राजस्थान में अशोक गहलोत की कुर्सी फ़िलहाल बची रहेगी लेकिन कांग्रेस के खाते में यह कुर्सी कितनी देर तक रहेगी और कुर्सी रह भी गयी तो कांग्रेस का क्या भविष्य होगा, इसकी चर्चा इस वक़्त बेहद ज़रूरी है। लोकतंत्र में ज़रूरी है कि विपक्ष मज़बूत हो और भारतीय लोकतंत्र में भले ही बहुदलीय राजनीति चल रही हो लेकिन सच यही है कि भारतीय राजनीति त्रिकोणीय है। कांग्रेस, बीजेपी और वामपंथ।
वामपंथी राजनीतिक दलों ने समय से राजनीतिक हिंसा के ज़रिये आगे बढ़ने का अपना चरित्र पहले ही पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में उजागर कर दिया। इसकी वजह सरोकारी राजनीति का दावा करने के बाद भी देश के दूसरे हिस्सों में 1952 के पहले चुनाव के बाद मिली स्वीकार्यता भी सीमित हो गई और वामपंथी सिर्फ़ कांग्रेस सरकारों की कृपा से बौद्धिक, शैक्षिक संस्थानों पर क़ब्ज़ा करके ही ख़ुश हैं। कुल मिलाकर अब देश में बीजेपी और कांग्रेस ही है। लगभग सभी जातिवादी और व्यक्तिवादी पार्टियाँ जो अलग-अलग प्रदेशों में सत्ता में हैं, भारतीय जनता पार्टी के सामने कांग्रेस की ही खाली जगह को भर रही हैं। इसलिए भारतीय राजनीति के दो ध्रुवीय हो जाने की ज़मीनी सच्चाई समझकर बात करने से ही ठीक से समझ आएगा। एक प्रश्न आप लोगों के मन में यह भी आ रहा होगा कि सचिन पायलट के हटने और अशोक गहलोत के काबिज रह जाने भर से मैं यह प्रश्न क्यों खड़ा कर रहा हूँ कि गाँधी परिवार के लिए कुर्सी बड़ी है या कांग्रेस।
सचिन पायलट के बारे में बात करने से पहले कुछ और नामों का मैं सिर्फ़ ध्यान दिलाता हूँ। ज्योतिरादित्य सिंधिया, मिलिंद देवड़ा, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, प्रिया दत्त, अगाथा संगमा और ऐसे नामों की लंबी सूची है जो कांग्रेस के भविष्य के नेता के साथ टीम राहुल गाँधी के मज़बूत सदस्य के तौर पर देखे जा रहे थे। इन सभी नेताओं में एक और साझा बात थी कि यूपीए 2 के शासनकाल में जब सब कुछ सोनिया गाँधी की अगुआई वाली राष्ट्रीय सलाहकार समिति चलाती थी, उस समय भी इन लोगों का ज़बरदस्त प्रभाव था और माना जाता था कि जब 2014 में यूपीए 3 आएगी तो राहुल गाँधी की कैबिनेट के सबसे महत्वपूर्ण पोर्टफ़ोलियो इन्हीं लोगों के पास आएँगे। ज़ाहिर है, यह सब ख्याली पुलाव थे जो ख्यालों में पके लेकिन 2014 में नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने तो उन्होंने देश भर में कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दे दिया।
कांग्रेस और दूसरी बीजेपी विरोध में खड़ी पार्टियों ने कहा कि यह लोकतंत्र की भावना के ख़िलाफ़ है कि नरेंद्र मोदी, अमित शाह और भारतीय जनता पार्टी, कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दे रहे हैं लेकिन जनता ने जाने कब इसे गंभीरता से ले लिया और कांग्रेस पार्टी का दुर्भाग्य यह रहा कि सोनिया गाँधी के हाथ से जब राहुल गाँधी के पास कमान गई तो राहुल गाँधी का सारा ज़ोर कांग्रेस पार्टी की बेहतरी के बजाय मोदी, बीजेपी और आरएसएस पर हमले पर ही रहा। इसका राहुल गाँधी को कितना लाभ मिला, इसी से समझा जा सकता है कि पाँच वर्षों के बाद 2019 में ज़्यादा जनमत के साथ नरेंद्र मोदी सत्ता में आ गए।
2019 के चुनाव के पहले ही राहुल गाँधी की ड्रीम कैबिनेट का सदस्य कहे जाने वाले युवा नेताओं का मोहभंग कांग्रेस से होने लगा था।
2019 में मिली क़रारी हार और राहुल गाँधी के अध्यक्ष पद से त्यागपत्र देने के बाद सोनिया गाँधी का अंतरिम अध्यक्ष बनना टीम राहुल गाँधी के लिए सदमे से कम नहीं था लेकिन ‘अंशकालिक’ राजनेता राहुल गाँधी को यह बात समझ में नहीं आई। हाँ, उनकी बहन प्रियंका गाँधी वाड्रा ज़रूर इसे एक बड़े मौक़े के तौर पर देख रही हैं। प्रियंका गाँधी वाड्रा को यह भी लगने लगा है कि अब राहुल गाँधी भले ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी पर दोबारा आ जाएँ लेकिन इस पार्टी की सत्ता संभालने का ज़िम्मा उनके पास पूरी तरह से आ सकता है।
यहाँ यह घटनाक्रम भी ध्यान में रखना ज़रूरी है कि 2014 के लोकसभा चुनाव के समय प्रियंका गाँधी वाड्रा ने कांग्रेस की मुख्यधारा से पूरी तरह दूरी बनाए रखी थी और ख़ुद को सिर्फ़ माँ और भाई की 2 लोकसभा सीटों तक ही सीमित रखा था। जबकि 2014 के लोकसभा चुनाव के पहले रॉबर्ट वाड्रा मोटर साइकिल जुलूस निकाल चुके थे और दिल्ली में वाड्रा पोषित नेताओं ने प्रियंका गाँधी को मुख्यधारा में लाने के पोस्टर भी लगा दिए थे। उस समय भी यह बात ज़ोर शोर से उठी थी कि भाई-बहन के बीच में सब कुछ ठीक नहीं है, प्रियंका गाँधी वाड्रा ने इस पर पूरी तरह से विराम लगा दिया था।
सोनिया भी राहुल की मंडली से ख़ुश नहीं!
कई बार तो ख़बरें ये भी आईं कि सोनिया गाँधी भी राहुल गाँधी की मंडली से ख़ुश नहीं हैं लेकिन इस सबके बीच सोनिया गाँधी इस बात को लेकर एकदम स्पष्ट थीं कि कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी के काबिल सिर्फ़ और सिर्फ़ राहुल गाँधी हैं। इस पुत्रमोह को राहुल गाँधी की टीम ने पकड़ लिया और उसका जमकर दोहन किया। लगातार ख़बरें आती रहीं कि राज्यों में और कांग्रेस कार्यसमिति में भी राहुल गाँधी नाराज़ होकर निकले लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में मुख्यधारा में प्रियंका गाँधी वाड्रा क्या आईं, परिवार की पार्टी की राजनीति ही पूरी तरह से बदल गई।
हालाँकि, प्रभारी महासचिव बनने के बाद प्रियंका गाँधी वाड्रा ने कांग्रेस का कितना बड़ा नुक़सान कर दिया कि भाई की अमेठी सीट भी नहीं बचा सकीं। फिर भी अब कांग्रेस या राहुल गाँधी की मंडली के सदस्यों पर संकट खड़ा होता है तो हर समय संकटमोचक के तौर पर प्रियंका गाँधी वाड्रा का नाम आगे आ जाता है।
यहाँ एक ज़रूरी बात और ध्यान में आती है कि जब राहुल गाँधी मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य और राजस्थान में सचिन पायलट के पक्ष में थे तो कहा जाता है कि सोनिया गाँधी और बुजुर्ग कांग्रेसी नेताओं के साथ प्रियंका गाँधी वाड्रा भी मध्य प्रदेश में कमलनाथ और राजस्थान में अशोक गहलोत के पक्ष में थीं। यहाँ तक कि यूनाइटेड कलर्स ऑफ़ राजस्थान वाले ट्वीट के लिए राहुल गाँधी और सचिन पायलट के साथ चित्र खिंचाने से पहले अशोक गहलोत ने राहुल गाँधी से अलग से मुलाक़ात भी नहीं की थी।
सवाल यही है कि अभी सचिन पायलट और पहले ज्योतिरादित्य सिंधिया का कांग्रेस से बाहर जाना क्या दिखा रहा है कि राहुल और प्रियंका के समकक्ष नेताओं को यही दोनों संभाल नहीं पा रहे हैं या फिर राजनीतिक तौर पर निपटा रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष पद गाँधी परिवार से बाहर भी जा सकता है, यह बात राहुल गाँधी ने कांग्रेस अध्यक्ष का पद छोड़ते समय कही थी लेकिन सोनिया गाँधी और प्रियंका गाँधी वाड्रा इसे बिल्कुल मानने को तैयार नहीं हैं।
इटली के पितृसत्तात्मक समाज में पली-बढ़ी सोनिया गाँधी तो गाँधी परिवार में भी अपने पुत्र राहुल गाँधी को ही कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी सौंपना चाहती हैं। अनिच्छुक बेटा और इच्छुक बेटी के बीच में कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी फँसी हुई है और कुर्सी पर तो कोई गाँधी आज नहीं तो कल बैठ जाएगा लेकिन कांग्रेस तब तक शायद ही किसी हाल में रह जाएगी। गाँधी परिवार के लिए कांग्रेस तभी तक बड़ी है, जब तक कुर्सी पर गाँधी परिवार का कोई बैठा हो। गाँधी परिवार (सोनिया, राहुल और प्रियंका) को उस कांग्रेस से कोई मोह नहीं है, जिसकी सत्ता गाँधी परिवार के हाथ में न हो।
आयु ज़्यादा होने से सोनिया गाँधी अब कांग्रेस को आगे बढ़ाने की अवस्था में नहीं हैं और राहुल गाँधी कांग्रेस अध्यक्ष दोबारा बन भी गये तो उनसे ज़्यादा प्रभाव प्रियंका का ही रहेगा। गाँधी परिवार के दरबारियों को छोड़िए, लेकिन कांग्रेस के हर शुभचिंतक को यह बात अच्छे से समझने की कोशिश करनी चाहिए। कांग्रेस, लोकतंत्र और देश के लिए यह समझना बेहद ज़रूरी है।
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