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इंदिरा गांधी और जयप्रकाश नारायण

बांग्लादेश के मुद्दे पर इंदिरा के साथ खड़े थे जेपी

अंग्रेजी कैलेंडर के लिहाज से 11 अक्तूबर को जयप्रकाश नारायण की जयंती पड़ती है। ग्लैमर और पॉवर में फंसा और लोकतंत्र को विस्मृत कर चुका मीडिया शायद जेपी को भूल चुका है। भारतीय पंचाग के हिसाब से जेपी का जन्म दशहरे के दिन हुआ था। इसलिए उनके चाहने वाले उसे दशहरे के दिन भी मनाते हैं। चूंकि जेपी में तालमेल और समन्वय की गुंजाइश थी इसलिए तिथियों को लेकर न तो जेपी को कोई विवाद होता था और न ही उनके चाहने वालों को होना चाहिए। समन्वय के इसी सवाल पर जेपी को बहुत कोसा जाता है कि उन्होंने न सिर्फ दक्षिणपंथी विपक्षी दलों से तालमेल किया बल्कि फासीवादी संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भी तालमेल किया और देश की लोकतांत्रिक राजनीति में उन्हें केंद्रीय भूमिका सौंप दी।
लेकिन ऐसा सोचने वाले यह भूल जाते हैं कि 1974 से 1977 तक इंदिरा गांधी की सरकार से जबरदस्त टकराव लेने वाले जेपी वास्तव में उससे पहले (1966-1974 तक) इंदिरा गांधी और उनकी सरकार से आवश्यक मुद्दों पर पूरा सहयोग करते थे और निजी तौर पर उनसे समानुभूति भी रखते थे। सवाल चाहे कश्मीर का हो, नगालैंड का हो या फिर बांग्लादेश का हो जेपी राष्ट्रीय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ऐसी भूमिका का निर्वाह करते थे जिससे दुनिया में देश का माथा ऊंचा उठे और केंद्र सरकार को राष्ट्रीय हितों की रक्षा में सुविधा भी हो। 
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आज जब बांग्लादेश एक किस्म के संक्रमण से गुजर रहा है और वहां छात्रों के आंदोलन के साथ अनुदार विपक्षी दलों ने भी प्रधानमंत्री शेख हसीना को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया, तब इस बात का स्मरण दिलाना जरूरी है कि बांग्लादेश के उदय के लोकतांत्रिक आंदोलन में जेपी ने किस प्रकार की भूमिका निभाई थी। बात सन 1970 की है जब शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग ने पाकिस्तान का चुनाव जीत लिया था और संवैधानिक रूप से उन्हें बांग्लादेश का प्रधानमंत्री नियुक्त किया जाना था। लेकिन पाकिस्तान के सैनिक जुंता के नेता जनरल अयूब खान ने उन्हें सत्ता सौंपने से इंकार कर दिया। उसके बाद उन्होंने सात मार्च का मशहूर भाषण दिया और बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम का एलान किया। जिसके जवाब में पाकिस्तान की सरकार ने आपरेशन सर्चलाइट चलाया और नागरिकों का दमन किया और मुजीब को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान की जेल में डाल दिया गया। 
बांग्लादेश के संकट के समय इंदिरा गांधी ने जेपी से सहयोग मांगा और जेपी ने खुले तौर पर भारत सरकार की मदद की। उनकी मदद का एक आयाम बांग्लादेश में लोकतंत्र कायम करना था तो दूसरा आयाम अपने देश की सुरक्षा से जुड़ा था। जेपी ने इस मामले में विश्व जनमत को बदलने और भारत के अनुकूल करने में कड़ी मेहनत की। सरकार ने उन्होंने विशेष दूत बनाकर पूरी दुनिया में भारत का पक्ष रखने को भेजा और उन्होंने इस काम को बखूबी निभाया।
सन 1971 की गर्मियों में जेपी ने छह हफ्तों में सोलह देशों का दौरा किया। जेपी सोवियत संघ गए और उन्होंने वहां के विदेश मंत्री एन.पी. फिरूबिन से लंबी बात की। जेपी ने उन्हें समझाया कि भारत और सोवियत संघ की मैत्री कितनी महत्त्वपूर्ण है और इस मामले में पूर्वी पाकिस्तान के नागरिकों का पक्ष कितना वाजिब है। जेपी के साथ सोवियत संघ ने पूरी सहमति जताई और कहा कि वह इस मुद्दे पर भारत का साथ देगा। बांग्लादेश की मांग के साथ जुड़ा हुआ था उर्दू के मुकाबले बांग्ला भाषा का दमन और पाकिस्तान के पश्चिमी हिस्से द्वारा अपने पूर्वी हिस्से के साथ आर्थिक और राजनीतिक भेदभाव। 
हालांकि सोवियत संघ चाहता था कि पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच के विवाद का राजनीतिक हल निकाला जाए लेकिन जेपी ने फिरूबिन को समझाया कि पाकिस्तान कोई बात सुनने को तैयार नहीं है। दूसरी ओर शरणार्थी समस्या से भारत परेशान है। इसलिए इस मसले का एक ही हल है और वह बांग्लादेश का निर्माण। जेपी के इस अभियान का भारत के मीडिया में व्यापक कवरेज हो रहा था।
मास्को के बाद जेपी लंदन गए और उन्होंने वहां भारतीय नजरिए से पूर्वी पाकिस्तान के लोगों का पक्ष रखा। उससे पहले वे रोम और हेलिंसिकी भी गए। रोम में उन्होंने पोप से मुलाकात की और हेलिंसकी में उन्होंने सोशलिस्ट इंटरनेशनल को इस मुद्दे की गंभीरता और उसके मानवीय पक्ष से अवगत कराया। लंदन में उन्होंने फारेन एंड कामनवेल्थ आफिस में चीन और दक्षिण एशिया के प्रतिनिधियों से भी बात की और उन्हें समझाया कि पूर्वी पाकिस्तान में पश्चिमी पाकिस्तान के दमन के साथ छापामार लड़ाई और माओवादी युद्ध का खतरा पैदा हो गया है। इसलिए इस मामले में एक मानवीय नजरिया अपनाना जरूरी है। वह नजरिया बांग्लादेश का गठन ही हो सकता है। अगर इस मामले का हल नहीं किया गया तो स्थिति वियतनाम जैसी हो सकती है।
लंदन से वे वाशिंगटन गए। यह बात सर्वविदित थी कि अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन भारत के विरोध में थे और पाकिस्तान को हथियारों के साथ और आर्थिक मदद दे रहे थे। ऐसे में अमेरिका में भारत के नजरिए से पूर्वी पाकिस्तान के लोगों के संघर्ष को रखना आसान नहीं था। जेपी ने इस माहौल में वहां पर अपना राजनयिक अभियान चलाया। इसके बारे में अमेरिका में उस समय नियुक्त और पूर्व विदेश सचिव एम.के. रसगोत्रा ने जेपी को लिखा कि उनके जाने के बाद अमेरिका का दोहरा चरित्र उजागर हो गया है। जेपी के प्रयासों का प्रभाव यह रहा कि अमेरिकी कांग्रेस ने राष्ट्रपति निक्सन के विरुद्ध बांग्लादेश के मुद्दे के साथ सहानुभूति जताई और अमेरिकी प्रतिनिधि सभा ने पाकिस्तान दिए जाने वाले हथियारों पर रोक लगाने की बात की।
जेपी ने इस मामले पर इंदिरा गांधी को पत्र लिखकर बताया कि हमें बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम की जो मदद करनी है वह जल्दी करनी है। क्योंकि सीमा सुरक्षा बल के भीतर भ्रष्टाचार है। वह पाकिस्तानी सेना से रिश्वत लेकर दमनकारियों का समर्थन कर रहा है। लेकिन उन्होंने इंदिरा गांधी को यह भी चेताया कि अगर हमने बिग ब्रदर का रवैया अपनाया तो वियतनाम जैसी स्थिति हो सकती है। जेपी ने इंदिरा गांधी को यह भी बताया कि उनके पास सारी सूचनाएं होनी चाहिए। इस मामले की कमान उन्हें ही अपने हाथ में लेनी चाहिए। इस दौरान जेपी बांग्लादेश के नेताओं के संपर्क में भी थे।
जेपी इतने पर ही नहीं रुके बल्कि 18-20 सितंबर 1971 के बीच उन्होंने दिल्ली में पूर्वी पाकिस्तान के मुद्दे पर एक अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में विदेश मंत्रालय का सहयोग था। सम्मेलन में 24 देशों के 60 प्रतिनिधि आमंत्रित किए गए। इसमें ब्रिटिश सांसद, श्रीलंका के पूर्व मुख्य न्यायाधीश और इंडोनेशिया और मिश्र के प्रतिनिधि भी थे। सम्मेलन में जो प्रस्ताव पास किया गया उसने एक ओर विश्व जनमत का निर्माण किया और भारत सरकार की कार्रवाई की दिशा तय कर दी। प्रस्ताव में कहा गयाः---
दुनिया को बांग्लादेश को एक संप्रभु राष्ट्र के रूप में मान्यता देनी चाहिए। साढ़े सात करोड़ लोगों का दुख दूर होना चाहिए। भारत को शरणार्थी समस्या से मुक्ति मिलनी चाहिए। पाकिस्तानी सरकार का चरित्र सैन्यवादी, धर्मतंत्रीय, असहिष्णु है। अब यह मामला पाकिस्तान का आंतरिक मामला नहीं रहा है।

1971 के आखिर में जब युद्ध और सैन्य कार्रवाई के बाद बांग्लादेश के गठन हुआ और 1972 में शिमला समझौता हुआ तो जेपी ने जुल्फिकार अली भुट्टो के साथ बनी सहमति को महत्त्वपूर्ण बताया लेकिन इसी के साथ यह भी कहा कि बांग्लादेश में रह रहे बिहारी मुसलमानों के साथ बहुत भेदभाव होता रहता है। इस मामले का हल निकाला जाना चाहिए। बाद में इस मामले को बांग्लादेश के अन्य बौद्धिकों ने भी उठाया। लेकिन वह मामला आज भी समाधान का इंतजार कर रहा है।
बताते हैं कि बांग्लादेश के गठन के बाद जब शेख मुजीबुर्रहमान भारत आए तो वे दिल्ली से पटना होते हुए ढाका जाना चाहते थे। उन्हें बांग्लादेश के गठन में जेपी की भूमिका मालूम थी और वे उन्हें शुक्रिया अदा करना चाहते थे। लेकिन इंदिरा गांधी ने मुजीब को सीधे ढाका जाने की सलाह दी।

जेपी और इंदिरा गांधी केबीच सहयोग के प्रयास उस समय भी हुए जब जेपी को किडनी की बीमारी हुई। उनकी डायलसिसकी मशीन खरीदने के लिए इंदिरा गांधी ने प्रधानमंत्री राहत कोष से 90,000 रुपए का अनुदान दिया। जेपी ने आरंभ में उस धन को स्वीकार किया। लेकिन तब तक जेपी केसाथियों ने तीन लाख रुपए इकट्ठा कर लिए थे और जेपी ने इंदिरा गांधी को सधन्यवाद वहराशि वापस की। लेकिन उन्होंने साथ में यह भी कहा कि इसे किसी तरह की धृष्टता नसमझा जाए। इसे प्रधानमंत्री कोष से किसी और जरूरतमंद के लिए सहयोग किया जाए।
इसलिए जेपी और इंदिरा गांधी के संबंधों का मूल्यांकन महज तीन साल के तीखे टकराव के आधार पर किया जाना उचित नहीं है। यह बात समाजवादी नेता एनजी गोरे ने लिखा है कि जेपी पटना के कदम कुआं में जब आपातकाल में स्वास्थ्य लाभ कर रहे थे तो उनके पास ही पंडित जवाहर लाल नेहरू का चित्र रखा था। 14 नवंबर को उन्होंने उसी प्रकार उन्हें श्रद्धांजलि दी जिस प्रकार इंदिरा गांधी ने शांति वन जाकर दिया।
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वास्तव में जेपी एक आदर्श लोकतंत्र कायम करना चाहते थे। जिसमें जनप्रतिनिधियों पर जनता का नियंत्रण हो। जिसमें भ्रष्टाचार न हो और एक समतामूलक समाज निर्मित हो। वे विपक्षी दलों से अलग युवाओं के माध्यम से जनता को शक्ति देने और जनता सरकार गठित करने का भी प्रयोग कर रहे थे। संयोग से उस आंदोलन में सर्व सेवा संघ के साथ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के लोग भी जुड़े थे। लेकिन आज राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के किसी शिविर में कहीं जेपी के लोकतंत्र और संपूर्ण क्रांति का कोई अनुगूंज भी नहीं सुनाई पड़ती। भाजपा तो आपातकाल के विरोध का ढोंग करती है। संघ के शिविरों में या तो कहीं हिंदू खतरे में बताया जाता है या फिर अल्पसंख्यकों की बढ़ती आबादी पर चिंता जताई जाती है। आज जेपी यानी उनके विचारों का वास्तविक टकराव तो पूंजीवाद से है। बहुसंख्यकवाद से है और हर उस राजनेता से है जो अपनी जनता से निरंतर झूठ बोलता है। 
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अरुण कुमार त्रिपाठी
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