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इमरान प्रतापगढ़ीफ़ोटो साभार: ट्विटर/इमरान प्रतापगढ़ी

उधार के योद्धाओं के भरोसे कैसे लड़ेगी कांग्रेस?

वर्ष 2017 में गुजरात विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस के पक्ष में एक अवसर की तरह देख रहे थे। इसके पीछे दो मूल कारण थे। वर्ष 2000 के बाद पहला अवसर था जब गुजरात में बीजेपी मोदी से अलहदा किसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव लड़ रही थी। दूसरा कारण हाल के दिनों में गुजरात में उभरा पाटीदार आन्दोलन था। इस दरम्यान जातीय संघर्ष की हवा भी राजनीतिक नारों में गूँजने लगी थी। 

कांग्रेस के प्रति उदार भाव रखने वाले बुद्धिजीवियों को उम्मीद थी कि बदले हुए राजनीतिक परिवेश में कांग्रेस गुजरात में बाजी पलट देगी। हालाँकि ऐसा हुआ नहीं, लेकिन उस चुनाव ने कुछ गहरे चिन्ह छोड़े जो कांग्रेस के लिए सबक़ हो सकते थे और बीजेपी के लिए सतर्क होने का मौक़ा। सत्ता में वापसी के बाद बीजेपी ने पाटीदार आंदोलन तथा जातीय विभाजन की कोशिशों पर पानी डालने में कामयाबी हासिल करते हुए एक स्थायी सरकार दी। किंतु कांग्रेस ने शायद वह सबक़ अभी तक नहीं लिया।

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कांग्रेस की बड़ी चूक यह रही कि उसने अवसर का लाभ लेकर गुजरात में अपने संगठन के आधार को मज़बूत करने की दूरगामी नीति की बजाय उधार के योद्धाओं के भरोसे मैदान में उतरने का रास्ता अख्तियार कर लिया। राहुल गांधी गुजरात कांग्रेस के नेताओं से ज़्यादा आंदोलन के उभार से निकले युवाओं पर भरोसा जता रहे थे। बीच चुनाव ऐसा लगने लगा था कि राहुल गांधी को गुजरात कांग्रेस अध्यक्ष भरत सिंह सोलंकी, कांग्रेस नेता शक्ति सिंह गोहिल और प्रभारी अशोक गहलोत से ज़्यादा हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी और अल्पेश ठाकोर पर भरोसा है। इन तीन युवाओं के साथ अंदरखाने हो रही बैठकों, चर्चाओं और सांठगांठ की ख़बरें उस दौरान मीडिया में आने लगी थीं। पार्टी का संगठन और संगठन के नेता हाशिये पर थे और कांग्रेस की तरफ से सीधा मोर्चा मानो यह तिकड़ी ले रही हो।

टिकट बँटवारे ने काफ़ी कुछ साफ़ भी कर दिया। जिग्नेश मेवानी निर्दलीय चुनाव लड़े तो कांग्रेस ने उनके ख़िलाफ़ अपना उम्मीदवार नहीं उतारा। अल्पेश ठाकोर कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़े। हार्दिक पटेल चुनाव नहीं लड़े लेकिन कांग्रेस के लिए मीडिया और जनसभाओं में ख़ूब बैटिंग की। इसपर बीजेपी नेताओं ने यहाँ तक कहना शुरू कर दिया था कि कांग्रेस ने अपना चुनाव आउटसोर्स कर लिया है। जो हुआ वह इतिहास था। लेकिन इतिहास की उस चूक का मोल कांग्रेस गुजरात में आज भी चुका रही है। 

यह इतिहास की गुजरी बातें थीं। लेकिन वर्तमान में कांग्रेस की रीति-नीति में सबक़ लेकर सुधार की बजाय ग़लती को दोहराया ही जा रहा है। अपने राष्ट्रीय अध्यक्ष के चुनाव को लेकर आंतरिक द्वन्द्व से जूझ रही कांग्रेस ने 2022 में होने वाले यूपी चुनाव से पहले वैसी ही ग़लती दोहराई है। ख़बरों के मुताबिक़ कांग्रेस ने मंचीय शायर इमरान प्रतापगढ़ी को कांग्रेस अल्पसंख्यक मोर्चे का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया है।

इमरान प्रतापगढ़ी कांग्रेस से जुड़े रहे हैं। मुरादाबाद से पिछला लोकसभा चुनाव भी लड़े लेकिन हार गये। स्टार प्रचारक के रूप में भी कांग्रेस उनकी एक ख़ास समुदाय के बीच लोकप्रियता को भुनाती रही है। लेकिन संगठन को लेकर उनका कांग्रेस में अनुभव न के बराबर है।

उनके नाम के चयन के प्रति कांग्रेस के इस अगाध आकर्षण का एकमात्र जो कारण नज़र आता है वह यह है कि इमरान प्रतापगढ़ी अपनी महफ़िलों, ग़ज़लों और शेरो-शायरी में नरेंद्र मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ नफ़रत की हद तक अलफ़ाज़ उगलते रहे हैं।

ख़ैर, इमरान प्रतापगढ़ी अल्पसंख्यक मोर्चे के संगठन को किस नीचे तक लेकर जाते हैं, यह देखना शेष है। किंतु यदि सिर्फ़ इस आधार पर कांग्रेस ने इमरान प्रतापगढ़ी को एंटी-मोदी तबक़े के बीच लोकप्रियता के आधार पर अल्पसंख्यक मोर्चे का अध्यक्ष बनाया है तो यह 'आउटसोर्स' पद्धति को दोहराने का यूपी मॉडल साबित हो सकता है। 

congress leadership crisis and imran pratapgarhi selection - Satya Hindi
ऐसा लग रहा है कि राहुल गांधी के प्रभाव में आने के बाद कांग्रेस से 'संगठन संस्कृति' क्षीण होती गयी है और क्षणिक प्रसिद्धि के नैरेटिव खड़ा करने की संस्कृति को बढ़ावा मिलता गया है। संगठन का काम क्षणिक प्रसिद्धि पाने वाले नैरेटिव से बिलकुल अलहदा है। संगठन हर घड़ी, हर दिन, हर समय और हर परिवेश में गतिशील रहने वाली गतिविधि है। प्रसिद्धि से इसका कोई लेना देना नहीं होता। बीजेपी में सबसे कम प्रसिद्धि संगठन मंत्रियों की होती है, जबकि पूर्णकालिक पद भी इन्हीं का होता है। अत: यह पूर्णकालिक काम है। क्या कांग्रेस अपने पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं की संगठन में भूमिका को लेकर कभी चिंतित नज़र आई है? राहुल गांधी के बाद वाली कांग्रेस में तो इसको लेकर भी संशय है कि कांग्रेस में पूर्णकालिक कार्यकर्ता हैं भी या नहीं? यह संशय इसलिए कि अपने कार्यकाल के दौरान राहुल गांधी स्वयं कभी पूर्णकालिक अध्यक्ष के रूप में नहीं नज़र आये! 
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सभी दलों को अपने-अपने ढंग से अपना दलीय ढांचा खड़ा करने, उसे चलाने तथा उसकी रीति-नीति तय करने की स्वतंत्रता है। कांग्रेस ने पिछले वर्षों में जिस तरह अपने आधार को खोया है, वह उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़ा करता है। इन सवालों से भागकर वह राजनीति में टिकी रहेगी, ऐसा संभव नहीं है। कांग्रेस के लिए संकट यह नहीं है कि उसने सत्ता का जनादेश खोया है। उसका संकट यह है कि वह अपना जनाधार भी गँवाती जा रही है। जनादेश चला जाए तो सिर्फ़ सत्ता जाती है, किंतु जनाधार चला जाए तो पार्टी चली जाती है। जनाधार बचाने के लिए प्रसिद्धि पाने वाले नैरेटिव से निकलकर संगठन का हर दिन, हर पल, हर घड़ी सक्रिय रहना ज़रूरी है। कांग्रेस शायद इससे भटक कर काफी दूर निकल चुकी है। इतनी दूर जहाँ सिर्फ़ वीरान ही वीरान है। इस वीरान से निकलने के लिए उधार के योद्धा पर्याप्त नहीं होंगे।

(लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं।)

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शिवानंद द्विवेदी
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