मैंने प्रवासी मज़दूरों से संबंधित जनहित याचिका में सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बारे में जस्टिस मदन लोकुर, पूर्व न्यायाधीश, सुप्रीम कोर्ट और जस्टिस एपी शाह, पूर्व चीफ़ जस्टिस, दिल्ली और मद्रास उच्च न्यायालय के करण थापर के साथ साक्षात्कार देखे।
इन दोनों न्यायाधीशों के विचारों से पूरे सम्मान के साथ असहमत होते हुए मैं कहना चाहता हूँ कि वे बेतुकी बात कर रहे हैं। इसलिए मैं इस मामले में अपना दृष्टिकोण दे रहा हूँ। सबसे पहले मैं यह बता दूँ कि मैं भी उन लाखों प्रवासियों और मज़दूरों की दुर्दशा से बहुत व्यथित हूँ, जिन्होंने देशव्यापी लॉकडाउन के कारण अपनी आजीविका खो दी है और अपने परिवारों के साथ भुखमरी की कगार पर खड़े हैं।
दूसरा, यह सच है कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत इन लोगों के जीवन के मौलिक अधिकार को ख़तरे में डाल दिया गया है। लेकिन जब जस्टिस लोकुर कहते हैं कि ‘सुप्रीम कोर्ट अपनी संवैधानिक भूमिका को पूरा नहीं कर रहा है’ और ‘उसने प्रवासी मज़दूरों और कामगारों को निराश कर दिया है’, तो मैं यह पूछना चाहूँगा कि सुप्रीम कोर्ट इस स्थिति में क्या कर सकता है?
यह ध्यान में रखा जाना चाहिए कि सर्वोच्च न्यायालय जनता की सभी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकता है। इसमें कोई संदेह नहीं है, संविधान के भाग 3 में जनता के मौलिक अधिकारों का उल्लेख है लेकिन ग़रीबी सभी अधिकारों का विनाश करने वाली है और हमारी जनसंख्या का एक बड़ा प्रतिशत ग़रीब है। इसलिए इस लॉकडाउन से पहले भी, हमारे लोगों का एक बड़ा हिस्सा मौलिक अधिकारों से वंचित था। लॉकडाउन ने केवल इस स्थिति को और बिगाड़ दिया है।
न्यायमूर्ति लोकुर का कहना है कि ‘अगर किसी व्यक्ति का कोई मौलिक अधिकार है, तो उसे अवश्य लागू किया जाना चाहिए’। यह कहने में बहुत अच्छा है, लेकिन वास्तव में, शायद ही यथार्थवादी है। भारत की सामाजिक-आर्थिक समस्याएँ इतनी बड़ी हैं कि उन्हें इस व्यवस्था के भीतर हल नहीं किया जा सकता है। उदाहरण के लिए, संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन के अधिकार में परोक्षरूप से रोज़गार का अधिकार भी शामिल है (बिना नौकरी के कैसे किसी को भोजन खरीदने के लिए पैसा मिल सकता है), लेकिन देश में रिकॉर्ड बेरोज़गारी है (यह अनुमान है कि 1.2 करोड़ युवा भारत में हर साल नौकरी के बाज़ार में प्रवेश कर रहे हैं, लेकिन नौकरियाँ कम होती जा रही हैं)।
संविधान में मौलिक अधिकारों में से कई केवल कागज पर और सैद्धांतिक रूप में मौजूद हैं लेकिन सर्वोच्च न्यायालय उन्हें व्यावहारिक तौर पर लागू नहीं कर सकता। ऐसा करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास कोई अलादीन का चिराग नहीं है।
क्या सुप्रीम कोर्ट देश में सभी लोगों को नौकरी दे सकता है? सर्वोच्च न्यायालय सरकार को ऐसा करने के लिए निर्देश दे सकता है लेकिन यह निर्देश लागू नहीं किया जा सकेगा।
न्यायमूर्ति एपी शाह ने कहा कि उन्हें सर्वोच्च न्यायालय से निराशा हुई क्योंकि ‘सर्वोच्च न्यायालय ने प्रासंगिक सवाल नहीं पूछे हैं, और मौलिक अधिकारों के मुद्दे को छोड़ दिया। सर्वोच्च अदालत इस मुद्दे को हल करने में सक्षम था’। उन्होंने कहा कि सर्वोच्च न्यायालय को सरकार को दैनिक वेतनभोगियों और प्रवासी मज़दूरों को लॉकडाउन की अवधि के लिए न्यूनतम मज़दूरी का भुगतान करने तथा उनके और उनके परिवारों के स्वास्थ्य और कल्याण के लिए आदेश देना चाहिए था।’ यह एक पूरी तरह से वास्तविकता से परे विचार है। सबसे पहले, हम नहीं जानते कि इस तरह के आदेश के पालन के लिए कितनी वित्तीय आवश्यकता होगी। दूसरे, इस योजना के लिए आवंटित अधिकांश पैसा ज़रूरतमंदों तक नहीं पहुँचेगा लेकिन काफ़ी हद तक हमारी भ्रष्ट नौकरशाही द्वारा निगल लिया जाएगा। जिसे भारत की वास्तविकताओं का थोड़ा भी ज्ञान है वो यह बात जानता है (पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गाँधी ने कहा था कि सरकार की योजना में आवंटित एक रुपये में से केवल 10 पैसा ही ग़रीबों और ज़रूरतमंदों तक पहुँचता है)।
इसलिए मेरी राय में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा पारित किया जा सकने वाला एकमात्र सही आदेश था कि सरकार इस मामले में मज़दूरों और ज़रूरतमंदों की मदद करे जैसा कि सर्वोच्च न्यायालय ने किया भी।
मैंने कुछ समय पहले इस मुद्दे पर पत्रकार करण थापर से फ़ोन पर बात की थी। वह मेरे विचार से असहमत थे और उनका दिल ग़रीबों और पीड़ितों के लिए ख़ूब धड़क रहा था। मुझे नहीं लगता कि मेरे पास एक पत्थर दिल है लेकिन मुझे लगता है कि जस्टिस लोकुर, जस्टिस शाह और करण थापर निरर्थक बात कर रहे हैं।
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