जैसा कि कल मैंने अपने लेख में आशंका व्यक्त की थी, सरकार और किसानों के बीच सीधी मुठभेड़ का दौर शुरू हो गया है। आठवें दौर की बातचीत में जो कटुता बढ़ी है, वह दोनों पक्षों के आचरण में भी उतर आई है। करनाल और जालंधर जैसे शहरों से अब किसानों और पुलिस की मुठभेड़ की खबरें आने लगी हैं।
कोई आश्चर्य नहीं कि दिल्ली के बॉर्डर्स पर डटे हुए किसान संगठनों का भी धैर्य अब टूट जाए और वे भी तोड़-फोड़ पर उतारु हो जाएं। यह अच्छा ही हुआ कि हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर ने करनाल के एक गांव में आयोजित किसानों की महापंचायत के जलसे को स्थगित कर दिया। यदि वे जलसा करने पर अड़े रहते तो निश्चय ही पुलिस को गोलियां चलानी पड़तीं, किसान संगठन भी परस्पर विरोधियों पर हमला करते और भयंकर रक्तपात होता।
किसान संगठनों की उग्रता
किसान संगठनों ने भी कोई कमी नहीं रखी। उन्होंने सभा-स्थल पर लगाए गए बेरिकेड तोड़ दिए, मंच को तहस-नहस कर दिया और जिस हेलीपेड पर मुख्यमंत्री का हेलिकाॅप्टर उतरना था, उसे ध्वस्त कर दिया। किसान नेता इस बात पर अपना सीना ज़रूर फुला सकते हैं कि उन्होंने मुख्यमंत्री को मार भगाया लेकिन वे यह क्यों नहीं समझते कि सरकार के पास उनसे कहीं ज्यादा ताकत है। यदि खट्टर की जगह कोई और मुख्यमंत्री होता तो पता नहीं आज हरियाणा का क्या हाल होता?
यदि किसान नेता अपने धरनों और वार्ता के जरिए अपना पक्ष पेश कर रहे हैं तो उन्हें चाहिए कि वे सरकार को भी अपना पक्ष पेश करने दें। लोकतंत्र में पक्ष और विपक्ष को अपनी बात कहने की समान छूट होनी चाहिए।
यह स्वाभाविक है कि कड़ाके की ठंड, आए दिन होने वाली मौतों और आत्महत्याओं के कारण किसानों की बेचैनी बढ़ रही है लेकिन बातचीत के जरिए ही रास्ता निकालना ठीक है। यह समझ में नहीं आता कि सरकार भी क्यों अड़ी हुई है? रास्ता निकलने तक वह कानून को स्थगित क्यों नहीं कर देती या राज्यों को उसे लागू करने की छूट क्यों नहीं दे देती?
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