बुद्धिजीवी और असहिष्णु! यह बात विरोधाभासी लगती है, पर अपने देश में ऐसा ही है। विरोधी विचार के प्रति बुद्धिजीवियों के एक वर्ग की असहिष्णुता असीमित होती है। माथा देखकर तिलक लगाने की कहावत तो सुनी थी। आजकल पार्टी का चुनाव चिन्ह देखकर आलोचना या प्रशंसा का दौर चल रहा है। मॉब लिंचिंग किसे कहा जाएगा और उसे कितनी गंभीरता से लिया जाएगा, इसका फ़ैसला इससे होगा कि करने वाला कौन है? किसी सरकार की कामयाबी या नाकामी का फ़ैसला इस बात से तय होगा कि सरकार किसकी है?
सरकार की कामयाबी या नाकामी क्या इससे तय होगा कि सरकार किसकी है?
- विचार
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- 16 Apr, 2021

कूचबिहार में 10 अप्रैल को एक मतदान केंद्र पर भीड़ का सीआइएसएफ़ पर हमला चिंता का सबब नहीं बना, क्योंकि हमलावर एक धर्मनिरपेक्ष पार्टी के समर्थक थे। बिहार का एक पुलिस अफसर चोरों को पकड़ने बंगाल जाता है, वहाँ की सरकार को आधिकारिक सूचना देकर। स्थानीय पुलिस मदद नहीं करती और चोरों का गिरोह पुलिस अधिकारी को पीट-पीट कर मार डालता है।
राजा-महाराजाओं के ज़माने में दरबार में रत्न होते थे। कहते हैं अकबर के दरबार में नौ रत्न थे। जनतंत्र आने के बावजूद वह परंपरा ख़त्म नहीं हुई। इसलिए उन्हें सत्ता की संगत की आदत हो गई। अब आदत इतनी जल्दी कहाँ छूटती है। यह नशे की तरह होती है, जिसे छुड़ाने की कोशिश करो तो विदड्रॉल सिंपटम नज़र आते हैं। अपने देश में भी ऐसा ही हो रहा है। अजीब सरकार आई है। कह रही है कि बुद्धिजीवी पालेंगे ही नहीं। जो इस सांचे में रचे-बसे थे, उन्हें अपना लेने में भला क्या हर्ज था। नहीं किया तो खामियाजा तो भुगतना पड़ेगा। तो बुद्धिजीवियों के इस वर्ग ने मुनादी कर दी कि सात साल में मोदी सरकार ने कोई अच्छा काम किया ही नहीं। उलटे जनतंत्र ख़त्म कर दिया, संवैधानिक संस्थाओं की प्रतिष्ठा नष्ट कर दी और अधिनायकवादी तो है ही। छूट इतनी है कि प्रधानमंत्री और पूरी सरकार को गाली दी जा सकती है। देश के ख़िलाफ़ बोलना तो सामान्य बात है।
प्रदीप सिंह देश के जाने माने पत्रकार हैं। राजनीतिक रिपोर्टिंग का लंबा अनुभव है। आरएसएस और बीजेपी पर काफी बारीक समझ रखते हैं।