दिल्ली पुलिस की मौत हो गयी है। देश के नागरिकों को इसका शोक मनाना चाहिये। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नक़ाबपोशों ने जो तांडव किया, उसे पूरे देश ने देखा। पूरे देश ने देखा कि कैसे सत्तर नक़ाबपोश गुंडे कैंपस में घुसे, एक हॉस्टल से दूसरे हॉस्टल में हंगामा करते रहे, छात्रों का सिर फोड़ा, हाथ-पैर तोड़े, सार्वजनिक संपत्ति को नुक़सान पहुँचाया और दिल्ली पुलिस कहती है कि उसके पास इस घटना के सबूत नहीं है क्योंकि सीसीटीवी फ़ुटेज डैमेज हो गयी हैं। जिस घटना पर पूरे देश में लोग उबल रहे हैं, उस पर कहने को दिल्ली पुलिस के पास कुछ नहीं है।

जेएनयू में हुई हिंसा को लेकर दिल्ली पुलिस सवालों के घेरे में है। दिल्ली पुलिस ने शपथ तो संविधान का पालन करने की ली है लेकिन ऐसा लगता है कि वह किसी पार्टी विशेष के घोषणा पत्र की शपथ ले चुकी है और पूरी निर्लज्जता के साथ उस पार्टी के संविधान को लागू करने के लिए काम कर रही है। दिल्ली पुलिस उन बच्चों के साथ नहीं है जिनका सिर फोड़ा गया, जिनके हाथ-पैर तोड़े गये। वह उन गुंडों के साथ है जिन्होंने जेएनयू में घुसकर बच्चों और शिक्षकों को पीटा।
दिल्ली पुलिस बजाय इस घटना की जाँच करने के जाँच कर रही है इसके पहले की घटना की जिसे ज़्यादा से ज़्यादा दो गुटों के बीच झगड़ा या मारपीट कहा जा सकता है। निश्चित तौर पर जिन छात्रों ने सर्वर रूम में तोड़फोड़ की है उनके ख़िलाफ़ कार्रवाई हो और होनी भी चाहिये। पर क्या इस घटना की तुलना जेएनयू में हुई बर्बरता की घटना से की जा सकती है?
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।