देश की राजनीति को अक्सर वंशवाद और परिवारवाद से जोड़ा जाता रहा है। ऐसे बहुत से परिवार हैं जिनके घर में कई पीढ़ियों से राजनीतिक सीढ़ियां चढ़ी जा रही हैं और उनका दखल और दबदबा बना हुआ है। एक जमाने तक कांग्रेस को परिवारवाद या वंशवाद के लिए निशाने पर लिया जाता था, लेकिन आज की राजनीति की हकीकत यह है कि शायद ही कोई राजनीतिक दल परिवारवाद की इस बीमारी से अछूता हो जिससे राजनीतिक दलों में ईमानदारी से बरसों बरस काम करने वाले कार्यकर्ताओं और नेताओं को तो मौका नहीं मिल पाता लेकिन राजनीतिक परिवार से जुड़े बच्चे देखते-देखते विधायक, सांसद और मंत्री बनते चले जाते हैं,पार्टी के अध्यक्ष हो जाते हैं।
परिवारवाद के कैंसर से जूझता भारतीय लोकतंत्र!
- विचार
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- 18 Feb, 2022

भारतीय राजनीति में परिवारवाद गहराई तक पहुंच चुका है और राष्ट्रीय राजनीतिक दलों से लेकर कई क्षेत्रीय दलों तक में वंशवाद की बेल लगातार बढ़ रही है।
पार्टियों की चुनाव समितियों या संसदीय बोर्ड में शायद ही कोई किसी राजनेता के परिवार के किसी सदस्य के नाम का विरोध करता दिखाई देता हो और अगर कभी उसे मौका नहीं दिया जाता तो उसका कारण वंशवाद का विरोध नहीं, पार्टी की अंदरूनी राजनीति होती है। विरोध इस बात पर नहीं है कि राजनेताओं के बच्चों की राजनीति में एंट्री बंद कर दी जाए लेकिन इतना तो हो सकता है कि किसी कार्यकर्ता का हक नहीं मारा जाए।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हमेशा से ही राजनीतिक वंशवाद का विरोध करते रहे हैं लेकिन बीजेपी में यह वंशवाद और परिवारवाद तेजी से जड़ पकड़ रहा है। प्रधानमंत्री ने अब नया शब्द गढ़ा है –‘ घोर परिवारवादी’।