वर्ष 2017 में गुजरात विधानसभा के लिए चुनाव हो रहे थे। कुछ राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस के पक्ष में एक अवसर की तरह देख रहे थे। इसके पीछे दो मूल कारण थे। वर्ष 2000 के बाद पहला अवसर था जब गुजरात में बीजेपी मोदी से अलहदा किसी मुख्यमंत्री के चेहरे पर चुनाव लड़ रही थी। दूसरा कारण हाल के दिनों में गुजरात में उभरा पाटीदार आन्दोलन था। इस दरम्यान जातीय संघर्ष की हवा भी राजनीतिक नारों में गूँजने लगी थी।
उधार के योद्धाओं के भरोसे कैसे लड़ेगी कांग्रेस?
- विचार
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- 6 Jun, 2021

कांग्रेस इमरान प्रतापगढ़ी को अल्पसंख्यक मोर्चे में लेकर आई है। वह क्या करेंगे, यह देखना शेष है। कांग्रेस ने पिछले वर्षों में जिस तरह अपने आधार को खोया है, वह उसकी कार्यशैली पर सवाल खड़ा करता है।
कांग्रेस के प्रति उदार भाव रखने वाले बुद्धिजीवियों को उम्मीद थी कि बदले हुए राजनीतिक परिवेश में कांग्रेस गुजरात में बाजी पलट देगी। हालाँकि ऐसा हुआ नहीं, लेकिन उस चुनाव ने कुछ गहरे चिन्ह छोड़े जो कांग्रेस के लिए सबक़ हो सकते थे और बीजेपी के लिए सतर्क होने का मौक़ा। सत्ता में वापसी के बाद बीजेपी ने पाटीदार आंदोलन तथा जातीय विभाजन की कोशिशों पर पानी डालने में कामयाबी हासिल करते हुए एक स्थायी सरकार दी। किंतु कांग्रेस ने शायद वह सबक़ अभी तक नहीं लिया।
लेखक डॉ. श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फ़ाउंडेशन में सीनियर रिसर्च फेलो तथा ब्लूम्सबरी से प्रकाशित गृह मंत्री अमित शाह की राजनीतिक जीवनी ‘अमित शाह एंड द मार्च ऑफ़ बीजेपी’ के लेखक हैं।