मैं एक ग्रामीण स्त्री हूँ, इस बात को आप मानेंगे नहीं क्योंकि लम्बा अरसा महानगर में रहते हुये निकल गया है। शहर में रहते हुये मुझ से ग्रामीण संस्कार छूटे नहीं। बस यही बात तो है कि जब यहाँ पढ़ी लिखी स्त्रियाँ स्त्री विमर्श के नाम पर स्त्री की नयी दुनिया हमारे सामने लाती हैं तो हमें कुछ झूठा झूठा सा लगता है और अन्याय पूर्ण भी। हमने माना पुरुष वर्चस्व हमेशा से रहा है और पुरुष ने स्त्री को लेकर ताक़तवर व्यवहार को अपने अपने खाने में रखा है। घर मकान को लेकर, ज़मीन जायदाद को लेकर और संतान को भी लेकर। ये सब दुर्व्यवहार मुझे गाँवों में ही नहीं दिखे, यहाँ शहरों और महानगरों में भी देखने को मिले।
स्त्री विमर्श के चलते शादी को निबाहने वाली औरतें मूर्ख, ग़ुलाम हैं!
- विचार
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- 8 Jul, 2021

यह गाँव नहीं जहाँ सम्बंध सम्भाल कर रखे जाते हैं, यह महानगर है जहाँ सम्बंध तो बहुत दूर की बात है, आदमी आदमी को नहीं पहचानना चाहता। शादी विवाह केवल जश्न हैं, सजावट के अवसर हैं, नाते रिश्ते और जन्म जन्म के बंधन नहीं। इन सब ढकोसलों का बायकॉट हो चुका है, स्त्री विमर्श की जय है।
मैत्रेयी पुष्पा जानी-मानी हिंदी लेखिका हैं। उनके 10 उपन्यास और 7 कथा संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं जिनमें 'चाक'