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गांधी को जिन्ना, सावरकर नहीं समझ पाए तो कंगना कैसे समझ पाएँगी!

कंगना बहन यह सिर्फ़ आपकी मुश्किल नहीं है। गांधी को लोग देर से समझते हैं। दरअसल, हड्डी के ढाँचे जैसी काया में नज़र आने वाला यह शख्स जितना बाहर से सहज और सरल दिखता है, भीतर से उतना ही कठोर है। उन्हें समझने में अंग्रेजोंं को भी वक़्त लगा था। 

जिन्ना वगैरह के तो बस की बात ही नहीं थी गांधी को समझना। खुद सावरकर भी कहां ठीक से समझ पाए थे गांधी को।

जिन्ना और सावरकर ने गांधी को ठीक से नहीं समझा तो उसकी वजहें साफ़ थीं। उसके पीछे उनकी अपनी वैचारिक सोच और दीर्घकालीन राजनीति थी। 

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आप सोचिए यदि गांधी सहज-सरल और आम इन्सान होते तो 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली को छोड़कर वह उस दिन देश की राजधानी से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर कलकत्ता में नहीं होते, जहां हिंदू-मुसलिम दंगे भड़के हुए थे।

सच तो यह है कि पूरे देश ने गांधी को कहां ठीक से समझा है। फिर भी, यह साफ़ रहे कि गांधी ईश्वर नहीं थे, हाड़ मांस के व्यक्ति थे। उन्होंने खुद को महात्मा या राष्ट्रपिता नहीं कहा था। हां, वह एक राजनीतिक व्यक्ति थे और उनकी राजनीति अंतिम व्यक्ति की राजनीति थी। उनकी राजनीति की परिभाषा अलग थी। इसमें जाति या धर्म या वर्ग या क्षेत्र का भेद नहीं था। बेशक, उनमें कई खामियाँ थीं। तो बताइए किस व्यक्ति में खामियाँ नहीं होतीं।

लेकिन इस देश को लेकर उनकी दृष्टि एकदम स्पष्ट थी। इसे समझने में भी कई लोगों ने भूल की। मुझे पता नहीं कि आप जेपी या जयप्रकाश नारायण को कितना जानती हैं, मगर गांधी को समझने में उनसे भी चूक हुई थी। यह मैं नहीं कह रहा हं, खुद जेपी ने इसके बारे में लिखा है। 

आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि 1942 में जब गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का नेतृत्व किया था, जेपी उसके नायक थे। लेकिन स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जेपी नेहरू की सरकार में शामिल नहीं हुए। जबकि नेहरू से उनके बहुच अच्छे रिश्ते थे।

वह सरकार में शामिल क्यों नहीं हुए? क्योंकि उन्हें लगता था कि 15 अगस्त, 1947 को जो आज़ादी मिली वह अधूरी थी। लेकिन उसे उन्होंने 'झूठी आज़ादी' या 'भीख में मिली आज़ादी' नहीं कहा था। वह ऐसा कह भी नहीं सकते थे, क्योंकि खुद उन्होंने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी और जेल भी गए थे। और हां, जेल से रिहाई के लिए उन्होंने माफी भी नहीं मांगी थी।

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मगर गांधी को लेकर उनके मन में कुछ सवाल थे। इसकी वजह यह थी कि वह गांधी को उनके जीते जी ठीक से नहीं समझ सके थे। जेपी को इसका एहसास गांधी की मौत के नौ साल बाद हुआ था। 

जेपी ने 1957 में जब दलगत और सत्ता की राजनीति से अलग होने का फ़ैसला किया तब उन्हें यह एहसास हुआ था। उसी दौरान उन्होंने अपने समाजवादी साथियों के नाम एक खुला पत्र जारी करते हुए लिखा था, 'क्या राजनीति का कोई विकल्प है? ...हां विकल्प है। गांधी ने हमें यह विकल्प दिया था। लेकिन मैं स्वीकार करता हूँ कि तब मुझे यह स्पष्ट रूप से समझ में नहीं आया था। गांधी जी ने हमें स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान सशस्त्र संघर्ष के विकल्प के रूप में अहिंसा का रास्ता दिखाया था।'

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जैसा कि मैंने शुरुआत में लिखा कि जिन्ना और सावरकर की अपनी दीर्घकालीन राजनीति थी। गांधी के लिए राजनीति का कुछ और अर्थ था। जैसा कि जेपी ने इसे बाद में समझा और लिखा, 'भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन एक शानदार जनांदोलन था। यह 'राजनीति' (राज्य की राजनीति) नहीं थी, बल्कि लोकनीति (लोगों की राजनीति) थी।' 

जाहिर है, गांधी के लिए स्वतंत्रता का दायरा व्यापक था और वह उसे लोकनीति का हिस्सा मानते थे। जो लोग आज़ादी को झूठा कहते हैं, वह सिर्फ़ गांधी को ठीक से नहीं समझते, बल्कि इस देश के लोगों को भी, जिनसे यह देश बना है।

(सुदीप ठाकुर की फेसबुक वाल से)

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सुदीप ठाकुर
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