चीन ने साठ साल पहले का दावा दुहरा कर भारत चीन के बीच चल रही मौजूदा सैन्य तनातनी को नया मोड़ दे दिया है। नवंबर, 1959 में चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ अन लाई ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का एकपक्षीय प्रस्ताव किया था जिसमें पूर्व में मैकमोहन रेखा से 20-20 किलोमीटर पीछे खिसकने और पश्चिम यानी लद्दाख में, जो देश जहाँ है उसे मान लेने का प्रस्ताव रखा था जिसे नेहरू ने ठुकरा दिया था और यही वजह है कि 1962 में भारत और चीन के बीच युद्ध छिड़ा।
चीन द्वारा फिर से किये गए इस दावे को भारतीय विदेश मंत्रालय ने सिरे से खारिज करते हुए कहा है कि चीन ने 1993 के बाद से भारत के साथ अब तक जितनी संधियाँ और सहमतियाँ की हैं उनमें 1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा का कोई ज़िक्र नहीं है और चीन ने आपसी सहमति से एलएसी तय करने पर ज़ोर दिया था। भारतीय विदेश मंत्रालय ने मंगलवार देर शाम को अपने बयान में चीन के इस दावे को पूरी तरह ग़लत बताया कि पूरा लद्दाख विवादास्पद इलाक़ा है और भारत ने वहाँ सैनिक इरादे से ढाँचागत विकास के ज़रिये तनाव पैदा किया है।
वास्तव में पिछली पाँच मई के बाद से चीन द्वारा पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाक़ों गलवान घाटी, गोगरा, हाट स्प्रिंग, पैंगोंग त्सो झील और देपसांग के इलाक़ों में भारतीय सेना की आँखों में धूल झोंककर सैन्य तनातनी पैदा की गई और इसे ख़त्म करने के लिये पिछले महीनों में हुई बातचीत के दौरान चीन ने कभी भी 1959 की वास्तविक नियंत्रण रेखा के दावे का ज़िक्र नहीं किया।
1993 में जब पहली बार भारत और चीन ने सीमांत इलाक़ों में शांति व स्थिरता बनाए रखने के लिये परस्पर विश्वास निर्माण उपायों (सीबीएम) के लिये सहमति की थी तब भी 1959 के दावे का ज़िक्र नहीं किया गया था लेकिन यह कहा जाए कि 1993 में भारतीय राजनयिक चीनी झाँसे में आ गए तो ग़लत नहीं होगा। चीन ने इस समझौते में वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) का ज़िक्र कर 1959 की भावना को बहाल कर दिया था हालाँकि प्रधानमंत्री चाओ अन लाई के 1959 के प्रस्ताव का सीधा ज़िक्र नहीं कर भारतीय वार्ताकारों को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की थी कि वह 1959 के दावे को नहीं दुहरा रहा है।
चीन की चालाकी आज भारतीय रणनीतिकारों पर भारी पड़ने लगी है। चूँकि भारत ने वास्तविक नियंत्रण रेखा की भावना को कभी भी मान्यता नहीं दी लेकिन 1993 में वास्तविक नियंत्रण रेखा का ज़िक्र हो जाना मात्र ही चीन के लिये आज अपने पुराने दावे को दुहराने का मौक़ा दे रहा है। वास्तविक नियंत्रण रेखा की अवधारणा चीन की है इसलिये चीनी पक्ष द्वारा इसे 1993 में इसका ज़िक्र करवाने के पीछे चीन की दीर्घकालिक सोच का नतीजा है।
भारतीय विदेश मंत्रालय ने चीन के इस दावे को ठुकराते हुए उसे 1993 के बाद से सभी समझौतों की याद दिलाई है।
- 1993 में चीन के साथ पहली बार आपसी समझौते में वास्तविक नियंत्रण रेखा का जिक्र करते हुए इसके अनुरूप शांति व स्थिरता के रखरखाव पर समझौता हुआ था।
- 1996 में सैनिक क्षेत्र में विश्वास निर्माण उपायों पर समझौता हुआ।
- 2005 में भरोसा पैदा करने वाले उपायों को लागू करने पर एक प्रोटोकॉल पर दस्तख़त हुआ।
- 2005 में ही भारत चीन सीमा मसले के हल के लिये राजनीतिक पैमाना और निर्देशक सिद्धांतों पर समझौता भी हुआ, जिसमें भारत और चीन दोनों ने कहा कि दोनों देश वास्तविक नियंत्रण रेखा की पहचान और पुष्टि के लिये प्रतिबद्ध हैं ताकि वास्तविक नियंत्रण रेखा का साझा मिलान हो सके।
वास्तव में भारत और चीन के प्रतिनिधियों ने 2003 तक वास्तविक नियंत्रण रेखा की पहचान के लिये काम भी किया लेकिन यह प्रक्रिया आगे इसलिये नहीं बढ़ सकी कि चीनी पक्ष ने इसे जारी रखने की इच्छा नहीं दिखाई।
इसलिये चीनी पक्ष द्वारा अब दो दशक बाद यह कहना कि केवल एक ही वास्तविक नियंत्रण रेखा मौजूद है तो वह पिछले समझौतों में चीन द्वारा दिखाई गई प्रतिबद्धता की भावना के ख़िलाफ़ है। भारत ने हमेशा कहा है कि भारत ने 1959 की प्रस्तावित वास्तविक नियंत्रण रेखा को कभी भी नहीं माना और चीन ने 1993 के बाद हुई सभी सहमतियों और संधियों में इसका ज़िक्र भी नहीं किया इसलिये अब चीन द्वारा 1959 के दावे को फिर दुहराना चीन की यह मंशा दिखाती है कि वह किसी भी हाल में लद्दाख के सीमांत इलाकों में तनाव बनाए रखना चाहता है।
चीन ने पिछले पांच महीनों के दौरान जो बात खुलकर कहने की हिम्मत नहीं की अब इसे इसलिये दुहरा रहा है कि सीमांत इलाक़ों में चीनी अतिक्रमण को वह जायज व तार्किक इस आधार पर ठहराना चाहता है कि चूँकि लद्दाख का इलाक़ा तिब्बती प्रभाव क्षेत्र का रहा है इसलिये वह इलाक़ा चीन का है।
चीन ने 1959 के एलएसी दावे को फिर दुहरा कर भारत चीन सीमा विवाद को छह दशक पहले की स्थिति में ले जाकर भारत के साथ विवाद और सैन्य तनाव को और गहरा कर दिया है जिसका समाधान भारत के झुकने या चीन द्वारा अपना दावा वापस लेने की स्थिति में ही निकल सकता है। चीन के इस ताज़ा रुख के मद्देनज़र नहीं लगता कि चीन घुसपैठ वाले इलाक़े से अपनी सेना को पाँच मई से पीछे की स्थिति में वापस ले जाने को आसानी से तैयार होगा।
पिछले साल पाँच अगस्त को लद्दाख को भारत सरकार द्वारा केन्द्र शासित प्रदेश घोषित किये जाने का चीन ने अपने सरकारी बयानों में कड़ा विरोध किया था। लेकिन इन बयानों के अनुरूप चीन सैन्य क़दम उठाकर भारत पर दबाव डालेगा यह अनुमान भारतीय रक्षा कर्णधार नहीं कर सके।
चीन के ताज़ा दावे से साफ़ है कि पूर्वी लद्दाख के सीमांत इलाक़ों से सैन्य तनाव ख़त्म करने और सैनिकों को पीछे ले जाने के बारे में चीन ने भारतीय सैन्य कमांडर और राजनयिक स्तर की छह दौर की छह दौर की जो वार्ताएँ की थीं वह महज वक़्त खरीदने के लिये ही थीं। साफ़ है कि चीन एक सुविचारित रणनीति के तहत भारत पर सैन्य दबाव बढ़ा रहा है। पाँच मई के बाद से चीन ने कब्जे और घुसपैठ वाले इलाक़ों में अपना सैन्य कब्जा पुख्ता करते हुए भारी सैन्य तैनाती की और अब जब उन इलाकों में चीन के पाँव जम चुके हैं चीन ने पूरे लद्दाख के इलाक़े को विवादास्पद बता कर भारत चीन के बीच मौजूदा सैन्य तनातनी को नया आयाम दे दिया है। यह इस बात का संकेत है कि आने वाले महीनों या आगामी सालों तक भारतीय सेना को पूर्वी लद्दाख की बर्फीली चोटियों पर अपने सैनिक तैनात रखने को मजबूर होना पड़ेगा।
चीन को पता है कि इन इलाक़ों में भारतीय सेना ने क़रीब 50 हज़ार सैनिक तैनात किये हैं जिन पर रोज़ाना सौ से डेढ़ सौ करोड़ रुपये का ख़र्च भारत के लिये कोविड महामारी से कराह रही भारतीय अर्थव्यवस्था के मौजूदा काल में असहनीय होगा।
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