loader
रुझान / नतीजे चुनाव 2024

झारखंड 81 / 81

इंडिया गठबंधन
56
एनडीए
24
अन्य
1

महाराष्ट्र 288 / 288

महायुति
233
एमवीए
49
अन्य
6

चुनाव में दिग्गज

बाबूलाल मरांडी
बीजेपी - धनवार

जीत

चंपाई सोरेन
बीजेपी - सरायकेला

जीत

परिवारवाद के कैंसर से जूझता भारतीय लोकतंत्र! 

देश की राजनीति को अक्सर वंशवाद और परिवारवाद से जोड़ा जाता रहा है। ऐसे बहुत से परिवार हैं जिनके घर में कई पीढ़ियों से राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ी जा रही हैं और उनका दखल और दबदबा बना हुआ है। एक जमाने तक कांग्रेस को परिवारवाद या वंशवाद के लिए निशाने पर लिया जाता था, लेकिन आज की राजनीति की हकीकत यह है कि शायद ही कोई राजनीतिक दल परिवारवाद की इस बीमारी से अछूता हो जिससे राजनीतिक दलों में ईमानदारी से बरसों बरस काम करने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं को तो मौका नहीं मिल पाता लेकिन राजनीतिक परिवार से जुड़े बच्चे देखते-देखते विधायक, सांसद और मंत्री बनते चले जाते हैं,पार्टी के अध्यक्ष हो जाते हैं। 

पार्टियों की चुनाव समितियों या संसदीय बोर्ड में शायद ही कोई किसी राजनेता के परिवार के किसी सदस्य के नाम का विरोध करता दिखाई देता हो और अगर कभी उसे मौका नहीं दिया जाता तो उसका कारण वंशवाद का विरोध नहीं, पार्टी की अंदरूनी राजनीति होती है। विरोध  इस बात पर नहीं है कि राजनेताओं के बच्चों की राजनीति में एंट्री बंद कर दी जाए लेकिन इतना तो हो सकता है कि किसी कार्यकर्ता का हक नहीं मारा जाए। 

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमेशा से ही राजनीतिक वंशवाद का विरोध करते रहे हैं लेकिन बीजेपी में यह वंशवाद और परिवारवाद तेजी से जड़ पकड़ रहा है। प्रधानमंत्री ने अब नया शब्द गढ़ा है –‘ घोर परिवारवादी’।

ताज़ा ख़बरें
इसका मतलब शायद यह है कि बीजेपी में जिन राजनेताओं के बच्चों को टिकट या मौका मिल रहा है वो उनकी लंबी राजनीतिक सक्रियता की वजह से और किसी का विरोध केवल इस आधार पर नहीं किया जा सकता कि उस नौजवान के माता या पिता राजनीति में बड़े पद पर रहे हैं। 
यह भी सच है कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अपने परिवार के किसी भी सदस्य को बीजेपी की राजनीति में शामिल नहीं किया या नहीं होने दिया इसलिए इस मसले पर उन पर अंगुली उठाना ठीक नहीं कहा जा सकता।

राजनीतिक हकीकत यह है कि बीजेपी नेतृत्व की नई पीढ़ी के आने के बाद वहां भी परिवारवाद बढ़ा है या फिर नेतृत्व उसे रोकने में कामयाब नहीं रहा। बीजेपी का अब तक परिवारवाद का विरोध करने का दावा इसलिए चल रहा था क्योंकि नब्बे के दशक से पहले तो बीजेपी को कभी सत्ता में आने का बड़ा मौका ही नहीं मिला और उसके ज़्यादातर नेताओं की पीढ़ी केवल विपक्ष की राजनीति या सड़कों पर और संसद के बाहर प्रदर्शन करने में निकल गई, इसे फाका राजनीति भी कह सकते हैं तो उस हाल में कौन नेता अपनी अगली पीढ़ी को राजनीति में लाने की सोचता लेकिन जब से बीजेपी की सत्ता में हिस्सेदारी बढ़ी है, तब से उसके नेताओं के बच्चों का आना भी बढ़ गया है। अब उसे कांग्रेस या दूसरी पार्टियों पर निशाना साधने से पहले खुद भी आईना देखना चाहिए। 

बीजेपी और जनसंघ के शुरुआती दौर में तो ज़्यादातर लोग संघ से ही आते थे तो या तो उनके परिवार नहीं होते थे या फिर ऐसी मजबूती ही नहीं थी कि उनको राजनीति में लाने के बारे में सोचा जाए। गृहमंत्री अमित शाह ने तो समाजवादी पार्टी के एस पी को संपत्ति और परिवारवाद के तौर पर ‘डिकोड’ कर दिया है।

Dynasty politics in Indian democracy  - Satya Hindi

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। ज़ाहिर है कि उसमें वंशवाद भी पुराना है। एक बड़ी वजह यह भी है कि आज़ादी के बाद से ज़्यादातर वक्त और देश के ज़्यादातर हिस्सों में कांग्रेस ही सत्ता में रही है। आज़ादी के बाद के ज्यादातर वक्त नेहरू-गांधी परिवार ही कांग्रेस की लीडरशिप यानी अध्यक्ष पद को संभालता रहा, आज़ादी से पहले मोतीलाल नेहरु और फिर पंडित जवाहर लाल नेहरु से लेकर राहुल गांधी तक, इन 70 से ज़्यादा सालों में से करीब चालीस साल नेहरू गांधी परिवार का सदस्य ही अध्यक्ष की कुर्सी पर बैठा।श्रीमती सोनिया गांधी कांग्रेस की सबसे लंबे समय तक अध्यक्ष रहीं और अभी पार्टी की अंतरिम अध्यक्ष है। इस बीच राहुल गांधी को अध्यक्ष बनाया गया, जिनके कार्यकाल में कांग्रेस सबसे ज़्यादा राज्यों में चुनाव हारी और फिर लोकसभा में अपने सबसे कम आंकड़े तक पहुंच गई, मगर किसी ने उन्हें ज़िम्मेदार ठहराने की हिम्मत नहीं दिखाई। 

कौन होगा कांग्रेस अध्यक्ष?

खुद राहुल गांधी ने भी जब इस्तीफ़ा दे दिया तो किसी नये चेहरे को नुमाइंदगी सौंपने के बजाय सोनिया गांधी पर ही भरोसा जताया गया।। अरसे से पार्टी में लीडरशिप बदलाव को लेकर चर्चा चल रही है। असंतुष्ट कांग्रेस नेताओं का गुट ‘जी-23’ लगातार दबाव बनाए हुए हैं, अब प्रियंका गांधी वाड्रा को अगला अध्यक्ष बनाने की कोशिशें चल रही हैं। 

कांग्रेस के परिवारवाद में सिर्फ़ नेहरु-गांधी परिवार ही शामिल नहीं है। इसमें पायलट, सिंधिया, देवड़ा, प्रसाद, किदवई, चौधरी, हुडा, त्रिपाठी, गहलोत और बहुगुणा जैसे बहुत से परिवार शामिल हैं। इनके अलावा भी दर्जनों नाम और परिवार इस सूची में शामिल किए जा सकते हैं।
कांग्रेस के परिवारवाद के बाद क्षेत्रीय राजनीतिक दलों का दौर आया जिन्होंने खुद पार्टी बनाई और फिर परिवार की पार्टी हो गई माने कोई दुकान हो जिस पर “ ...एंड संस” लिखा जा सकता हो।

इनमें बिहार में राष्ट्रीय जनता दल के लालू यादव का परिवार, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव, पंजाब में शिरोमणि अकाली दल का बादल परिवार, तमिलनाडु में डीएमके का करुणानिधि परिवार, कर्नाटक में देवेगौड़ा परिवार, ओड़िशा में पटनायक परिवार, जम्मू कश्मीर में नेशनल कान्फ्रेंस का अब्दुल्ला परिवार और पीडीपी का मुफ्ती परिवार, हरियाणा में चौटाला परिवार, महाराष्ट्र में शिवसेना का ठाकरे परिवार तो एनसीपी में पवार परिवार के नामों के अलावा भी बहुत से परिवारों के नाम गिनाए जा सकते हैं।

बीजेपी का हाल 

वंशवाद पर निशाना बनाने वाली भारतीय जनता पार्टी में करीब चालीस नामों की सूची बताई जाती है जो राजनीति की दूसरी पीढ़ी से हैं। इनमें राजनाथ सिंह परिवार, वसुंधरा राजे परिवार, रमन सिंह परिवार, अनुराग ठाकुर परिवार, शिवराज सिंह परिवार, कल्याण सिंह परिवार, मेनका गांधी और लालजी टंडन परिवार के नाम शामिल किए जा सकते हैं। इसके अलावा बीजेपी में आने वाले दूसरे दलों के राजनेताओं में भी ऐसे चेहरे ज़्यादा है जिनका संबंध राजनीतिक परिवारों से रहा है।

Dynasty politics in Indian democracy  - Satya Hindi
वैसे परिवारवाद का विरोध किसी नेता के परिवार का पत्ता काटने या राजनीतिक सहूलियतों के लिए राजनीतिक दल करते रहते हैं, जैसे यूपी में रीता बहुगुणा के बेटे मयंक को टिकट नहीं दिया जाना हो या फिर स्वाति सिंह का टिकट कटना हो तो एक परिवार-एक सदस्य की बात की जाती है, लेकिन खंडूरी की बेटी को टिकट देने या राजबीर सिंह के बेटे संदीप सिंह, पकंज सिंह और दुष्यत सिंह को टिकट देते वक्त इस नियम को नज़रअंदाज़ किया जा सकता है। 

यूं तो बीजेपी में 75 साल की अधिकतम उम्र सीमा भी तय की गई है, लेकिन कर्नाटक में येदियुरप्पा को मुख्यमंत्री बनाते वक्त या फिर केरल में श्रीधरण को सीएम उम्मीदवार बनाते वक्त आसानी से आंखें मूंद ली जाती है। इस आधार पर नजमा हेपतुल्ला या कलराज मिश्र से मंत्री पद से इस्तीफ़ा लिया जा सकता है।

परिवारवाद की राजनीति का यह दूसरा दौर चल रहा हैं जहां सिर्फ राजनीति या सत्ता अहम हो गई है। अब विचारधारा की कोई जगह नहीं है। परिवारवाद का विस्तार अब सिर्फ एक पार्टी में रह कर ही नहीं हो रहा, इसके लिए ज़रूरी हो तो एक ही परिवार के दो सदस्य भी अलग-अलग विचारधारा के राजनीतिक दल में जा सकते हैं बशर्ते उन्हें टिकट मिलने या मंत्री बनाने की गारंटी मिली हो।

ये नेता घर पर सुबह नाश्ते की टेबल पर साथ होते हैं। एक साथ चाय पर चर्चा करते हैं। अपनी रणनीति साझा करते हैं और फिर अपनी अपनी गाड़ियों से निकल जाते हैं एक दूसरे की विरोधी पार्टियों के प्रचार के लिए।

स्वामी प्रसाद मौर्य 

यूपी की दलित राजनीति का बड़ा नाम है स्वामी प्रसाद मौर्य का। स्वामी प्रसाद मौर्य एक ज़माने तक बीएसपी में रहे, प्रदेश अध्यक्ष बने, मायावती सरकार में साल 2007 में मंत्री भी बने। जब 2012 में मायावती की सरकार चली गई तो समाजवादी पार्टी में जाने की कोशिश की लेकिन शायद बात नहीं बन पाई तो फिर 2017 तक आते-आते बीएसपी की दलित नीतियों से उनका मोहभंग हो गया। दलितों की खातिर बीजेपी में शामिल हो गए, विधायक बने और योगी सरकार में केबिनेट मंत्री भी। साल 2019 में अपनी बेटी संघमित्र मौर्य को बीजेपी का सांसद भी बनवा दिया लेकिन इस बार चुनाव से पहले स्वामीप्रसाद मौर्य ने समाजवादी पार्टी की साइकिल की सवारी कर ली। लोगों को लगा कि अब बेटी संघमित्र मौर्य भी साथ चली जाएंगी लेकिन अभी तो 2024 तक सांसद रह सकती हैं, सो वो पिता के साथ नहीं गई, बीजेपी में ही हैं।

Dynasty politics in Indian democracy  - Satya Hindi

समाजवादी पार्टी में वंशवाद 

समाजवादी पार्टी से नेताजी का घर छोड़कर उनके छोटे बेटे की बहू अपर्णा यादव ने अब बीजेपी के कमल को हाथ में ले लिया है। नेताजी अभी अपने दूसरे बेटे अखिलेश यादव के साथ ही हैं। नेताजी के एक और भाई हैं अभयराम यादव, इनके बेटे हैं धर्मेन्द्र यादव और बेटी हैं संध्या यादव। धर्मेन्द्र यादव समाजवादी पार्टी के टिकट पर तीन बार बदायूं से सांसद रहे हैं। अभी पार्टी का प्रचार कर रहे हैं लेकिन उनकी बहन संध्या बीजेपी के लिए प्रचार कर रही हैं। उनके पति अनुजेश यादव भी उनके साथ हैं। 

Dynasty politics in Indian democracy  - Satya Hindi

यूपी के सहारनपुर की राजनीति का बड़ा नाम रहा काजी रशीद मसूद। कांग्रेसी मसूद आठ बार सांसद रहे। उनके दो भतीजे हैं इमरान मसूद और नोमान मसूद, दोनों जुड़वा भाईं, दोनों अलग अलग पार्टी में हैं। इमरान मसूद जिन पर राहुल गांधी भरोसा करते थे, वो समाजवादी पार्टी में चले गए हैं जबकि नोमान बहुजन समाज पार्टी के सहारे आगे बढ़ने की कोशिश में है। पूर्वांचल की राजनीति की बड़ा नाम -डॉन मुख्तार अंसारी, वो इस वक्त जेल में है। इनके  दो भाई हैं बहुजन समाज पार्टी से सांसद अफजाल अंसारी और दूसरे भाई हैं सिबगतुल्ला अंसारी, उन्होंने समाजवादी पार्टी की साइकिल पर सवारी कर ली है,लेकिन दूसरा रास्ता भी तलाश सकते हैं।

अंबेडकर नगर इलाके में एक बड़ा नाम है राकेश पांडेय, साल 2007 में जब बीएसपी ने ब्राह्मणों के साथ करीबी रिश्ता बनाया, उस वक्त 2009 में राकेश पांडेय बीएसपी से सांसद बन गए, मायावती के साथ रहे । साल 2019 में अपने बेटे रितेश पांडेय को भी मायावती से टिकट दिलवा दिया। राकेश पांडेय को अब इस चुनाव से पहले लगा कि साइकिल पर राजनीतिक रफ्तार पकड़ी जा सकती है, सो वो अखिलेश के साथ हो लिए। बेटा रितेश अभी बीएसपी का ही प्रचार कर रहे हैं।

विचार से और खबरें

अपना दल में परिवारवाद 

पूर्वांचल की ही एक प्रमुख पार्टी मानी जाती है अपना दल।  अपना दल सोनेलाल ने बनाया था लेकिन उनके निधन के बाद इसके दो हिस्से हो गए। सोनेलाल पटेल की पत्नी कृष्णा पटेल ने अपनी एक बेटी पल्लवी पटेल को अपनी जगह राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया तो दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल को यह मंज़ूर नहीं हुआ।

Dynasty politics in Indian democracy  - Satya Hindi
अनुप्रिया ने खुद को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष घोषित कर दिया। इस पर मां ने उन्हें पार्टी से निकाल दिया तो पार्टी दो हिस्सों में बंट गई- अपना दल (कमेरावादी)- इसकी नेता कृष्णा पटेल और पल्लवी पटेल  तो दूसरी बेटी अनुप्रिया पटेल ने अपनी पार्टी को नाम दिया- अपना दल (सोनेलाल)। अनुप्रिया पटेल इस वक्त बीजेपी के साथ हैं तो कृष्णा पटेल की पार्टी समाजवादी पार्टी की सरकार बनाने में लगी हैं।
इन परिवारों और नेताओं के अलावा भी दर्जनों नाम आप अपने-अपने इलाकों में गिन सकते हैं। देश में लोकतंत्र का झंडा थामे रखने की ज़िम्मेदारी रखने वाले इन नेताओं और पार्टियों का अंदरूनी लोकतंत्र से कोई वास्ता नहीं है।
वो कभी विचारधारा तो कभी धर्म या जाति के नाम पर हमें बांटते रहते हैं और हम आंखें मूंदें, नारे लगाते उनके पीछे चलते रहते हैं ताकि देश का विकास हो सके। राजनीति के इस हमाम में सब ....हैं, लेकिन दोष सिर्फ उनका नहीं हैं, ज़िम्मेदारी हमारी भी है, आंखें खोलने की, सच को सच की तरह देखने की,जागने की, जितना जल्दी जाग जाएंगें, उतना बेहतर होगा।
सत्य हिन्दी ऐप डाउनलोड करें

गोदी मीडिया और विशाल कारपोरेट मीडिया के मुक़ाबले स्वतंत्र पत्रकारिता का साथ दीजिए और उसकी ताक़त बनिए। 'सत्य हिन्दी' की सदस्यता योजना में आपका आर्थिक योगदान ऐसे नाज़ुक समय में स्वतंत्र पत्रकारिता को बहुत मज़बूती देगा। याद रखिए, लोकतंत्र तभी बचेगा, जब सच बचेगा।

नीचे दी गयी विभिन्न सदस्यता योजनाओं में से अपना चुनाव कीजिए। सभी प्रकार की सदस्यता की अवधि एक वर्ष है। सदस्यता का चुनाव करने से पहले कृपया नीचे दिये गये सदस्यता योजना के विवरण और Membership Rules & NormsCancellation & Refund Policy को ध्यान से पढ़ें। आपका भुगतान प्राप्त होने की GST Invoice और सदस्यता-पत्र हम आपको ईमेल से ही भेजेंगे। कृपया अपना नाम व ईमेल सही तरीक़े से लिखें।
सत्य अनुयायी के रूप में आप पाएंगे:
  1. सदस्यता-पत्र
  2. विशेष न्यूज़लेटर: 'सत्य हिन्दी' की चुनिंदा विशेष कवरेज की जानकारी आपको पहले से मिल जायगी। आपकी ईमेल पर समय-समय पर आपको हमारा विशेष न्यूज़लेटर भेजा जायगा, जिसमें 'सत्य हिन्दी' की विशेष कवरेज की जानकारी आपको दी जायेगी, ताकि हमारी कोई ख़ास पेशकश आपसे छूट न जाय।
  3. 'सत्य हिन्दी' के 3 webinars में भाग लेने का मुफ़्त निमंत्रण। सदस्यता तिथि से 90 दिनों के भीतर आप अपनी पसन्द के किसी 3 webinar में भाग लेने के लिए प्राथमिकता से अपना स्थान आरक्षित करा सकेंगे। 'सत्य हिन्दी' सदस्यों को आवंटन के बाद रिक्त बच गये स्थानों के लिए सामान्य पंजीकरण खोला जायगा। *कृपया ध्यान रखें कि वेबिनार के स्थान सीमित हैं और पंजीकरण के बाद यदि किसी कारण से आप वेबिनार में भाग नहीं ले पाये, तो हम उसके एवज़ में आपको अतिरिक्त अवसर नहीं दे पायेंगे।
विजय त्रिवेदी
सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें

अपनी राय बतायें

विचार से और खबरें

ताज़ा ख़बरें

सर्वाधिक पढ़ी गयी खबरें