पिछले दिनों महाराष्ट्र में चले सियासी उठा-पटक का पटाक्षेप हो चुका है। महाविकास अघाड़ी सरकार में शिवसेना के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के खिलाफ बिगुल फूंककर शिवसेना के ही नेता एकनाथ शिंदे ने नए गठबंधन में भाजपा के साथ सरकार बना ली है। सियासी उठा-पटक के बाद सत्ता का चेहरा भले ही बदल गया है, लेकिन मुख्यमंत्री आज भी शिवसेना का ही है। हालांकि शिवसेना पर बाला साहेब की विरासत के दावे की यह लड़ाई अभी और लंबी चल सकती है।
महाराष्ट्र में चले इस घटनाक्रम ने 'वंशवादी राजनीति' की बहस को एकबार फिर चर्चा में ला दिया है। ऐसा इसलिए भी क्योंकि जब शिवसेना में बगावती घटनाक्रम सामने आये तब संजय राउत ने कहा था कि "शिवसेना छोड़कर जाने वाले 'अपने बाप' के नाम पर वोट मांगे, बाला साहेब ठाकरे के नाम पर नहीं।" राउत के इस बयान में वंशवाद की बुराई का अहंकारी उद्घोष था।
निस्संदेह भारत की राजनीति में वंशवाद एक चुनौती की तरह है। एक ऐसी चुनौती, जिसके बीज आजादी के बाद से अपनी जड़ें जमाए हैं। पचास के दशक में ही कांग्रेस ने देश की दलीय व्यवस्था में वंशवाद का जो बीज बोया, वो कालक्रम में फैलता ही गया।
यह कम या ज्यादा भारत की राजनीति के आचरण का हिस्सा भी बनता गया। दलों का गठन परिवार केन्द्रित होने लगा। जातीय गोलबंदी के वोटबैंक की बुनियाद पर टिके दलों का दायरा भी वंशवाद तक सीमित होता गया। फलत: आज भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टी, जदयू जैसे कुछ दलों को अपवाद मान लें तो लगभग सभी दलों का आधार वंशवाद केन्द्रित ही है।
वंशवाद की चर्चा करते हुए हमें इसके सामान्यीकरण से बचना होगा। नेता के बेटा का नेता बनना, वंशवाद नहीं है। किसी राजनीतिक दल पर सिर्फ एक 'परिवार विशेष' का सर्वकालिक कब्ज़ा होना वंशवाद है। किसी राजनीतिक परिवार का किसी राजनीतिक दल पर विरासत का दावा करना वंशवाद है। मसलन, दशकों से कांग्रेस की कमान पंडित जवाहरलाल नेहरू के वारिसों के हाथ में होना, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी की कमान मुलायम सिंह यादव के परिवार के हाथों होना, बिहार में राष्ट्रीय जनता दल की कमान लालू प्रसाद यादव के बेटों के हाथ में होना, वंशवाद है।
आजादी के बाद लगभग हर कालखंड में वंशवाद की आलोचना हुई है। पंडित नेहरु के कालखंड में डॉ लोहिया ने इसकी कठोरता से आलोचना की। डॉ लोहिया ने तो वंशवाद को राजतंत्र के समकक्ष तक कहा है। जार्ज फर्नांडिस सहित समाजवादी धड़े के अनेक नेताओं तथा चिंतकों ने वंशवाद को लोकतंत्र के लिए घातक माना है।
अभी हाल ही में प्रधानमंत्री मोदी ने स्वयं इस बुराई पर चिंता जताते हुए कहा कि “अगर किसी सांसद के परिजनों को टिकट नहीं देना पाप है तो भाजपा में इस पाप के लिए मैं जिम्मेदार हूं। मैंने तय किया कि ऐसे लोगों को टिकट नहीं दिया जाएगा। मैं वंशवाद की राजनीति के खिलाफ हूं।” यह बहुत बड़ा बयान है। इसके सन्देश गहरे हैं। पीएम मोदी के इस बयान में वंशवाद की बुराई के खिलाफ लड़ने का ईमानदार प्रयास भी दिखाई देता है।
संतोषजनक बात यह है कि भारत का लोकतंत्र जैसे-जैसे परिपक्व हो रहा है, वंशवादी राजनीति की जड़ें उतनी ही कमजोर हो रही हैं। विरासत से मिली सियासत पर दूसरी पीढ़ी के दावों को अपने दल में चुनौती भी मिल रही है। मिसाल के तौर पर देखें तो कांग्रेस की स्थिति को लेकर जब भी देश में कोई बहस छिड़ती है तो यह सवाल हर बार मौजूं होता है कि 'क्या अब कांग्रेस को 'गांधी' परिवार से मुक्त करके नये विकल्प की तरफ जाना चाहिए।' इस सवाल पर कांग्रेस में आंतरिक बिखराव भी है, गोलबंदी भी है और टूट भी है। मगर सवाल कांग्रेस का पीछा नहीं छोड़ता है।
बिहार में आरजेडी के अंतर्संघर्ष को उदाहरण के नाते देख सकते हैं। उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी के परिवार में बिखराव और टूट की एक मिसाल 2017 के विधानसभा चुनाव के दौरान घटित अहम् घटनाक्रम है। सपा में आंतरिक टूट की स्थिति अभी भी गाहे-बेगाहे उभर कर आती ही है।
वंशवाद आधारित दलों में विरासत पर परिवार के दावे के खिलाफ उठते स्वर भारत के लोकतंत्र के भविष्य के लिए अच्छा संकेतक है। इससे वंशवादी सोच हतोत्साहित होगी। किसी दल पर 'विरासती कब्जे' की भावना कमजोर होगी। आने वाले समय में परिवार केन्द्रित दलों को ऐसी और भी चुनौतियाँ उनके अपने दल में मिल सकती हैं। क्योंकि वंश के आधार पर दलों का सञ्चालन कठिन होगा। जनता भी अनेक मौकों पर वंशवाद को नकार रही है। अमेठी में राहुल गांधी की हार को इस परिप्रेक्ष्य में भी देखने की जरूरत है। आजमगढ़ में धर्मेन्द्र यादव की हार को इस रूप में देखा जा सकता है।
यह समझने की आवश्यकता है कि वंशवाद की बेल जितनी सिमटेगी, लोकतंत्र उतना ही मजबूत होगा। देश के सामने के यह साझी लड़ाई है। इसके खिलाफ जनता को भी लड़ना है और राजनीतिक दलों को भी विचार करना है।
(लेखक स्वतंत्र स्तंभकार एवं भाजपा के थिंकटैंक एसपीएमआरऍफ़ में सीनियर फेलो हैं)
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