"आखेट पर निकले राजा दुष्यंत ने अद्वितीय सुंदरी बनवाला शकुंतला को देख अपनी कामपीड़ित दशा का वर्णन करते हुए कहा कि मेरी दशा तो पवन कंपित कौशेय ध्वज जैसी हो गई है। मेरी देह तो आगे बढ़ रही है किंतु मेरा विवश मन पीछे मुड़ जा रहा है, जैसे चीनी कौशेय का ध्वज वायु में लहरा रहा है।"