भारत में लोकतंत्र है, ये भ्रम बना रहना चाहिये । क्योंकि ये भ्रम अच्छा है । इससे हमें अपने होने का एहसास बना रहता है । और अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर गौरव भाव भी । लेकिन ये लोकतंत्र क्या वही है जिससे हम रूबरू रहे हैं या हम जिसको सोचते समझते बड़े हुए हैं जिसमें हमें न तो कहने के पहले कुछ सोचना पड़ता था और न ही सोचने के पहले अपने पर ब्रेक लगाना पड़ता था । अब हम सोचते भी हैं और सोचने के पहले भी सोचते हैं कि क्या ये कहना सही होगा, कहीं ऐसा न हो कि किसी की धार्मिक भावनाएं आहत हो जाये । कहीं कोई मेरे ख़िलाफ़ एफ़आईआर न करा दें और रात के दो बजे पुलिस आकर हमें गिरफ़्तार न कर ले । और फिर अदालतों के चक्कर लगाते लगाते दिन और महीने बीते ।

संसद और सरकार पूरी तरह से एक व्यक्ति के सामने नतमस्तक है और न्यायपालिका का एक हिस्सा सरकार को खुश करने के लिये फ़ैसले कर रहा है, नौकरशाही और सरकारी संस्थान का बेजा इस्तेमाल विपक्षी दलों को ठिकाने लगाने के लिये किया जा रहा है।...
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।