मैं एक ग्रामीण स्त्री हूँ, इस बात को आप मानेंगे नहीं क्योंकि लम्बा अरसा महानगर में रहते हुये निकल गया है। शहर में रहते हुये मुझ से ग्रामीण संस्कार छूटे नहीं। बस यही बात तो है कि जब यहाँ पढ़ी लिखी स्त्रियाँ स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री की नयी दुनिया हमारे सामने लाती हैं तो हमें कुछ झूठा झूठा सा लगता है और अन्याय पूर्ण भी। हमने माना पुरुष वर्चस्व हमेशा से रहा है और पुरुष ने स्त्री को लेकर ताक़तवर व्यवहार को अपने अपने खाने में रखा है। घर मकान को लेकर, ज़मीन जायदाद को लेकर और संतान को भी लेकर। ये सब दुर्व्यवहार मुझे गाँवों में ही नहीं दिखे, यहाँ शहरों और महानगरों में भी देखने को मिले।
गाँव में मेरी समझ में आता था कि वहाँ अशिक्षा है, दक़ियानूसी संस्कार हैं, स्त्री की आवाज़ चीख चिंघाड़ और रुदन का रूप तो है लेकिन उसका असर मर्दानी व्यवस्था पर नहीं है क्योंकि कोर्ट कचहरी या थाने कोतवाली तक पहुँचने के रास्ते उसे पता तो हैं मगर पहुँच में नहीं हैं। लड़ाई इसी बात पर जारी रहनी चाहिये।
लेकिन इस बड़े शहर में या महानगर में तो सब कुछ है जहाँ तक स्त्री भागकर पहुँच जाती है। अपनी आपबीती कह सुनाती ही नहीं लिखित देती है। कोर्ट कचहरी ही नहीं अख़बारों तक सार्वजनिक कर देती है। मैं सोचती हूँ कि ऐसी हिम्मत गँवई औरतों में कब आयेगी? उनको तो आन मर्यादा ही घेरे रहती है। महानगर में आन मर्यादा की बात आप करेंगे तो अपराधी की तरह देखे जायेंगे।
यहाँ विवाह के मद्देनज़र निबाहना शब्द गुनाह है। स्त्री विमर्श के चलते शादी को निबाहने वाली औरतें मूर्ख और ग़ुलाम हैं, आज़ादी का मतलब नहीं जानतीं। हम तो अपने शादी निबाह को भूल कर भी मुखर नहीं होने देते। अपने गाँव में अगर रिश्तों की तोड़फोड़ की बात करें तो वहाँ भी हम मूर्ख ठहरा दिये जायेंगे।
हमने आज के स्त्री विमर्श की असलियत जानी नहीं थी सो बस अपनी राय दे बैठे कि जिन जिन ने रिश्तों को पहले ही तोड़ दिया उनसे किस तरह की राय माँगी जा रही है? बस यहीं से ख़ंजर तन गये। हमें डंके की चोट पर बताया गया कि विवाह का असली मर्म तो वे ही निकाल सकती हैं। वे बता सकती हैं कि सम्बंध निबाहे चलना अच्छी बात नहीं। यह सब दक़ियानूसी सोच है। रिश्ता तोड़ो और किक मारो। स्त्री विमर्श का जमाना है।
तब हमारी समझ में आया कि हमको लानत क्यों दी गयी? इसलिए कि हमने कह दिया था कि जिन्होंने अपने रिश्ते का पहले ही नेरा केरा कर दिया वे जोड़े रखने की बात करेंगी, सो कैसे? बस यहीं भारी ग़लती बन गयी। यह गाँव नहीं जहाँ सम्बंध सम्भाल कर रखे जाते हैं, यह महानगर है जहाँ सम्बंध तो बहुत दूर की बात है, आदमी आदमी को नहीं पहचानना चाहता। शादी विवाह केवल जश्न हैं, सजावट के अवसर हैं, नाते रिश्ते और जन्म जन्म के बंधन नहीं। इन सब ढकोसलों का बायकॉट हो चुका है, स्त्री विमर्श की जय है। हम तो अब तक न मालूम कौन सा स्त्री विमर्श रचते रहे, नयी चाल पहचानी ही नहीं।
(मैत्रेयी पुष्पा की फ़ेसबुक वाल से)
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