सैयद अली शाह गिलानी 1947 के बाद से कश्मीर के अकेले ऐसे नेता रहे थे जिन पर दिल्ली का एजेंट होने का आरोप कभी नहीं लग पाया। वे ताउम्र पाकिस्तानपरस्त के तौर पर ही जाने गए। गिलानी न होते तो कश्मीरी अलगाववादी आंदोलन भी शायद इतना लंबा न चल पाता। उनके न रहने के बाद यह देखना रोचक होगा कि कश्मीर में अलगाववादी राजनीति क्या करवट लेगी?
गिलानी के बाद कश्मीर में क्या होगा?
- विचार
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- 3 Sep, 2021

सबसे बड़े अलगाववादी नेताओं में से एक और पाकिस्तान समर्थक सैयद अली शाह गिलानी का निधन होने के बाद जम्मू कश्मीर में क्या बदलेगा?
गिलानी जमात-ए-इसलामी कश्मीर की ओर से 1972 में सोपोर से विधानसभा के लिए चुने गए थे। 1977 में दोबारा वे इसी सीट से चुनाव जीते। 1983 में वे हारे लेकिन 1987 में वे फिर विधानसभा पहुंचे। इस बार गिलानी मुसलिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) नाम से स्थानीय दलों का मोर्चा बनाकर चुनाव में उतरे थे। इस चुनाव में एमयूएफ को आठ सीटें भी मिली थीं और यही वह चुनाव है जिसमें सैयद सलाहुद्दीन (यूसुफ शाह) को चुनाव हराने का आरोप लगा। सीट थी श्रीनगर की अमीराकदल और यहाँ से जीते थे नेशनल कांफ्रेंस के गुलाम मोहिउद्दीन शाह। नतीजों की घोषणा से पहले यूसुफ शाह और यासीन मलिक समेत उनके दोनों काउंटिंग एजेंटों को गिरफ्तार कर लिया गया था। बाद में गिलानी के नेतृत्व में सभी आठ विधायकों ने चुनावों में धांधलेबाज़ी का आरोप लगा कर इस्तीफा दे दिया था।
लेखक पत्रकार हैं और कनाडा की विंडसर यूनिवर्सिटी के रिसर्च प्रोजेक्ट के तहत आईआईएम-लखनऊ में रिसर्चर रह चुके हैं।