गाय पिछले तीन दशकों से भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण भावनात्मक मुद्दा बनी हुई है। गाय को एक पवित्र पशु बताया जाता है। कई हिंदुओं के लिए गाय मां का दर्जा रखती है और हिंदू राष्ट्रवादी राजनीति ने समाज के ध्रुवीकरण के लिए इस आस्था का भरपूर इस्तेमाल किया है। हिंदुत्वादी विचारकों ने ‘हिंदुत्व’ शब्द को मात्र हिंदू धर्म नहीं बल्कि ‘समग्र हिंदुत्वता’ का प्रतिनिधित्व करने वाला शब्द बताया और आरएसएस ने इसी आधार पर अपनी राजनीति और हिंदू राष्ट्र के अपने लक्ष्य को निर्धारित किया। और वह लगभग पिछले 100 सालों से इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए लगातार प्रयासरत है। पिछले तीन दशकों में आरएसएस की राजनीति की जड़ें बहुत मज़बूत हुई हैं क्योंकि उसके द्वारा उठाए जाने वाले भावनात्मक मुद्दे देश के राजनीतिक परिदृश्य पर हावी हैं।
गाय का मुद्दा एक बार फिर सुर्खियों में है। भाजपा के नेतृत्व वाले महाराष्ट्र के सत्ताधारी गठबंधन ने गाय (मगर केवल देसी गाय) को राज्यमाता-गौमाता घोषित किया है। यह पक्के तौर पर कहा जा सकता है कि ऐसा महाराष्ट्र विधानसभा चुनावों के मद्देनजर किया गया है। आम धारणा यह है कि भाजपा इन चुनावों में सशक्त स्थिति में नहीं है। हाल में हुए लोकसभा चुनाव में उसका प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा है और उसके बाद से वह लगातार इस तरह के ध्रुवीकृत करने वाले मुद्दों का सहारा लेने के प्रयास में जुटी हुई है।
संयोग से लगभग इसी समय कर्नाटक के एक मंत्री ने बयान दिया है कि हिन्दू राष्ट्रवादी विचारधारा के पितृ पुरूष सावरकर गौवध के खिलाफ नहीं थे और वे गाय को पवित्र नहीं बल्कि एक अत्यंत उपयोगी पशु मानते थे। गांधी जयंती के अवसर पर बेंगलुरू में आयोजित एक कार्यक्रम में मत्री दिनेश गुंडू राव ने दावा किया कि सावरकर न केवल मांसाहारी थे और बीफ का सेवन करते थे, बल्कि इसका सार्वजनिक प्रचार भी करते थे।
कांग्रेस के मंत्री ने कहा कि सावरकर एक ब्राह्मण होने के बावजूद खानपान की परंपरागत बंदिशों का पालन नहीं करते थे बल्कि उनका नजरिया आधुनिक था। दिनेश गुंडू राव ने कहा, “सावरकर ब्राह्मण थे, लेकिन वे बीफ खाते थे और मासांहारी थे। वे गौवध के विरोधी नहीं थे, बल्कि इस संबंध में उनका नजरिया काफी आधुनिक था।” यह जाना-माना तथ्य है कि सावरकर मांसाहारी थे। दक्षिण अफ्रीका में अपने कार्यों के लिए समर्थन जुटाने के लिए अपनी यात्राओं के दौरान गांधीजी सावरकर से मिलने गए। सावरकर अपना रात्रि का भोजन तैयार कर रहे थे और झींगे तल रहे थे। उन्होंने इन्हें गांधीजी को भी पेश किया, जिन्होंने उनका सेवन करने से इंकार कर दिया क्योंकि वे विशुद्ध शाकाहारी थे।
जहां तक गायों को पवित्र मानने का सवाल है, वैदिक काल में गायों की बलि देने के विवरण वाली बहुत सी लिखित सामग्री उपलब्ध है। स्वामी विवेकानंद ने अपने लेखन में कई जगह जिक्र किया है कि पवित्र अनुष्ठानों के दौरान गाय की बलि चढ़ाई जाती थी और गौमांस का सेवन भी वर्जित नहीं था।
“आपको आश्चर्य होगा यदि मैं आपको बताऊं कि प्राचीनकाल में होने वाले समारोहों में गौमांस का सेवन न करने वाले को अच्छा हिंदू नहीं माना जाता था। कई अवसरों पर बैल की बलि चढ़ाना और उसके मांस का सेवन अनिवार्य होता था।” (विवेकानंद का शेक्सपियर क्लब, पेसाडेना, कैलिफ़ोर्निया, अमेरिका में दिया गया भाषण। “द कम्पलीट वर्क्स ऑफ स्वामी विवेकानंद, खंड 3 कलकत्ताः अद्विता आश्रम, 1997, पृष्ठ 536)।
यह भी ध्यान देने योग्य है कि स्वयं स्वामी विवेकानंद द्वारा स्थापित रामकृष्ण आश्रम द्वारा करवाए गए शोध कार्यों से भी इस बात की पुष्टि होती है। इनमें से एक कहता है-
“वैदिक काल में ब्राह्मणों समेत आर्य मछली, मांस और यहां तक कि गौमांस तक का सेवन करते थे। किसी विशिष्ट अतिथि के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए उसे भोजन में गौमांस परोसा जाता था। हालांकि वैदिक कालीन आर्य गौमांस का सेवन करते थे, लेकिन दूध देने वाली गायों को नहीं काटा जाता था। गाय का एक पर्यायवाची शब्द था अग्नया जिसका अर्थ होता है ‘जिसका वध नहीं किया जाएगा’। लेकिन वह अतिथि गोगना कहलाता था जिसके लिए गाय की हत्या की जाती थी। लेकिन केवल बैलों, बछड़ों और बांझ गायों का वध किया जाता था”। {सी कुन्हन राजा, “वैदिक कल्चर” सतीश कुमार चटर्जी एवं अन्य (संपादक) द्वारा “द कल्चरल हैरिटेज ऑफ इंडिया, खंड 1 (कलकत्ताः रामकृष्ण मिशन, 1993) पृष्ठ 217 में उदृत}
आंबेडकर द्वारा किए गए अध्ययनों से भी इसकी पुष्टि होती है। प्राचीन भारत के इतिहासवेत्ता प्रोफेसर डी. एन. झा, उनके विद्वतापूर्ण अध्ययन, “मिथ ऑफ होली काऊ” में बताते हैं कि “अथो अन्नं विया गऊ (गाय भोजन है) जैसे छंद वेदों में मौजूद हैं। बौद्ध धर्म और ब्राह्मणवाद के बीच हुए टकराव के कारण बाद में गाय को माता और पवित्र का दर्जा दिया गया। यह ब्राह्मणवाद के पुनरूत्थान और बौद्ध धर्म पर किए जाए रहे हमलों का हिस्सा था। उस समय भारत में बौद्ध धर्म का सफाया किया जा रहा था।
बाद में स्वाधीनता संघर्ष के दौरान, जब हिंदू और मुस्लिम साम्प्रदायिक राजनीति ने जोर पकड़ा, तब गाय और सूअर का इस्तेमाल दोनों ताकतों ने अपनी-अपनी स्थिति मजबूत बनाने के लिए किया। मस्जिद में सुअर का मांस या मंदिर में गौमांस फेंकने जैसी हरकतें साम्प्रदायिक हिंसा भड़काने के लिए की जाने लगीं जिनसे इन विभाजक प्रवृत्तियों ने जोर पकड़ा। बाद में ऐसे मामले भी सामने आए जब हिंसा भड़काने के लिए मंदिरों में जानबूझकर गौमांस फेंका गया।
गौहत्या पर प्रतिबंध जैसे मुद्दों के जोर पकड़ने और अखलाक से लेकर जुनैद और रकबर खान तक की हत्या इस मुद्दे पर किए जाने से मुस्लिम समुदाय में भय बढ़ता जा रहा है। इस प्रवृत्ति से अल्पसंख्यक समुदाय को कई मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। मानवतावादी हर्षमंदर ने “कारवां ए मोहब्बत” नामक संगठन बनाया है जो लिंचिंग के शिकार हुए लोगों के परिवारों के जख्मों पर मरहम लगाने का काम करता है। इस तरह के मामलों में निशाने पर सिर्फ मुस्लिम होते हैं।
उत्तर-पूर्वी राज्यों (किरण रिजूजू ने खुद स्वीकार किया है कि वे गौमांस का सेवन करते हैं), केरल और गोवा के निवासी इस तरह के हमलों के शिकार नहीं बन रहे हैं।
महाराष्ट्र सरकार ने बहुत चालाकी से केवल देसी गायों को राजमाता का दर्जा दिया है, अन्य किस्मों की गायों को नहीं। भारत से गौमांस का निर्यात साल दर साल बढ़ता जा रहा है। दिलचस्प बात यह है कि विजय त्रिवेदी की अटल बिहारी वाजपेयी पर केन्द्रित पुस्तक “हार नहीं मानूंगा” में जिक्र है कि वाजपेयी अमेरिका में गौमांस का सेवन कर रहे थे (पृष्ठ 236) और जब इस बारे में उसी मेज पर बैठे एक व्यक्ति ने उनसे सवाल किया तो वाजपेयी ने मुस्कराते हुए कहा कि यह भारतीय गाय का मांस नहीं है इसलिए इसे खाने में क्या दिक्कत है?
(अंग्रेजी से रूपांतरण अमरीश हरदेनिया। लेखक आईआईटी मुंबई में पढ़ाते थे और सन 2007 के नेशनल कम्यूनल हार्मोनी एवार्ड से सम्मानित हैं)
अपनी राय बतायें