कोरोना का संकट तो देर-सबेर टल ही जाएगा। हो सकता है लाखों या फिर करोड़ों लोगों की जान लेकर ही कोरोना देवी का ग़ुस्सा शांत हो। लेकिन क्या कोरोना के बाद की दुनिया वैसी ही रहेगी जैसी कोरोना के पहले थी? क्या हमारी और आपकी ज़िंदगी वैसे ही फिर पटरी पर आ जाएगी जैसे हम पहले घर से निकल कर बाज़ार या मॉल हो आया करते थे? हो सकता है कुछ भी न बदले या फिर सब कुछ ही बदल जाए। और हो सकता है कि एक ऐसी दुनिया हमारे और आपके सामने आए जिसे हम पहचान ही न पाएँ।

कोरोना वायरस से पूरी दुनिया सहमी हुई है। ऐसे में जब मनुष्य को यह मुग़ालता हो गया था कि वह प्रकृति पर विजय पा गया है तब एक न दिखने वाला जीव उसके पूरे जीवन को निर्वीर्य कर देता है। इतना बेबस इंसान पहले कभी नहीं था। इतना डरा हुआ, इतना सहमा हुआ। दोनों विश्व युद्ध से पूरा विश्व प्रभावित नहीं था। हिटलर के डर का एक दायरा था। पर कोरोना का कोई दायरा नहीं है। क्या यह जीवन का कोई संकेत है?
यह सवाल सिर्फ़ मेरे सामने नहीं है। मैं पिछले दो हफ़्ते से घर पर हूँ। कहीं नहीं जाता। और जा भी नहीं सकता। बस अपने मोगू को डॉक्टर को दिखाने गया था। बाक़ी समय कमरे में बंद। मोगू, छोटू और बिल्लो को शायद कोई फ़र्क़ नहीं पड़ा है। लेकिन मुझे पड़ने लगा है। ऐसा लगता है कि समय का पहिया कहीं फँस गया है। घूम फिर कर वहीं आ जाता है। घर की उसी चहारदीवारी के चक्रव्यूह में अटक गया है। ऐसा चक्रव्यूह है जिसके सारे दरवाज़े खुले हैं पर बाहर कैसे जाना है, नहीं पता। कब जाना है, नहीं पता। बाहर जा भी पाएगा, नहीं पता। इसे बेबसी भी तो नहीं कह सकते। भारतीय परंपरा में कहा गया है कि सबसे ख़राब होता है जीवन मरण के चक्र में फँस कर रह जाना। वैदिक काल के बाद से पूरी संत परंपरा इसी जद्दोजहद में लगी रही है कि आख़िर इससे बाहर कैसे निकलें।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।