सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अयोध्या में राम मंदिर बनाने के लिए ट्रस्ट की घोषणा हो चुकी है। सभी को पता है कि राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद कोई धार्मिक प्रोजेक्ट नहीं था, वह एक राजनीतिक प्रोजेक्ट था। इस विवाद का संचालन करने वालों को भारी राजनीतिक लाभ भी मिला। बाबरी मसजिद को विवाद में लाने की आरएसएस की जो मूल योजना थी वह मनोवांछित फल दे चुकी है। आज केंद्र सहित अधिकतर राज्यों में आरएसएस के राजनीतिक संगठन, बीजेपी की सरकार है।
बीजेपी को यह सफलता एक दिन में नहीं हासिल हुई। 1946 में मुहम्मद अली जिन्ना के “डायरेक्ट एक्शन” के आह्वान के बाद जब पंजाब और बंगाल में सांप्रदायिक दंगे शुरू हुए तो आरएसएस के कार्यकर्ताओं ने दंगाग्रस्त इलाक़ों में हिन्दुओं की बहुत मदद की थी। आरएसएस के कार्यकर्ताओं की लोकप्रियता अविभाजित पंजाब और बंगाल में बहुत ही ज़्यादा थी। उन दिनों आरएसएस का अपना कोई राजनीतिक संगठन नहीं था लेकिन यह माना जाता था कि जिसको भी आरएसएस वाले मदद करेंगे, उसे चुनावी सफलता मिलेगी। लेकिन आज़ादी मिलने के छह महीने के अन्दर ही महात्मा गाँधी की हत्या हो गयी।
गाँधी जी की हत्या नाथूराम गोडसे ने की थी लेकिन उसके साथ आरएसएस के सर संघचालक रहे एम.एस. गोलवलकर और उनकी विचारधारा के पुरोधा वी.डी. सावरकर भी संदेह के आधार पर गिरफ्तार किये गये थे और यह आरएसएस के लिए बड़ा झटका था। बाद में गोलवलकर और सावरकर छूट गए।
ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीति
स्थापना के एक दशक बाद जनसंघ के सामने एक बड़ा अवसर आया जब डॉ. राम मनोहर लोहिया ने ग़ैर-कांग्रेसवाद की राजनीति का नारा देकर अपनी संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के साथ स्वतंत्र पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी और भारतीय जनसंघ का गठबंधन बनाया और 1963 में चार सीटों के लोकसभा उपचुनाव में जाने का फ़ैसला किया। चारों पार्टियों के सर्वोच्च नेताओं को चुनाव लड़ाया गया। डॉ. लोहिया, आचार्य कृपलानी और मीनू मसानी तो जीत गए लेकिन दीन दयाल उपाध्याय जौनपुर से चुनाव हार गए।
उपचुनाव में हार के बावजूद जनसंघ को लाभ यह मिला कि उस समय तक राजनीतिक अछूत बने रहने का उसका कलंक धुल गया और मुख्य पार्टियों से बातचीत का सिलसिला शुरू हो गया। उसके चार साल बाद 1967 में जब राज्यों में संयुक्त विधायक दल (संविद) की सरकारों के प्रयोग हुए तो उत्तर भारत के कई राज्यों में जनसंघ के विधायक भी मंत्री बने। अब आरएसएस की राजनीतिक शाखा मुख्यधारा में आ चुकी थी।
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में आरएसएस से जुड़े लोग अन्य संगठनों के ज़रिये बड़े पैमाने पर काम कर ही रहे थे। असली ताक़त जनसंघ को तब मिली जब इंदिरा गाँधी के ख़िलाफ़ सभी विपक्षी पार्टियां एकजुट हुईं और जयप्रकाश नारायण के आन्दोलन में जनसंघ के नेता भी शामिल हो गए। नतीजा यह हुआ कि जब 1977 में जनता पार्टी का गठन हुआ तो उसमें भारतीय जनसंघ बड़े घटक में रूप में शामिल हुई।
1980 में जनता पार्टी महज ढाई साल में ही टूट गयी। इसका कारण यह था कि बड़े समाजवादी नेता मधु लिमये ने मांग कर दी थी कि जनता पार्टी में जो लोग भी शामिल हैं, वे किसी अन्य राजनीतिक संगठन में न रहें।
मधु लिमये ने हमेशा यही माना कि आरएसएस एक राजनीतिक संगठन है और हिन्दू राष्ट्रवाद उसकी मूल राजनीतिक विचारधारा है। आरएसएस ने अपने लोगों को पार्टी से अलग कर लिया और भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। शुरू में इस पार्टी ने उदारतावादी राजनीतिक सोच को अपनाने की कोशिश की। दीन दयाल उपाध्याय के एकात्म मानववाद और गाँधीवादी समाजवाद जैसे राजनीतिक शब्दों को अपनी बुनियादी सोच का आधार बनाने की कोशिश की। लेकिन जब 1984 के लोकसभा चुनाव में 542 सीटों वाली लोकसभा में बीजेपी को केवल दो सीटें मिलीं तो उदार राजनीतिक संगठन बनने के विचार को हमेशा के लिए दफन कर दिया गया।
जनवरी, 1985 में कोलकाता में आरएसएस के शीर्ष नेताओं की बैठक हुई जिसमें अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी को भी बुलाया गया और साफ़ बता दिया गया कि अब गाँधीवादी समाजवाद जैसे शब्दों को भूल जाइए और पार्टी को हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति के हिसाब से चलाया जाएगा।
विहिप, बजरंग दल को दी जिम्मेदारी
यह भी तय किया गया कि अयोध्या में बाबरी मसजिद-रामजन्मभूमि विवाद की राजनीति का जो राजनीतिक मोबिलाइज़ेशन बहुत समय से चला आ रहा था उसको और मजबूत किया जाएगा। आरएसएस के दो संगठनों, विश्व हिन्दू परिषद (विहिप) और बजरंग दल को इस प्रोजेक्ट को चलाने का जिम्मा दिया गया। विश्व हिन्दू परिषद की स्थापना 1966 में हो चुकी थी लेकिन तब यह संगठन उतना सक्रिय नहीं था। 1985 के बाद इसे सक्रिय किया गया।
1985 से अब तक बीजेपी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति को ही अपना स्थायी भाव मानकर चल रही है। बीजेपी के लोगों ने पूरी तरह से समर्पित होकर अपनी हिन्दू राष्ट्रवाद की राजनीति की सफलता के लिए काम किया। उन्हें लाभ यह मिला कि कांग्रेस और अन्य सेक्युलर पार्टियों ने अपना काम ठीक से नहीं किया और इसलिए देश में हिन्दू राष्ट्रवाद का ख़ूब प्रचार-प्रसार हो गया।
बीजेपी ने बहुत ही कुशलता से दिन-रात “हिन्दू धर्म” और “हिन्दुत्व” के बीच की दूरी को मिटाने की कोशिश की। पार्टी नेताओं ने सावरकर की “हिन्दुत्व” की राजनीति को ही “हिन्दू धर्म” बताने का अभियान चलाया। नतीजा यह हुआ कि बड़ी संख्या में हिन्दू धर्म के अनुयायी उसके साथ जुड़ गए।
पिछले तीस वर्षों में आरएसएस ने राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद के मुद्दे को ज़बरदस्त हवा दी। कुछ गै़ैर-ज़िम्मेदार मुसलमान उनके हाथों में खेलने लगे। बीजेपी के बड़े नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने सोमनाथ से अयोध्या तक की रथ यात्रा की। गाँव-गाँव से नौजवानों को भगवान राम के नाम पर इकट्ठा किया गया और एक बड़ी राजनीतिक जमात तैयार कर ली गयी।
बाबरी मसजिद के नाम पर मुनाफ़ा कमा रहे कुछ ग़ैर-ज़िम्मेदार मुसलमानों ने वही किया जिससे आरएसएस को फायदा हुआ। हद तो तब हो गयी जब मुसलमानों के नाम पर सियासत कर रहे लोगों ने 26 जनवरी के बहिष्कार की घोषणा कर दी। बीजेपी को इससे बढ़िया गिफ्ट दिया ही नहीं जा सकता था।
अब स्थिति यहाँ तक पहुंच गयी है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता चुनाव में किये गए वायदों को पूरी तरह से दरकिनार करके “हिन्दू गौरव” के मुद्दों पर चुनाव लड़ने में कोई संकोच नहीं करते। दिल्ली विधानसभा का चुनाव इसका सबसे ताज़ा उदाहरण है। आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने पूरे चुनाव को अपने कार्यकाल के काम से जोड़ा लेकिन बीजेपी के गली-मोहल्ले से लेकर शीर्ष नेता तक हिन्दू भावनाओं को ही संबोधित करते रहे।
“पोलस्ट्रेट” नाम के संगठन के ताज़ा सर्वे के मुताबिक़ इस बार दिल्ली की जनता की प्राथमिकताएं शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी और बिजली हैं। आम आदमी पार्टी के नेताओं ने इन्हीं बिन्दुओं पर मतदाताओं को केन्द्रित करने की रणनीति पर काम किया लेकिन बीजेपी के नेताओं का फ़ोकस हिंदुस्तान-पाकिस्तान, शाहीन बाग़, कश्मीर और राम मंदिर पर रहा।
बीजेपी के नेताओं ने आम आदमी पार्टी और केजरीवाल को शाहीन बाग़ का समर्थक बताकर उसे हिन्दू विरोधी साबित करने के प्रोजेक्ट पर भी बहुत मेहनत की। लेकिन केजरीवाल ने एक टीवी कार्यक्रम में सस्वर हनुमान चालीसा का पाठ करके उन्हें हिन्दू विरोधी साबित करने वाले अभियान को नाकाम करने की कोशिश की।
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