महाराष्ट्र में सत्तासीन दल शिवसेना 17वीं सदी में किसान प्रतिरोध के सबसे बड़े नेता और मराठा साम्राज्य के संस्थापक शिवाजी की समर्थक है और उसका नाम भी शिवाजी के नाम पर पड़ा। महाराष्ट्र की राजनीति में इस समय लगातार छापामार राजनीति चल रही है। छापेमार राजनीति का एक और उदाहरण पेश करते हुए सत्तासीन सरकार ने अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) की जनगणना कराने का प्रस्ताव विधानसभा में पारित करा दिया है। महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष और कांग्रेस नेता नाना पटोले ने जाति जनगणना कराने को लेकर विधानसभा में प्रस्ताव पेश किया और सत्तासीन दलों सहित सदन का बड़ा हिस्सा अवाक था। जाति जनगणना के प्रस्ताव को सभी दलों को एक स्वर में समर्थन करना पड़ा और एकमत से प्रस्ताव पारित करना पड़ा।
देश में जातीय जनगणना की लंबे समय से माँग होती रही है। 1980 में इंदिरा गाँधी सरकार के कार्यकाल में ओबीसी के लिए आरक्षण की सिफ़ारिश करते समय मंडल कमीशन ने 1931 की जनगणना को आधार बनाकर अनुमान लगाया था कि अगर सभी जातियों की प्रजनन दर समान रही हो तो देश में ओबीसी की संख्या 52 प्रतिशत है। कमीशन ने सिफ़ारिश की थी कि जातीय जनगणना कराई जाए, जिससे सही संख्या और सामाजिक-शैक्षणिक व आर्थिक स्थिति के सटीक आँकड़े आ सकें और देश के इस बड़े वर्ग के उत्थान के लिए लक्षित क़दम उठाए जा सकें। मंडल कमीशन की सिफ़ारिशें लागू होने के बाद पिछले दरवाज़े से तमाम जातियों को ओबीसी आरक्षण में घुसाया गया, जिससे इस वर्ग की संख्या में लगातार बढ़ोतरी होती रही है।
आयोग ने राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी को अपनी रिपोर्ट की भूमिका में लिखा है, ‘जाति संबंधी आँकड़े न होने की वजह से हमें बहुत ज़्यादा कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, क्योंकि 1931 के बाद जातियों की गणना नहीं हुई। भविष्य में इस तरह की कठिनाइयों के समाधान के संदर्भ में मैंने 15 जून 1979 और 18 अगस्त 1979 को क्रमशः श्री एचएम पटेल और वाईवी चव्हाण को पत्र लिखा। मैंने 31 मार्च 1980 को केंद्रीय गृह मंत्री ज्ञानी जैल सिंह को पत्र लिखकर इस संदर्भ में निवेदन किया। मुझे सूचित किया गया कि 1981 की जनगणना में जाति संबंधी आँकड़े जुटाना संभव नहीं है। मौजूदा नीति में भारत की जनगणना में जाति संबंधी जनगणना का प्रावधान नहीं है और यह नीति जारी रहेगी। इस नीति पर फिर से विचार की ज़रूरत है।’
अंग्रेज़ों के ज़माने से ही हर 10 साल पर जनगणना का प्रावधान है। इसका मक़सद देश की आबादी और इससे जुड़े तरह-तरह के आँकड़े जानना होता है, जिससे सरकार पूरी आबादी और विभिन्न प्रदेशों के लिए लक्षित योजनाएँ बना सके और देश का संतुलित विकास हो सके। 1981 में जाति जनगणना नहीं हो सकी। 1991 में मंडल कमीशन लागू किए जाने का हड़बोंग था और देश भर में सवर्णों का विरोध-प्रदर्शन चल रहा था। ऐसे में न तो जाति जनगणना के बारे में अभियान चलाना या सोचना संभव था और न ही इस मसले पर कांग्रेस की नरसिंहराव सरकार ने विचार किया। उस समय की प्राथमिकता मंडल कमीशन की सिफ़ारिशों के मुताबिक़ आरक्षण के प्रावधान को लागू कराना प्राथमिकता पर था। 2001 की जनगणना में अटल बिहारी वाजपेयी सरकार आ गई और पूरा समय पाकिस्तान, करगिल, हिंदुत्व और राष्ट्रवाद की चर्चाओं में निकल गया। 2011 की जनगणना के पहले कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के ऊपर जाती जनगणना का दबाव बना और सरकार ने गणना कराई भी। 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार बनी, उसने जाति जनगणना के आँकड़े दबा लिए।
2021 की जनगणना के पहले एनआरसी, सीएए सहित तमाम मसलों पर चर्चा हो रही है, जो सीधे तौर पर जनगणना से जुड़ा है। हर चुनाव के पहले ख़ुद को नीची जाति का होने का दावा करने वाले मोदी 2021 में जाति जनगणना की चर्चा को भी पूरी तरह से दबा चुके हैं।
ऐसे में महाराष्ट्र विधानसभा की ओर से जाति जनगणना कराए जाने का प्रस्ताव पारित कराया जाना अहम है। महाराष्ट्र विधानसभा के अध्यक्ष पटोले ख़ुद कुर्मी जाति के ओबीसी हैं। उन्होंने स्वतः संज्ञान में लेकर जाति जनगणना का प्रस्ताव पेश किया और कहा 2021 की जनगणना में इसे शामिल किया जाना चाहिए, ओबीसी जनसंख्या के आँकड़े ज़रूरी हैं, जिससे उन तक विकास का लाभ पहुँचाया जा सके। राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के नेता और पीडब्ल्यूडी मंत्री छगन भुजबल ने प्रस्ताव का समर्थन किया, जो राज्य में ओबीसी के बड़े चेहरे माने जाते हैं। छगन भुजबल महाराष्ट्र की पिछली बीजेपी सरकार के लगातार निशाने पर रहे और विभिन्न मामलों में उन्हें जेल भी जाना पड़ा था और क़रीब 2 साल तक जेल में रहकर उच्च न्यायालय के आदेश पर रिहा हुए। भुजबल के कार्यकाल में महाराष्ट्र सदन पर 50 करोड़ रुपये के निर्माण का बजट रखा गया था, जिसका बजट बढ़कर 152 करोड़ रुपये हो गया था। इसे भुजबल का भ्रष्टाचार मान लिया गया और जाँच हुई। भुजबल ने मंत्री रहते हुए दिल्ली के महाराष्ट्र सदन में ज्योतिबा फुले, शाहूजी महराज, डॉ. भीमराव आम्बेडकर सहित तमाम बड़े ओबीसी आइकंस की मूर्तियाँ लगवाई थीं।
बीजेपी में गोपीनाथ मुंडे, एकनाथ खडसे और विनोद तावड़े प्रमुख ओबीसी नेता थे, जो बड़े पैमाने पर इस तबक़े का वोट बीजेपी में लेकर आए। इनके अलावा पटोले भी बीजेपी में रहते ओबीसी मसलों को बहुत प्रखरता से उठाते रहते थे। पार्टी ने न सिर्फ़ एक ब्राह्मण नेता देवेंद्र फडणवीस को राज्य का मुख्यमंत्री बनाया, बल्कि ओबीसी नेताओं को पूरी तरह से सत्ता की मलाई से बाहर कर रखा था।
2018 के विधानसभा चुनाव में ओबीसी मतदाताओं का बड़ा तबक़ा विपक्ष की ओर खिसक गया था। अब महाराष्ट्र में ओबीसी मतदाताओं को अपने पाले में खींचने की लड़ाई चल रही है। पटोले ने जब जाति जनगणना का प्रस्ताव रखा तो बीजेपी नेता फडणवीस को तपाक से उसका समर्थन करना पड़ा। राकांपा नेता अजीत पवार ने सिर्फ़ इतना कहा कि प्रस्ताव लाना अध्यक्ष का विशेषाधिकार है, लेकिन पहले इसे बिज़नेस एडवाइज़री कमेटी के विचारार्थ लाया जाना चाहिए था और बजट सत्र में इस पर चर्चा हो सकती थी। सिर्फ़ शिवसेना के ब्राह्मण नेता और संसदीय कार्यमंत्री अनिल परब ने दबाव बनाया कि एडवाइज़री कमेटी द्वारा पारित प्रस्तावों को ही विचारार्थ लाया जाना चाहिए। लेकिन पटोले ने ज़ोरदार तरीक़े से परब को खारिज कर दिया और कहा कि जनगणना की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है और अगर अब कमेटी में इस मसले को लाकर बजट सत्र में प्रस्ताव पेश किया जाता है तो बहुत देर हो जाएगी।
महाराष्ट्र सरकार ने अब गेंद केंद्र के पाले में डाल दी है। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति आदि को दलित व पिछड़ी जाति बताकर वंचित तबक़े का हितैशी होने का दावा करने वाली बीजेपी अब फँसी हुई नज़र आ रही है।
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