कर्नाटक की कांग्रेस सरकार ने सरकारी ठेकों में मुसलमानों को चार फ़ीसदी आरक्षण देने का फ़ैसला किया है जिस पर बीजेपी आगबबूला है। राज्यसभा में नेता सदन और बीजेपी के अध्यक्ष जे.पी.नड्डा और संसदीय कार्यमंत्री किरन रिजीजू ने कर्नाटक के उपमुख्यमंत्री डी.के.शिवकुमार के एक बयान के आधार पर दावा किया कि उन्होंने मुस्लिमों को आरक्षण देने के लिए संविधान बदलने की बात कही है। उधर, डी.के. शिवकुमार ने इसे सरासर झूठ बताया और क़ानूनी कार्रवाई की चेतावनी दी है। राज्यसभा में कांग्रेस के मुख्य सचेतक जयराम रमेश ने जे.पी. नड्डा और किरेन रिजिजू पर झूठ बोलने का आरोप लगाते हुए विशेषाधिकार का नोटिस भी दिया है।
तो फिर कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण का सच क्या है? दरअसल, भारत का संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाज़त नहीं देता लेकिन सामाजिक और शैक्षणिक लिहाज़ से पिछड़े वर्ग में आने वाली मुस्लिम जातियों को आरक्षण मिलता है जैसा कि मंडल कमीशन ने सिफ़ारिश की थी और जिस पर संसद और सुप्रीम कोर्ट ने मुहर लगायी थी। इसके अलावा आर्थिक आधार पर मिलने वाले आरक्षण का लाभ भी ग़रीब मुस्लिमों को मिल सकता है।
कर्नाटक में मुस्लिम आरक्षण का इतिहास काफ़ी पुराना है। पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौड़ा जब कर्नाटक के मुख्यमंत्री थे तो 1994 में उन्होंने चिनप्पा रेड्डी आयोग की सिफारिशों के आधार पर ओबीसी कोटे में मुस्लिमों के लिए 4% आरक्षण शुरू किया था। शैक्षिक संस्थानों और नौकरियों में यह आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं, बल्कि सामाजिक और शैक्षिक पिछड़ेपन के आधार पर दिया गया था। देवगौड़ा की पार्टी यानी जनता दल सेक्युलर इस समय बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन में शामिल है।
दिलचस्प बात ये है कि मुस्लिम आरक्षण पर आज हल्ला मचाने वाली बीजेपी की तमाम सरकारों ने भी इस आरक्षण को जारी रखा। बीजेपी नेता बी.एस. येदियुरप्पा चार बार कर्नाटक के मुख्यमंत्री बने, लेकिन उन्होंने ओबीसी कोटे में मुस्लिमों के लिए चार फ़ीसदी आरक्षण की इस व्यवस्था को ख़त्म नहीं किया। उनका तर्क था कि यह सामाजिक समरसता और विकास के लिए ज़रूरी है।
आख़िर बीजेपी सरकार को अचानक यह ख़्याल क्यों आया?
दरअसल, 2023 का विधानसभा चुनाव जीतने के लिए बीजेपी ने कर्नाटक में ज़बरदस्त सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कराया था। इस चुनाव में प्रधानमंत्री मोदी ने ‘जय बजरंगबली’ का नारा दिया था। उन्होंने ‘बजरंग दल’ को बजरंगबली से जोड़ते हुए कहा था कि कर्नाटक की जनता बजरंग दल पर सवाल उठाने वालों को दंडित करे। दरअसल, कांग्रेस ने कहा था कि सत्ता में आने पर वह बजरंग दल समेत उन सभी संगठनों पर कार्रवाई करेगी जो सांप्रदायिक उन्माद फैलाते हैं। बहरहाल, जनता ने बीजेपी और पीएम मोदी की तमाम कोशिशों पर पानी फेरते हुए कांग्रेस को भारी बहुमत से विजयी बना दिया।
कर्नाटक में ओबीसी कोटे के तहत मुस्लिमों को चार फ़ीसदी आरक्षण देने की नीति रद्द करने के बोम्मई सरकार के फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गयी थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसे ‘प्रथमदृष्ट्या त्रुटिपूर्ण’ भी कहा था लेकिन फ़ैसले को रद्द नहीं किया था। यह मामला अभी भी लंबित है।
मई 2023 में कर्नाटक में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद यह मुद्दा फिर उठा लेकिन सुप्रीम कोर्ट में मामला होने की वजह से तत्काल कोई फ़ैसला नहीं किया गया। मार्च 2025 में कांग्रेस की सिद्धारमैया सरकार ने कर्नाटक ट्रांसपेरेंसी इन पब्लिक प्रोक्योरमेंट्स यानी केटीपीपी एक्ट में संशोधन के ज़रिए 2 करोड़ तक के सिविल कार्य और 1 करोड़ तक के सेवा कार्य से जुड़े सराकरी ठेकों में मुस्लिमों के लिए 4% आरक्षण का प्रस्ताव पेश किया। यह बिल 21 मार्च 2025 को कर्नाटक विधानसभा में पास हुआ। इसे ओबीसी की श्रेणी 2बी के तहत लागू करने की बात कही गयी जिसके तहत कर्नाटक के सभी मुसलमानों को ओबीसी श्रेणी में डाला गया है।
कांग्रेस का कहना है कि यह आरक्षण धर्म के आधार पर नहीं दिया गया है। यह सामाजिक न्याय का हिस्सा है और मंडल आयोग की भावना के अनुरूप है। वहीं बीजेपी इसे तुष्टीकरण बता रही है। उसका यह भी दावा है कि इससे अन्य पिछड़ा वर्ग का हक़ मारा जा रहा है। यानी ये चार फ़ीसदी आरक्षण उनके 27 फ़ीसदी आरक्षण से छीन कर दिया जाएगा। बीजेपी का यह भी आरोप है कि इसके लिए कांग्रेस संविधान बदलना चाहती है।
बीजेपी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, सांसद तेजस्वी सूर्या और कर्नाटक बीजेपी अध्यक्ष बी.वाई. विजयेंद्र ने इसे संविधान के ख़िलाफ़ बताते हुए याद दिलाया है कि संविधान धर्म के आधार पर आरक्षण की इजाज़त नहीं देता।
लेकिन इस विवाद के कई और पहलू हैं। मसलन, सुप्रीम कोर्ट ने 1992 में इंदिरा साहनी बनाम केंद्र सरकार केस में फ़ैसला दिया था कि कोई सामाजिक समूह पिछड़ा है तो पिछड़ा वर्ग माना जाएगा। इसके लिए धार्मिक पहचान से कोई मतलब नहीं है। सच ये भी है कि केंद्र और राज्य स्तर पर 36 मुस्लिम जातियों को ओबीसी के तहत आरक्षण मिलता है। उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार तक तमाम बीजेपी शासित राज्यों में भी पिछड़ा वर्ग में शामिल मुसलमानों को आरक्षण दिया जाता है।
दरअसल, बीजेपी की ओर से इस मुद्दे को तूल दिये जाने के पीछे राहुल गाँधी हैं जो लगातार जाति जनगणना का सवाल उठा रहे हैं। उनका ख़ास ज़ोर ओबीसी पर है। राहुल के मुताबिक़ ओबीसी की आबादी देश की कुल जनसंख्या में आधे से अधिक है लेकिन शासन और प्रशासन में उसकी भागीदारी बेहद कम है। इसलिए जाति जनगणना करायी जाए और जितनी आबादी-उतना हक़ का सिद्धांत अपनाकर नई आरक्षण नीति बनायी जाए।
राहुल गाँधी यह सब सिर्फ़ बोल नहीं रहे हैं। वे घूम-घूमकर संविधान सम्मेलनों के ज़रिए इस माँग को प्रमुख मुद्दा बनाने में जुटे हैं। राहुल गाँधी का यह रुख़ बीजेपी के लिए किसी दुःस्वप्न की तरह है जो बहुसंख्यक हिंदुओं को धर्म के नाम पर एक अपराजेय वोट बैंक में बदलना चाहती है। जाति जनगणना से आर्थिक और सामाजिक विभाजन की असल तस्वीर सामने आ सकती है। यह बात साफ़ हो जाएगी कि कम आबादी होने के बावजूद संसाधनों के बड़े हिस्से पर सवर्ण जातियों का क़ब्ज़ा है। बिहार की जाति जनगणना से यह बात साफ़ भी हो चुकी है। जाति जनगणना के बाद आरक्षण की सीमा बढ़ाने और ख़ाली पदों पर भर्ती करने की माँग तेज़ हो सकती है।
बीजेपी को डर है कि आर्थिक और सामाजिक मुद्दों के प्रबल होते ही हिंदुत्व का तापमान कमज़ोर पड़ सकता है जो उसकी असल ताक़त है। इसलिए बीजेपी पूरे मसले को सांप्रदायिक रंग देने में जुटी है। वह ओबीसी जातियों को बता रही है कि मुस्लिमों को आरक्षण देना दरअसल, उनका हक़ मारना है। यानी कांग्रेस जाति जनगणना के तहत ओबीसी जातियों को अपने पक्ष में लाना चाहती है तो बीजेपी उन्हें सांप्रदायिक आधार पर अपने पाले में लाना चाहती है।
राजनीतिक लाभ के लिए बीजेपी हिंदुत्ववादी सांप्रादियक तापमान बनाये रखने के लिए लगातार मुस्लिम विरोधी प्रचार चलाती है। मौलाना आज़ाद फ़ेलोशिप और प्री मैट्रिक छात्रवृत्ति जैसी अल्पंख्यक केंद्रित कार्यक्रमों का मोदी सरकार द्वारा बंद किया जाना उसके अल्पसंख्यक विरोधी चरित्र की बानगी है।
जो भी हो, इसमें शक़ नहीं कि अल्पसंख्यकों की हित रक्षा लोकतंत्र ही नहीं, सभ्यता की भी कसौटी है। भारत में मुस्लिम आबादी तक़रीबन 15 फ़ीसदी है। 2006 में जस्टिस सच्चर कमीशन ने कहा था कि भारत के अल्पसंख्यकों की हालत अनुसूचित जातियों से भी ख़राब है। अगर किसी शरीर का 15 फ़ीसदी हिस्सा कमज़ोर रह जाये तो फिर उसे स्वस्थ कैसे कहा जा सकता है। इसलिए अल्पसंख्यकों की सामाजिक आर्थिक हालत को बेहतर बनाने का उपाय राजनीति का नहीं, राष्ट्र निर्माण का विषय है।
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