स्कॉटलैंड के शहर ग्लासगो में रविवार से विश्व जलवायु सम्मेलन शुरू हो रहा है। 1995 से हर साल होने वाले इस सम्मेलन को कांफ्रेंस ऑफ़ पार्टीज़ या COP सम्मेलन के नाम से पुकारा जाता है। 26वाँ वार्षिक सम्मेलन होने के कारण इस वर्ष के सम्मेलन का नाम COP26 रखा गया है। ग्लासगो के इस सम्मेलन में उन वायदों को पक्का किया जाएगा जो 2015 के पैरिस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन की रोकथाम के लिए किए गए थे।
विश्व मौसम विज्ञान संगठन के एक अनुमान के अनुसार पिछले साल भर में भारत को बाढ़ और तूफ़ान जैसी प्राकृतिक आपदाओं से 87 अरब डॉलर और चीन को 238 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है। आपदाओं की इसी बढ़ती विभीषिका को देखते हुए ग्लासगो के जलवायु सम्मेलन को मानवमात्र की रक्षा के अंतिम उपाय के रूप में देखा जा रहा है। इसीलिए भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन समेत विश्व के सौ से अधिक नेता सम्मेलन में भाग लेने के लिए पहुँच रहे हैं।
लगभग छह लाख की आबादी वाले ग्लासगो शहर में दुनिया भर से 30 हज़ार से अधिक नेता, राजनयिक, ग़ैर सरकारी संस्थाओं के कार्यकर्ता और पर्यावरणवादी जमा हो रहे हैं। धरने और विरोध प्रदर्शनों की आशंका को देखते हुए दस हज़ार से ज़्यादा पुलिसकर्मी तैनात किए गए हैं। शहर में कमरों की ऐसी किल्लत हो गई है कि आने वाले बहुत से लोगों को तंबुओं में रहना पड़ सकता है।
ग्लासगो जलवायु सम्मेलन के दो प्रधान लक्ष्य हैं। पहला लक्ष्य है तेज़ी से बढ़ते वायुमंडल के औसत तापमान को औद्योगिक क्रांति से पहले के औसत तापमान से 1.5 डिग्री सेल्शियस से ऊपर न जाने देना। यानी आज से 200 साल पहले वायुमंडल का जो औसत तापमान था उससे आज के वायुमंडल के औसत तापमान को 1.5 डिग्री से ज़्यादा न बढ़ने देना।
200 साल पहले की तुलना में वायुमंडल का औसत तापमान 1.1 डिग्री बढ़ चुका है और यदि ग्रीनहाउस गैसें इसी रफ़्तार से छोड़ी जाती रहीं तो बढ़कर 2.7 डिग्री तक पहुँच सकता है।
पर्यावरण को नुक़सान
वायुमंडल के तापमान में जिस बढ़ोतरी की बात हो रही है वह सुनने में बहुत मामूली लग सकती है। लेकिन धरती और उसके पर्यावरण के लिए इतनी सी बढ़ोतरी भी बड़ी घातक है। इसे यूँ समझिए कि हमारे शरीर का तापमान जब एक डिग्री बढ़ जाता है तो हमारा बदन टूटने लगता है और हम बुख़ार से पस्त हो जाते हैं। धरती के वायुमंडल का तापमान भी आधा या एक डिग्री बढ़ते ही ध्रुव और ग्लेशियर पिघलने लगते हैं और मौसमों में नाटकीय परिवर्तन होने लगते हैं। यानी धरती गर्मी के बुख़ार से ग्रस्त या बीमार हो जाती है।
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सम्मेलन का दूसरा लक्ष्य है धरती को बढ़ते तापमान के इसी बुख़ार से बचाने के लिए निर्माण और जीवन की शैली को बदलना। कार्बन गैसों को छोड़ने वाले जैव ईंधन का प्रयोग रोक कर सौर, पवन और हाइड्रोजन ऊर्जा जैसे अक्षय ऊर्जा साधनों को अपनाना। मिथेन गैसों को छोड़ने वाले पशुपालन को कम करने के लिए पशुमाँस की खपत कम करना और भारत जैसे विकासोन्मुख देशों में जैव ईंधनों और माँस की खपत को कम करने के लिए स्वच्छ तकनीक और आर्थिक अनुदान मुहैया कराना।
इन लक्ष्यों को हासिल करने के लिए दुनिया के देश 2015 के पैरिस सम्मेलन के बाद से स्वेच्छा से अपनी ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन घटाने और उसे घटा कर शून्य तक ले जाने की योजनाओं के एलान करते आ रहे हैं।
ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को शून्य करने का मतलब है उनके उत्सर्जन की मात्रा और उन्हें सोखने वाले पेड़ों के बीच संतुलन कायम करना। इसे नेट ज़ीरो कहा जाता है। नेट ज़ीरो हासिल करने वाला देश वायुमंडल में उतनी ही ग्रीनहाउस गैसें छोड़ता है जितनी उसके भूभाग पर लगे पेड़ या गैस सोखने वाली मशीनें सोख सकें।
तापमान में बढ़ोतरी रोकने की कोशिश
कार्बन डाइऑक्साइड, कार्बन मोनोक्साइड और मिथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसें सूरज की गर्मी को धरती की सतह से परावर्तित होने से रोकती हैं जिससे वायुमंडल गर्म होने लगता है। इसीलिए ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नेट ज़ीरो पर लाने की कोशिश हो रही है ताकि वायुमंडल के तापमान में हो रही बढ़ोतरी को रोका जा सके। इस काम में उन्हीं देशों से पहल की उम्मीद की जा रही है जिनके औद्योगिक विकास के कारण अब तक तापमान बढ़ा है और बढ़ रहा है।
चीन सबसे आगे
इन देशों में अमेरिका, यूरोपीय संघ, जापान और अब चीन का नाम सबसे ऊपर आता है। ऐतिहासिक रूप से तो अमेरिका, यूरोप, रूस और जापान ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में सबसे आगे रहे हैं। लेकिन अब चीन ने सभी को पीछे छोड़ दिया है।
अकेला चीन वायुमंडल में छोड़ी जा रही ग्रीनहाउस गैसों के 27% का उत्सर्जन करता है। अमेरिका का उत्सर्जन घट कर 11% हो गया है। यूरोपीय संघ के 27 देश कुल मिला कर 7%गैसों का उत्सर्जन करते हैं, भारत 6.6%, रूस 3.1%, ब्रज़ील 2.8% और जापान का उत्सर्जन 2.2% से भी कम है।
यानी अकेला चीन अमेरिका, यूरोपीय संघ, भारत और जापान के बराबर ग्रीनहाउस गैसें छोड़ रहा है। फिर भी अफ़सोस की बात है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग और रूसी राष्ट्रपति व्लादिमिर पुतिन जलवायु संमेलन में भाग लेने ग्लासगो नहीं आ रहे।
चीनी राष्ट्रपति ने अपने उत्सर्जन में कटौती के लिए दो बड़ी घोषणाएँ ज़रूर की हैं। उन्होंने कहा है कि चीन 2060 तक उत्सर्जन में नेट ज़ीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा और 2030 के बाद गैसों के उत्सर्जन में कोई सालाना बढ़ोतरी नहीं होगी।
लेकिन जलवायु वैज्ञानिक चीन के इस एलान से कतई संतुष्ट नहीं हैं। अकेला चीन इस समय दुनिया के सारे विकसित देशों से ज़्यादा ग्रीनहाउस गैसें छोड़ रहा है। उसकी मुख्य वजह है पेट्रोल और डीज़ल पर चलने वाले वाहन, इस्पात कारख़ाने और कोयले से चलने वाले एक हज़ार से ज़्यादा बिजलीघर। चीन का उत्सर्जन पिछले दशक में बढ़कर डेढ़ गुना हो गया है। चीन कहता है कि वह 2030 तक इस बढ़ोतरी को रोक लेगा। लेकिन तब तक उत्सर्जन कम से कम डेढ़ गुना और बढ़ जाएगा।
2030 तक चीन पूरी दुनिया का 40% से ज़्यादा उत्सर्जन करने लगेगा। इस बढ़ोतरी के चीन की जलवायु के लिए तो भयंकर दुष्परिणाम होंगे ही पड़ोसी भारत के लिए यह और भी ख़तरनाक साबित हो सकता है।
भारत में प्राकृतिक आपदाएँ बढ़ेंगी?
चीन के कोयला बिजलीघरों, इस्पात के कारख़ानों और वाहनों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें हिमालय के उन ग्लेशियरों के लिए घातक साबित हो सकती हैं जिनसे हिमालय से निकलने वाली गंगा, यमुना, सतलुज और ब्रह्मपुत्र जैसी नदियां सदानीरा बनी रहती हैं। चीन से होने वाले उत्सर्जन का प्रभाव हिमालय के वनों और भारत के मॉनसून पर भी पड़ सकता है जिससे भारत में प्राकृतिक आपदाएँ और बढ़ सकती हैं।
दुनिया के आधे से ज़्यादा कोयला बिजलीघर अकेले चीन में हैं। वह दुनिया का सबसे बड़ा इस्पात उत्पादक भी है। इस्पात कारख़ाने भी कोयले से ही चलते हैं। अपने कोयले के बिजलीघरों और इस्पात कारख़ानों को बचाने के लिए अभी तक चीन भारत जैसे विकासोन्मुखदेशों की आड़ में छिपता आया है। भारत ने भी अपने कोयला बिजलीघरों, ईंट के भट्ठों और इस्पात के कारख़ानों को बचाने और नेट ज़ीरो के दबाव से बचने के लिए विकसित देशों के ख़िलाफ़ चीन का साथ दिया है।
तीसरा सबसे बड़ा ग्रीनहाउस उत्सर्जक होने के बावजूद भारत की दलील है कि उसका प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन अभी भी बहुत कम है। इसलिए वह नेट ज़ीरो का लक्ष्य निर्धारित करने के लिए अभी तैयार नहीं है।
लेकिन भारत ने 2030 तक अपने उत्सर्जन में 2005 की तुलना में एक तिहाई कटौती करने, अपनी 40% बिजली को अक्षय ऊर्जा से बनाने और कार्बन सोखने के लिए करोड़ों पेड़ लगाने का वादा किया है।
स्वच्छ ऊर्जा की ओर दें ध्यान
ऐसा लगता है कि पिछले जलवायु सम्मेलनों की तरह ग्लासगो के सम्मेलन में भी भारत की रणनीति धनी देशों पर सौ अरब डॉलर की आर्थिक सहायता का और स्वच्छ तकनीक के हस्तांतरण का और कार्बन उत्सर्जन में और तेज़ कटौती का दबाव बनाए रखने की ही रहेगी। लेकिन भारत को चीन पर दबाव बनाने की रणनीति भी बनानी होगी। साथ ही तेल ऊर्जा से स्वच्छ ऊर्जा की तरफ़ जाने के बारे में भी गंभीरता से सोचना होगा।
भारत हर साल करीब 7 लाख करोड़ रुपए का तेल आयात करता है। इस तेल के प्रदूषण से बड़े और छोटे शहरों की हवा इतनी ज़हरीली हो चुकी है कि लाखों लोग साँस की बीमारियों और कैंसर से मर रहे हैं। यह भारत के अपने हित में है कि वह तेल के आयात पर ख़र्च हो रहे धन का कुछ हिस्सा बिजली और हाइड्रोजन से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने में ख़र्च करे। इससे शहरों की आबो-हवा तो साफ़ होगी ही, देश का ग्रीनहाउस उत्सर्जन भी कम होगा।
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