नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक़ 2017 में बलात्कार के 33,6,58 मामले पूरे देश में दर्ज हुए। यानी बलात्कार के क़रीब 92 मामले हर दिन दर्ज हुए। अगर 2012 से तुलना करें तो ये आँकड़ा क़रीब 35% ज़्यादा है। हमने 2012 से तुलना ख़ास कारण से की है। 2012 में ही दिल्ली में चलती बस में एक छात्रा से बलात्कार हुआ था। ये मामला निर्भया कांड के नाम से मशहूर हुआ। देश भर में आवाज़ उठी। सरकारों ने बलात्कार रोकने के लिए कई क़दम उठाने की बात कही। क़ानून में कई बदलाव हुए। इस मामले के चार दोषियों को इस साल के शुरू में फाँसी दे दी गई। इतनी कठोर सज़ा मिलने के बाद उम्मीद जगी कि लोग डरेंगे और बलात्कार पर अंकुश लगेगा।
पिछले साल एक और घटना हुई। हैदराबाद में चार लोगों ने एक युवती से बलात्कार किया। चारों पकड़े गए। बाद में पुलिस एंकाउंटर में मारे गए। पुलिस ने दावा किया कि चारों अभियुक्त भागने की कोशिश कर रहे थे इसलिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी। पुलिस का बयान भरोसे के लायक नहीं था फिर भी लोगों ने पुलिस पर सवाल नहीं उठाया। भारत में एक वर्ग ऐसा भी है जो न्याय के नाम पर पुलिस और सरकार की तानाशाही का समर्थन करता है। मेरा सवाल ये है कि पुलिस द्वारा खुलेआम गोली मार दिए जाने या फिर न्यायिक प्रक्रिया के ज़रिए फाँसी दिए जाने के बाद भी अपराधी डर क्यों नहीं रहे हैं?
हमने इस सवाल को क़ानून के विशेषज्ञ शैलेंद्र यादव के सामने रखा और यह समझने की कोशिश की कि कहीं न्यायिक प्रक्रिया में कोई गड़बड़ी तो नहीं है।
अपराधियों के मन से पुलिस का डर तो पहले ही ख़त्म हो गया था। अब कहीं अदालतों का डर भी तो नहीं ख़त्म हो रहा है?
सवाल के जवाब में शैलेंद्र यादव बताते हैं कि बलात्कार, हत्या और दलितों पर जुर्म बढ़ने के सामाजिक और क़ानूनी दोनों पहलू हैं। पिछले कुछ वर्षों में बलात्कार जैसे अपराध में सज़ा को कठोर बनाया गया है। फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट के ज़रिए तेज़ी से सुनवाई भी होने लगी है। लेकिन क़ानूनी प्रक्रिया में व्यापक और सम्यक सुधार के बिना अपराध रोकना या न्याय दिलाना संभव नहीं है। यादव कम से कम पाँच सुधारों की वकालत करते हैं।
1. सभी अभियुक्तों की सम्पत्ति अटैच करने के लिए क़ानून बनाया जाना चाहिए। मतलब यह कि जब तक मुक़दमा चले अभियुक्त को सम्पत्ति बेचने का अधिकार नहीं हो। सज़ा होने के बाद अगर मुजरिम जुर्माना नहीं दे तो उसकी अटैच सम्पत्ति बेच कर मुआवज़ा की रक़म वसूली जाए।
2. अपराधियों पर लगाए जाने वाले जुर्माना को आज की क़ीमत के हिसाब से तय किया जाना चाहिए। ज़्यादातर मामलों में अदालतों को जेल के साथ जुर्माना लगाने का अधिकार तो है लेकिन अनेक मामलों में जुर्माना की रक़म जो 1860 में तय की गई थी आज भी वही है। फ़र्स्ट क्लास मजिस्ट्रेट आज भी अधिकतम 10 हज़ार रुपए जुर्माना कर सकते हैं। 1860 और आज की क़ीमतों की तुलना करें तो ये रक़म दस लाख तो हो ही जाएगी। जुर्माना कम होने के कारण अपराधी का डर कम हो जाता है।
3. सिविल मामले में मुआवज़े के लिए केस दायर करने के लिए बहुत मोटी कोर्ट फ़ीस जमा करनी पड़ती है। हत्या और बलात्कार जैसे मामलों में इसे माफ़ या नाम मात्र कर दिया जाना चाहिए।
4. बलात्कार के ज़्यादातर मामलों में पीड़ित बहुत ग़रीब होते हैं इसलिए महँगे वक़ील नहीं रख पाते हैं। दुनिया के ज़्यादातर विकसित देशों की तरह भारत में भी वक़ील की फ़ीस मुआवज़े की रक़म में से देने की व्यवस्था की जानी चाहिए। इसका सीधा मतलब होगा कि अभियुक्त को सज़ा दिलाने के लिए वक़ील अपनी पूरी ताक़त लगा देंगे क्योंकि मुक़दमा जीतने पर ही उनको फ़ीस मिल पाएगी। पीड़ित और उसके परिवार को मुक़दमे के दौरान कोई फ़ीस नहीं देनी पड़ेगी।
5. बलात्कार के मामलों की सुनवाई के लिए फ़ास्ट ट्रैक कोर्ट हर ज़िले में बनाए जाने चाहिए। ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए कि जूनियर कोर्ट से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक बहुत कम समय में सुनवाई पूरी हो जाए।
निश्चित तौर पर क़ानूनी सुधार से बलात्कार की घटनाओं को रोकने में मदद मिल सकती है। लेकिन इसकी जड़ें तो भारत के सामंती समाज में फैली हुई हैं। बलात्कार के ज़्यादातर पीड़ित दलित और अति पिछड़े वर्ग से आते हैं। जिसे हिंदू समाज का एक तबक़ा आज भी बराबरी का दर्जा देने के लिए तैयार नहीं है। गाँव में दलित जातियाँ आज भी अछूत बनी हुई हैं। सवर्ण जातियाँ इन पर अत्याचार करना अपना अधिकार समझती हैं। दलित भूमिहीन हैं और सवर्ण जातियों के खेतों में मज़दूरी करते हैं। मज़दूरी कम देनी पड़े इसलिए भी दलित और अति पिछड़ी जातियों को दबा कर रखने की कोशिश की जाती है। बलात्कार को भी दमन के एक हथियार के रूप में इस्तेमाल किया जाता है। इन हिंदुओं की इस मानसिकता को कौन बदलेगा?
आज़ादी की लड़ाई के दौरान महात्मा गाँधी ने छुआछूत के ख़िलाफ़ अभियान चलाया। आर्य समाज और स्वामी दयानंद सरस्वती ने जाति प्रथा को ही ख़त्म करने की मुहिम चलाई। गुरु नानक और सिक्ख पंथ ने जातियों की दीवारों को तोड़ने में एक सीमा तक सफलता पाई। कबीर, रवि दास और बाबा साहेब अम्बेडकर के अभियान तो अपनी जगह है ही। हिंदुत्व और राष्ट्रवाद का झंडाबरदार राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ (आरएसएस) जातियों के संवेदनशील मुद्दे पर चुप ही रहता है। इस मुद्दे पर बोलने का मतलब सवर्ण जातियों का विरोध मोल लेना हो सकता है। इससे आरएसएस ही नहीं बल्कि बीजेपी को भी नुक़सान हो सकता है।
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