ला चिल्ला कर किसी दल की ओर किसी व्यक्ति की बुराई नहीं करते थे, वे मंचों पर रोते नहीं थे, वे चुनाव जीतने के लिए देश के लोगों को लड़ा नहीं सकते थे, वे वोट के लिए क़त्लेआम को प्रोत्साहित नहीं कर सकते थे, वे डरे हुए राजनेता नहीं थे इसलिए उन्हें किसी पर ‘कंट्रोल’ करने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई।

जब उनके क़रीबियों ने उनसे पूछा कि वो विपक्षियों द्वारा किए जा रहे हमलों का जवाब क्यों नहीं दे रहे हैं? तो शांत-चित्त भाव से उनका जवाब था कि वो अपने ही देश के विपक्षी दलों के साथ गाली-गलौज का मैच नहीं खेल सकते। जब उनसे कहा गया कि आपका अपनी ही कैबिनेट पर कोई नियंत्रण नहीं है, जिसका जो मन आता है बोलकर चला जाता है। इस पर उनका जवाब था कि वो कोई तानाशाह नहीं हैं और न ही भारत कोई राजशाही! उनका मानना था कि प्रधानमंत्री अपनी कैबिनेट में ‘सभी समकक्षों में बस पहले नंबर’ पर है और कुछ नहीं।

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कितने आश्चर्य की बात है कि जिस सूचना के अधिकार ने सिविल सोसाइटी को भ्रष्टाचार से लड़ने का औजार प्रदान किया उसी अधिकार को प्रदान करने वाले राजनेता/प्रधानमंत्री को ही एक प्रायोजित आंदोलन ने भ्रष्ट साबित करने की कोशिश की। उन्हें सत्ता से जाते समय भ्रष्टाचार के झूठे आरोप सुनने और सहने पड़े। जिसके खून और चरित्र में ईमानदारी के अतिरिक्त और कुछ था ही नहीं। एक ऐसा देशभक्त जिसने अपने ‘संस्मरण’ सिर्फ़ इसलिए नहीं लिखे कि कहीं देश की शान को बट्टा न लग जाये। ’बेस्ट सेलर’ के आडंबर से दूर रहे भारत के 13वें प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ताउम्र भारत और इसकी संस्थाओं की शुचिता बनाये रखने के लिए प्रतिबद्ध रहे। कोई व्यक्ति एक साथ इतना सशक्त और ईमानदार कैसे हो सकता है यह बात महात्मा गांधी के बाद डॉ. मनमोहन सिंह के चरित्र से ही जानी जा सकती है। 

वह कभी मीडिया में अपना पक्ष रखने नहीं गए लेकिन आज जब वह इस दुनिया को छोड़कर जा चुके हैं, तो पश्चाताप के आँसू रोता भारतीय मीडिया और विचारों की दलदली भूमि पर बैठा भारत का बुद्धिजीवी वर्ग पछतावे में यह सोच रहा है कि उनसे इतनी बड़ी भूल कैसे हो गई? आख़िर कैसे वो एक एक्टिविस्ट के नेता बनने की तमन्ना को भाँप नहीं सके? वो कैसे नहीं भाँप सके कि तथाकथित तत्कालीन भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन खाकी दलों का एक प्रायोजित कार्यक्रम था जिसे देखने के लिए, शामिल होने के लिए उन सबने अपनी लोकतान्त्रिक ‘विरासत’ दाँव पर लगा दी। एक लाइन में मनमोहन सिंह को भ्रष्ट कहने वालों को ये सारी बातें सोचनी चाहिए।

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कुणाल पाठक
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