जब भी 1971 के भारत-पाक युद्ध पर चर्चा होती है तो अमेरिका के सातवें बेड़े की बात अवश्य निकल आती है। क्या था यह सातवाँ बेड़ा और उसने बांग्लादेश को जन्म देने वाले 1971 के युद्ध में अपनी सक्रिय भूमिका क्यों नहीं निभाई थी, इसपर आज तक रहस्य का पर्दा पड़ा हुआ है। क्या अमेरिका का सातवाँ बेड़ा इसलिए कुछ नहीं कर पाया कि उसके ऐक्शन में आने से पहले ही भारतीय फ़ौजों ने पाकिस्तान को हथियार डालने पर मजबूर कर दिया था या सातवाँ बेड़ा केवल दिखावे के लिए बंगाल की खाड़ी में आगे बढ़ रहा था या फिर सोवियत संघ की सक्रियता के कारण वह पीछे हट गया? आइए, आज 16 दिसंबर को भारतीय विजय की सालगिरह पर अमेरिकी सातवें बेड़े और तत्कालीन अमेरिकी कूटनीति के बारे में समझते हैं।
सबसे पहले हम 1971 से पहले के उस दौर में जाते हैं जब अमेरिका पाकिस्तान की मदद से चीन से अपने रिश्ते सुधारने की कोशिश कर रहा था। अमेरिकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन 1969 में राष्ट्रपति बनने के बाद ही इस दिशा में प्रयासरत थे। उनका इरादा चीन और सोवियत संघ के बीच कटु संबंधों का लाभ उठाकर तत्कालीन महाशक्ति सोवियत संघ के विरुद्ध शीत युद्ध में एक और मोर्चा खड़ा करने का था।
इस दिशा में एक बड़ी पहल तब हुई जब पाकिस्तान में अमेरिकी राजदूत जे. एस. फारलैंड ने 1971 में गुपचुप तरीक़े से अमेरिकी विदेश मंत्री हेनरी किसिंजर की चीन यात्रा की व्यवस्था की। इसी के तहत 9 जुलाई 1971 को किसिंजर पाकिस्तान के रास्ते चीन पहुँचे। चीनी प्रधानमंत्री चाउ एन लाई के साथ किसिंजर की उस गुप्त बैठक ने ही अगले साल राष्ट्रपति निक्सन की चीन यात्रा का मार्ग प्रशस्त किया। यानी देखा जाए तो 1970 से 1972 के बीच अमेरिका चीन के साथ अपनी बैक चैनल वार्ता को जारी रखने के मक़सद में पाकिस्तान का भरपूर इस्तेमाल कर रहा था।
किसिंजर के संस्मरण और व्हाइट हाउस के दस्तावेज़ों से पता चलता है कि चीन से संपर्क साधने की किसिंजर की तीन-तरफ़ा कोशिशों में से सबसे ज़्यादा काम आए तत्कालीन पाक जनरल याहया ख़ान। पाकिस्तान ने ही अमेरिका को चाउ एन लाई का पहला संदेश 21 अप्रैल 1971 को दिया और उसके बाद अमेरिकी कूटनीति ने अपने दम पर ही उड़ान भरी। लेकिन जनरल याहया खान को यह भ्रम हो गया कि उन्होंने अमेरिका और चीन के बीच पुल बनाने का जो काम किया है, उसके बदले अमेरिका भारत के खिलाफ किसी भी जंग में उसका पूरा साथ देगा।
लेकिन क्या ऐसा हुआ? क्या अमेरिका ने उसकी मदद की या वह पीछे हट गया?
सेना द्वारा किए जा रहे नरसंहार की अनदेखी
मार्च 1971 के बाद जब पाकिस्तानी सेना ने ऑपरेशन सर्चलाइट के दौरान हजारों नागरिकों को मार डाला तो इस नरसंहार की सूचना ढाका में अमेरिकी काउंसल जनरल आर्चर ब्लड ने अपने विदेश मंत्रालय तक तुरंत पहुँचाई। उन्होंने राजदूत आवास के चैनल को दरकिनार करते हुए सीधे विदेश मंत्रालय को लिखा। लेकिन उनकी रिपोर्टों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया क्योंकि किसिंजर ऐसा कोई जोखिम लेना नहीं करना चाहते थे जिससे पाकिस्तानी मदद से चीन के साथ शुरू हुई कूटनीतिक पहल में ख़लल पड़े। आर्चर ब्लड को अपने अच्छे काम का इनाम देने के बदले उनका ढाका से तबादला कर दिया गया। उनके राजनयिक पत्राचार को अब ब्लड टेलिग्राम के नाम से जाना जाता है। इन पत्राचारों को यदि पहले ही सार्वजनिक कर दिया गया होता तो किसिंजर को 1973 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित ही नहीं किया जाता।
भारत पाकिस्तान युद्ध 3 दिसंबर 1971 को शुरू हुआ। जनरल नियाज़ी के पास 29 बटालियनें थीं। उपलब्ध सैन्य संसाधनों के साथ उनसे कम-से-कम 30 दिनों तक लड़ने की उम्मीद की गई थी। लेकिन भारतीय सेना की असाधारण तेज़ी ने उनकी सारी योजनाओं पर पानी फेर दिया।
6 दिसंबर 1971 तक जनरल नियाज़ी अपनी रक्षात्मक युद्धस्थिति के बारे में आश्वस्त थे, लेकिन एक दिन बाद यानी 7 दिसंबर 1971 को जब भारतीय सेना ने जेसौर पर क़ब्ज़ा और मेघना नदी को पार कर लिया तो जनरल नियाजी की उम्मीदें ध्वस्त हो गईं। 7 दिसंबर 1971 को गवर्नर हाउस में मीटिंग के दौरान नियाज़ी ज़ोर ज़ोर से रोने लगे। ढाका में पाकिस्तानी नागरिक गवर्नर अब्दुल मोतालिब मलिक ने उन्हें सांत्वना दी और अगले 48 घंटों में सैन्य सहायता के लिए जनरल याहया खान को संदेश भेजा। लेकिन भारतीय रक्षा बलों द्वारा हवाई और नौसैनिक नाकेबंदी ने इसे संभव नहीं होने दिया। जनरल नियाजी इतने सदमे में थे कि 9-12 दिसंबर 1971 तक अपने बंकर से बाहर भी नहीं आए।
10 दिसंबर 1971 को युद्धविराम की अपील मिलने के बाद अमेरिकी राष्ट्रपति निक्सन ने गनबोट कूटनीति के तहत अपने सातवें बेड़े को बंगाल की खाड़ी की ओर भेजने की घोषणा की। इसी दिन शाम साढ़े पाँच बजे के आसपास नई दिल्ली को एक ख़ुफ़िया संदेश मिला कि अमेरिका पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिमी पाकिस्तानी सैन्य कर्मियों को निकालने के लिए जहाज भेजेगा। यह 1971 युद्ध में अमेरिका द्वारा खुले हस्तक्षेप का प्रतीक था।
इस अमेरिकी विमानवाहक पोत की तैनाती का उल्लेख 8 दिसंबर 1971 के उस ज्ञापन में भी है जो किसिंजर ने निक्सन को दिया था। इस ज्ञापन में उन्होंने ढाका से अपने नागरिकों की सुरक्षित निकासी के लिए हेलिकॉप्टर संचालन का सुझाव दिया था।
दुनिया के सबसे बड़े विमान वाहक युद्धपोत के रूप में वर्णित USS एंटरप्राइज इसी सातवें बेड़े का हिस्सा था। इसका कुल वजन 75 हज़ार टन था और इसमें 70 से अधिक आधुनिक लड़ाकू विमानों की वहन की क्षमता थी। इसकी तुलना में आईएनएस विक्रांत की विस्थापन क्षमता 20 हज़ार टन से भी कम थी। यह पूछे जाने पर कि क्या आईएनएस विक्रांत सातवें बेड़े का मुक़ाबला कर पाएगा, वाइस एडमिरल कृष्णन ने तब कहा था, 'बस, हुकुम देना (सरकार को केवल आदेश देना है)।'
नियाज़ी के सुर बदले
लेकिन सातवें बेड़े के आने की ख़बर से जनरल नियाज़ी के सुर बदल गए। कल तक जो युद्धविराम की अपील कर रहे थे, उन्हीं नियाज़ी ने 12 दिसंबर 1971 को ढाका हवाईअड्डे पर अपनी भावी योजना के बारे में पत्रकारों के सवाल के जवाब में कहा- 'आख़िरी आदमी, आखिरी गोली तक लड़ना है।' यह पूछे जाने पर कि क्या उनके पास भारतीय आक्रमण को रोकने के लिए पर्याप्त सैनिक हैं, जनरल नियाजी ने कहा, 'ढाका केवल मेरी लाश पर गिरेगा।' फिर अपने सीने की ओर इशारा किया और कहा, 'उन्हें इसपर टैंक चलाना होगा।'
जनरल नियाज़ी को उम्मीद थी कि भारतीय सेना ढाका पर धावा बोले, इससे पहले उनको अमेरिका से मदद मिल जाएगी। लेकिन शायद अमेरिका की नीयत कुछ और ही थी। सातवाँ बेड़ा बंगाल की खाड़ी के लिए रवाना तो हो चुका था लेकिन उसकी स्पीड न जाने क्यों, बहुत धीमी थी।
14 दिसंबर 1971 को गवर्नर मलिक जब ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक उच्चस्तरीय बैठक में भाग ले रहे थे, तब भारतीय मिग के रॉकेट उसकी छतों पर गिरे। राज्यपाल और उनके कर्मचारी भागकर बंकरों में छुप गए। चश्मदीदों के मुताबिक़ गवर्नर मलिक ने एक छोटी-सी प्रार्थना की, फिर एक कागज पर काँपते हाथों से इस्तीफा लिख दिया।
इस इस्तीफ़े का श्रेय बिना किसी संदेह के भारतीय वायुसेना के स्क्वॉड्रन नं. 28 - द फ़र्स्ट सुपरसॉनिक्स के सदस्यों को जाएगा। हमले को अंजाम देने वाले मिग ने गुवाहाटी से उड़ान भरी थी। छापे का नेतृत्व विंग कमांडर बिश्नोई ने किया था। उनके पास लक्ष्य तक जाने के लिए पर्यटन मानचित्र से अधिक कुछ नहीं था। जैसे ही मिशन उड़ान भरने वाला था, उस स्थान को सरकारी आवास में बदलने के संबंध में ख़ुफ़िया सूचना मिली। केवल बिल्डिंग नहीं, बिल्डिंग के किस हिस्से पर वार करना है, यह भी अंकित किया गया था। उस समय ढाका में 11 हज़ार पाकिस्तानी सिपाही थे। यदि जनरल नियाज़ी चाहते तो वे सातवें बेड़े को ढाका पहुँचने तक आत्मसमर्पण टाल सकते थे। पर पाकिस्तानी सेना का मनोबल टूट चुका था।
15 दिसंबर 1971 को जनरल नियाज़ी ने ढाका में अमेरिका के महावाणिज्यदूत को सूचित किया कि वे कुछ शर्तों के तहत युद्धविराम और सत्ता हस्तांतरण को स्वीकार करने के लिए तैयार हैं। युद्धविराम की यह पेशकश नई दिल्ली में अमेरिकी सरकार के दूतावास के माध्यम से भारत सरकार तक पहुँचाई गई। जाहिर तौर पर महावाणिज्यदूत ने वाशिंगटन में अपने अधिकारियों को भी यह युद्धविराम प्रस्ताव भेजा होगा। भारत सरकार ने इस सशर्त युद्धविराम के प्रस्ताव को खारिज कर दिया।
पाकिस्तान और दुनिया के सामने नई दिल्ली की स्थिति तब और साफ़ हो गई जब भारतीय सेना के कमांडर जनरल मानेक शॉ ने एक रेडियो प्रसारण के माध्यम से जनरल नियाज़ी को संदेश भेजा और उम्मीद जताई कि वे अपने सैनिकों को आत्मसमर्पण करने के आदेश जारी करेंगे। बदले में उन्होंने वादा किया कि उनके साथ सम्मान से पेश आया जाएगा और जिनेवा नियमों के मुताबिक़ घायलों की देखभाल की जाएगी तथा मृतकों को उचित दफ़्न किया जाएगा। उन्होंने कलकत्ता और ढाका के बीच रेडियो संपर्क की भी व्यवस्था की। गौरतलब है कि भारत के इन संदेशों में पहली बार आत्मसमर्पण (सरेंडर) शब्द का इस्तेमाल किया गया।
16 दिसंबर 1971 को रमना रेस कोर्स, ढाका में शाम साढ़े चार बजे जनरल नियाज़ी ने आत्मसमर्पण के दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए। उससे एक दिन पहले यानी 15 दिसंबर 1971 को एंटरप्राइज़ सहित सातवें बेड़े के कई सारे पोतों ने बंगाल की खाड़ी में प्रवेश किया था। उस समय ये पोत ढाका से 1760 किलोमीटर की दूरी पर थे।
अमेरिका के सातवें बेड़े की काबिलियत और उसके चलने की स्पीड से कई लोग यह निष्कर्ष निकालते हैं-
कि अमेरिका 1971 के युद्ध में अपने सातवें बेड़े का इस्तेमाल करने का इच्छुक नहीं था। हालाँकि कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि भारत समर्थक सोवियत संघ द्वारा अपने प्रशांत बेड़े को सक्रिय किए जाने की ख़बरों के कारण भी वह पीछे हट गया।
क्या 1971 के युद्ध में पाकिस्तान का सैन्य समर्थन न करना अमेरिका की दूरगामी नीति का परिचायक था? क्या वह चीन के साथ अपने रिश्ते सुधारने के लिए ही पाकिस्तान का इस्तेमाल कर रहा था और पाकिस्तान का सैन्य समर्थन न करके भारत के साथ अपने संबंध सुधारने का मार्ग खुला रखना चाहता था? यहाँ ध्यान दिया जाना चाहिए कि बांग्लादेश के जन्म के चार महीनों बाद ही अप्रैल 1972 में अमेरिका ने उसे मान्यता दे दी थी जबकि चीन ने बांग्लादेश को मान्यता देने में साढ़े तीन साल लगा दिए।
(लेखक राजीव श्रीवास्तव रक्षा विशेषज्ञ हैं और रोहित शर्मा अंतरराष्ट्रीय संबंध विशेषज्ञ हैं।)
अपनी राय बतायें