जब सरकार ने मुफ्त अनाज देने की घोषणा की तो लगा कि यह थाली बजाने जैसा शगूफा ही है। लम्बे समय तक शहर में रह जाने पर गाँव से निकले लोगों का भी यथार्थबोध छिज जाता है। दुर्योगवश कुछ महीने गाँव पर रहना पड़ा। मुफ्त अनाज योजना का असली असर तब दिखा। आसपास के गाँवों में अनाज वितरण को लेकर जो देखा-सुना उसे देखते हुए यही महसूस हुआ कि इस योजना की वजह से एक बड़ी आबादी भूखमरी के भय से मुक्त हुई है। चुनाव के दौरान और बाद कुछ लोग ऐसे तंज करते दिखे, जैसे सरकार कोई भीख दे रही है या जनता अनाज पर बिक गयी है। मेरा यक़ीन है कि ऐसे तंज करने वाले ज़्यादातर मध्यमवर्गीय लोग अपनी वास्तविकता और अपने परिवार का इतिहास भूल चुके हैं। अगर वो याद करेंगे तो उन्हें अपने घर-परिवार में भूख का वही डर एक-दो पीढ़ी पहले दिख जाएगा। शहर में आकर ऐसे-वैसे कामों से चार पैसे कमाकर सुर्खरू बनना हल्कापन है, अक्लमंदी नहीं।
पाँच किलो अनाज की क़ीमत अपनी जड़ से कटे लोग क्या जानें!
- विचार
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- 25 Mar, 2022

सरकार की पाँच किलो अनाज देने की घोषणा का क्या मतलब था? यह पिछले विधानसभा चुनाव में भी दिख गया। भले ही पेट भरा रहने वाले लोग इसे किसी भी नज़रिए से देखें, भूख के डर में रहा व्यक्ति इसे कैसे देखेगा?
यहाँ यह ग़लती से भी न कहिएगा कि आपके बाप-दादा के यहाँ दूध-दही की नदियाँ बहती थीं। अगर ऐसा था तो समझिए कि सामन्ती-वर्गीय व्यवस्था में वो दूसरों के हकमारी के साधन रहे होंगे। मैं अतीत के अपराधों का प्रतिशोध लेने वाली विचारधारा में यक़ीन नहीं रखता लेकिन आप अपने अतीत का गौरवगान करेंगे तो हमें आपको यथार्थभान कराना होगा।