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सांप्रदायिक दंगे: फिर गांधी पैदा होंगे?

ठीक 100 साल पहले की बात है। गांधीजी का असहयोग और खिलाफत आंदोलन पूरे जोर पर चल रहा था। देश की गली-गली में हिंदू मुसलमान की जय के नारे लग रहे थे। अल्लाह हो अकबर और वंदे मातरम एक साथ पुकारा जा रहा था। फिरंगी शासन की जमीन सरकने लगी थी। तभी मार्च 1922 में गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।

नेहरू,  मौलाना आजाद, सुभाष यह सब पहले ही जेल भेजे जा चुके थे। जब गांधी जेल चले गए तो अंग्रेजों ने नया दांव निकाला। हिंदू मुसलिम का फसाद खड़ा कर दिया। फिर तो देश में कभी रामनवमी के जुलूस में तो कभी किसी मसजिद की अजान पर और कभी गाय या सूअर के नाम पर हिंदू मुसलमान रोज सामने आने लगे। 1923 दंगों का साल बन गया।

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1924 में गांधी जी जब जेल से छूट कर बाहर आए तो वहाँ ‘हिंदू मुसलमान की जय’ की जगह हिंदू और मुसलमान का झगड़ा खड़ा हो चुका था। पश्चिम से लेकर पूरब तक और दिल्ली से लेकर दक्षिण तक कोई ऐसा बड़ा शहर नहीं था जहाँ हिंदू मुसलिम दंगे ना हो गए हों।

गांधीजी देखते रहे, देखते रहे और अंत में उन्होंने अली बंधुओं के आवास पर दिल्ली में 21 दिन का उपवास करने का फ़ैसला किया। 

उपवास का कुछ असर हुआ। दंगे कुछ कम हो गए। लेकिन रुके नहीं। गांधीजी लगातार कोशिश करते रहे कि किसी तरह फिर से असहयोग और खिलाफत के दौर की हिंदू मुसलिम एकता लौट आए।

लेकिन बात नहीं बनी। गांधी ने कहा कि मामला बहुत ज़्यादा उलझ गया है, उसे मैं जितना सुलझाने की कोशिश करूंगा यह उतना ही उलझता चला जाएगा। खासकर ऐसे वक़्त में जब सरकार जानबूझकर दंगों को प्रोत्साहन दे रही हो और लोगों में सांप्रदायिक जज्बात उबाल पर हों, तब शांति के अलावा और कोई उपाय नहीं है।

गांधी जी ने अपने आप को चरखा, खादी और दलितों के उद्धार में लगा दिया। धीरे-धीरे लोगों का जोश ठंडा हुआ और उनकी निगाह अंग्रेजों के जुल्म की तरफ गईं। यूरोप और अमेरिका से चली महामंदी ने लोगों की कमर तोड़ दी। महंगाई चरम पर पहुंच गई।

गांधीजी ने सुअवसर पहचाना और वह दांडी यात्रा पर निकले। एक चुटकी नमक उठाकर गरीब भारत के आर्थिक मुद्दे को आज़ादी का नारा बना दिया। सांप्रदायिक मुद्दे धराशाई हो गए। साबरमती के संत ने कमाल कर दिया। फिरंगी सरकार एक बार फिर नाकाम हो गई।

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100 साल बाद फिर उसी तरह का फसाद करने की कोशिश हो रही है। आज गोरों की सरकार नहीं है। ठीक उसी तरह से फसाद हो रहे हैं। कोई गांधी बीच में नहीं है। लेकिन परिस्थितियां अपना गांधी बार-बार पैदा करती हैं। ज़्यादा दिन नहीं है जब लोग एक बार फिर नमक का मोल पहचानेंगे और सांप्रदायिकता के बनावटी सवाल से खुद को अलग करेंगे।

यह देश उसी राह पर जाएगा जिस पर इसे जाना चाहिए। आर्थिक सामाजिक मुद्दे सांप्रदायिकता का खोल फाड़कर सामने आ ही जाएंगे। भूखे पेटों को जुमलों से नहीं भरा जा सकता। नफरत से दंगे हो सकते हैं, घर में चूल्हा नहीं जल सकता। सत्ता के भेड़िये इसे बहुत दिन तक बहका नहीं पाएंगे। 

जय गांधी बाबा की!

(पीयूष बेबले की फेसबुक वाल से) 

(मामूली एडिटिंग के साथ)

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पीयूष बबेले
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