नोटबंदी को लेकर 2016 में पूरे देश में तहलका मचा था। बहुत लोगों का रोज़ाना का कामकाज ठप्प हो गया था। सरकार का घोषित मक़सद मुद्रा के चलन में पसरी ग़ैर-क़ानूनी तरीक़ों से जुटाई करेंसी को निरस्त करना, उसे बाहर खुले में आने को मजबूर करना था। कथित मक़सद था अर्थ-जगत की सफ़ाई। इस सफ़ाई को बाक़ी सारी राष्ट्रीय -सामाजिक व्यवस्था की सफ़ाई की शुरुआत बताया गया था। तीन साल बीत गये हैं तबसे। 2016 के पहले के हालात से सब वाक़िफ हैं। आज 2019 के हालात को हम सब भोग रहे हैं। लगता है ’रोजा’ छुड़ाने गये थे और ’नमाज़’ गले पड़ गयी। काली और धूसर राजनीतिक-आर्थिक (कु) व्यवस्था का तांडव, अपनी मूल प्रकृति की तर्ज पर, यथावत और ज़्यादा नंगा नाच कर रहा है। शासक-समृद्ध तबक़ों की लालसा और हिमाकत और ज़्यादा उछाल मार रही है। उन्हें लगता है यह सत्तासीन राजनीतिक ज़िंदगी के सारे अरमान पूरा करने का सुनहरा मौक़ा है। शायद एकमेन। प्रकारान्तर से नोटबंदी के हादसे का अनचाहा किन्तु अपरिहार्य पुनर्मंचन।