loader
रुझान / नतीजे चुनाव 2024

झारखंड 81 / 81

इंडिया गठबंधन
57
एनडीए
23
अन्य
1

महाराष्ट्र 288 / 288

महायुति
226
एमवीए
53
अन्य
9

चुनाव में दिग्गज

पूर्णिमा दास
बीजेपी - जमशेदपुर पूर्व

आगे

कल्पना सोरेन
जेएमएम - गांडेय

पीछे

मुर्मू के राष्ट्रपति बनने के बाद आदिवासियों पर अत्याचार ख़त्म हो जायेगा?

द्रौपदी मुर्मू का राष्ट्रपति चुना जाना क्या सचमुच एक ऐतिहासिक घटना है? समाजवादी नेता डॉ. राम मनोहर लोहिया ने कभी कहा था कि वह आज़ाद भारत के राष्ट्रपति के पद पर किसी दलित महिला को देखना चाहेंगे। मुर्मू दलित न सही महिला तो हैं ही और आदिवासी होने के कारण दलित वर्ग के साथ उनकी समानता भी है। तो क्या लोहिया का सपना पूरा हो गया?

मैं फ़िलहाल उन सवालों को नहीं उठाना चाहता, जिन्हें हर नए राष्ट्रपति के चुने जाने के बाद उनके वर्ग को लेकर उठाया जाता है। जैसे कि क्या द्रौपदी मुर्मू के चुने जाने से देश के क़रीब 9 प्रतिशत आदिवासियों पर अत्याचार और शोषण ख़त्म हो जाएगा? क्या आदिवासियों के साथ दलितों और अति पिछड़े लोगों का भी कल्याण होगा? इन सवालों का कुछ जवाब आज़ादी के बाद बने विभिन्न राष्ट्रपतियों के समुदाय के विकास के इतिहास में मौजूद है और कुछ जवाब भविष्य देगा। बहरहाल, भारतीय जनता पार्टी के नेता इस जीत पर गदगद हैं। यह दिखाने की कोशिश की जा रही है कि मुर्मू के चुनाव से आदिवासी, दलित और पिछड़ों के लिए एक नए युग की शुरुआत होगी। क्या इसे भी सच माना जाये?

ताज़ा ख़बरें

मुर्मू एक ग़रीब आदिवासी परिवार से आती हैं। उनको चुन कर देश ने शोषित आदिवासियों को सम्मान दिया है। इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती है। इसलिए उनका स्वागत ज़रूर किया जाना चाहिए। प्रतीक के तौर पर भी शोषित और दलित वर्ग को सम्मान मिलता है तो जातियों के ज़ंजीर में जकड़े भारत के लिए एक बड़ी बात है।

आदिवासी राष्ट्रपति की ज़रूरत क्यों पड़ी?

इस समय देश के आदिवासी क्षेत्रों में एक तरह की जंग छिड़ी हुई है। ये जंग है बड़े उद्योगपतियों और आक्रामक आदिवासियों के बीच। आदिवासी क्षेत्र कई तरह के खनिज और कोयला जैसी ज़रूरी चीज़ों से भरे पड़े हैं। उद्योगपति इन इलाक़ों में खनन और उन पर आधारित उद्योग शुरू करना चाहते हैं। आदिवासी इसका विरोध कर रहे हैं। कहीं ये विरोध शांतिपूर्ण है तो कई इलाक़ों में हथियारबंद संघर्ष भी चल रहा है। नक्सलवादी संघर्ष अब मुख्य तौर पर आदिवासी क्षेत्रों में ही सिमट कर रह गया है। छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा, बंगाल और पूर्वोत्तर के राज्यों में पूरी ताक़त लगा कर भी सरकार नक्सलवादी और हथियारबंद संघर्ष को रोक नहीं पा रही है। अपार खनिज संपत्ति इन्हीं क्षेत्रों में है जिन पर उद्योगपतियों की नज़र है। और सरकार भी इन क्षेत्रों के दोहन के ज़रिए मोटी कमाई करना चाहती है।

संविधान और क़ानून, आदिवासियों की ज़मीन पर, उनकी सहमति के बिना किसी तरह के उपयोग के ख़िलाफ़ है। संविधान के पाँचवें और छठे परिशिष्ट में साफ़ तौर पर कहा गया है कि आदिवासियों की पंचायत की अनुमति के बिना उनकी ज़मीन का कोई उपयोग नहीं किया जा सकता है। 

आदिवासी क्षेत्रों में खनन और उद्योग लगाने के रास्ते में ये एक बड़ी बाधा है। संविधान के इस प्रावधान को ख़त्म करने की कोशिश लंबे समय से चल रही है। उद्योग लगाने या खनन के लिए ज़मीन लेने से पहले आदिवासियों का पुनर्वास आवश्यक है।

देश के उद्योगपति पुनर्वास के पचड़े में पड़ना नहीं चाहते। सरकार की भी उसमें कोई ख़ास दिलचस्पी दिखाई नहीं दे रही है। आश्चर्य नहीं होगा अगर संविधान और क़ानून में आदिवासियों को मिली सुरक्षा अगले चार-पाँच सालों में ख़त्म कर दी जाये और उद्योगपतियों को खुली छूट दे दी जाये। 

इतिहास का सबक़

जून 1984 में जब अमृतसर में स्वर्ण मंदिर से जरनैल सिंह भिंडरावाले को निकालने के लिए कार्रवाई की गयी तब सरदार ज्ञानी ज़ैल सिंह राष्ट्रपति थे। तब उनकी नाराज़गी की कई ख़बरें आयीं लेकिन वो कुछ कर नहीं पाए। फ़रवरी 2002 के गुजरात दंगों के समय दलित वर्ग से आए के आर नारायणन राष्ट्रपति थे लेकिन गुजरात पर वो कोई बड़ा फ़ैसला नहीं कर पाए। उनके तुरंत बाद जुलाई 2002 में ए पी जे अब्दुल कलाम राष्ट्रपति बने लेकिन गुजरात दंगों की जाँच अपनी गति से चलती रही। 2007 में प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने के बाद भी महिलाओं पर अत्याचार का सिलसिला थमा नहीं। 2017 में रामनाथ कोविंद राष्ट्रपति बन गए पर दलितों के ख़िलाफ़ अत्याचार की घटनाएँ कम नहीं हुईं।

विचार से ख़ास

दरअसल, कई बार देखा गया है कि किसी वर्ग की नाराज़गी को ख़त्म करने के लिए शासक वर्ग उस समुदाय से राष्ट्रपति चुन लेता है लेकिन उसका फ़ायदा उस वर्ग को नहीं मिलता है। श्रीमती मुर्मू के राष्ट्रपति बनने का राजनीतिक फ़ायदा चुनावों में बीजेपी को हो सकता है, लेकिन आदिवासियों को फ़ायदा तभी होगा जब जंगल और ज़मीन पर संविधान द्वारा दिए गए उनके हक़ को बरक़रार रखा जाये। कोयला और खनिज क्षेत्र में आदिवासियों की ज़मीन लेना अगर आवश्यक है तो आदिवासियों के पुनर्वास को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता है। 

सच का सामना

जिन दिनों श्रीमती मुर्मू राष्ट्रपति चुनाव के लिए देश भर में प्रचार कर रही थीं, उन्हीं दिनों सुप्रीम कोर्ट का एक महत्वपूर्ण फ़ैसला आया। छत्तीसगढ़ में एक मुठभेड़ में 17 आदिवासियों की हत्या के मामले की जाँच के लिए सुप्रीम कोर्ट पहुँचीं सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ और हिमांशु कुमार को कोर्ट ने सज़ा सुना दी। यह भी हमारी व्यवस्था का एक चेहरा है। आदिवासियों के लिए न्याय की गुहार करने वाले को ही सज़ा हो जाती है। भारत में राष्ट्रपति के पास सीमित अधिकार है। राष्ट्रपति किसी भी हाल में प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल की सलाह को मनाने के लिए बाध्य है। इसका मतलब साफ़ है कि आदिवासियों के बारे में फ़ैसला तो सरकार ही करेगी। एक आदिवासी चेहरे को सामने रखकर आदिवासियों के संवैधानिक अधिकार में कटौती नहीं किया जाये इसकी गारंटी तो सरकार को ही देनी होगी। 

सम्बंधित खबरें
श्रीमती मुर्मू की उम्मीदवारी से बीजेपी को ज़रूर फ़ायदा हुआ। बीजेपी की विरोधी पार्टियों ने भी श्रीमती मुर्मू का समर्थन किया। शिवसेना (उद्धव ठाकरे गुट) के साथ साथ झारखंड मुक्ति मोर्चा जैसी विरोधी पार्टियों के सांसदों ने भी श्रीमती मुर्मू का समर्थन किया। बड़े पैमाने पर क्रॉस वोटिंग करके कई दलों के विधायकों और सांसदों ने ये साबित करने की कोशिश की कि वो शोषित और अत्याचार पीड़ित वर्ग के साथ खड़े हैं। ये सब दिखावा है या सच, जल्दी ही सामने आने लगेगा। 
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
शैलेश
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें