'सबका साथ, सबका विकास' एक बहुत सही नारा और उद्देश्य है। नारों और प्रचार द्वारा तालियाँ बजवाई जा सकती हैं और जयकारे लगवाये जा सकते हैं। किन्तु इसे जनजीवन और राजकाज या गवर्नेन्स में लागू किये बिना यह नारा धोखा और यह उद्देश्य एक छलावा बन जाता है।
काला धन, उसका और उसके साथ जुड़े ग़ैर क़ानूनी धन का मिलाजुला राखनुमा सलेटी या ग्रे रूप में अभूतपूर्व सुरसा सा बढ़ता प्रसार, इस अनैतिक गतिविधि में सामान्य जन की प्रलोभनों द्वारा प्रेरित, उकसायी भागीदारी, आतंकवादियों की बढ़ी हरक़तों में दिखती उनकी अवैध धन-दौलत तक पहुँच, दिहाड़ी काम और अस्थाई रोजगार में गिरावट आदि साफ़ प्रमाण हैं कि राजकीय आर्थिक-वित्तीय आतंकवादनुमा 2016 की नोटबन्दी पूरी तरह नकारा निकली। दरअसल, घोषित मंशा से पूरी तरह उलटे काले-ग्रे धन को नवजीवन मिला।
कहने का मक़सद साफ़ है कि कमज़ोर तथा पिछड़े तबक़ों को नीतियों-कार्यक्रमों द्वारा ज़्यादा तरजीह, ज़्यादा भागीदारी और ज़्यादा लाभ दिये बिना सबका विकास नहीं हो सकता है।
लाखों-हज़ारों कागजी नकली कम्पनियों जैसे हथकंडों के सहारे घोषित-अघोषित रूप से राष्ट्रीय सम्पदा के विशालतर होते भाग पर ये सफेदपोश सत्ता-सम्पदा स्वामी अपना अनैतिक कब्जा जमाते जा रहे हैं।
इस तरह बढ़ती राष्ट्रीय आय वास्तविकता में गहराती असमानता का दूसरा रूप है। यही नहीं, अर्थव्यवस्था को पटरी पर रखने के कई घिसे-पिटे क़दमों के साथ आम आदमी तथा किसान की मोटी तकलीफ़ों से बचाव की नीतियों का अच्छी जिन्दगी देने वाला असर दूर-दूर तक नज़र नहीं आता है।
ना भागीदारी, ना विकास
सबका साथ (यानी सबकी भागीदारी), सबका विकास (यानी आमतौर पर वंचित-उपेक्षित लोगों के लाभ के सटीक कामों का ज़्यादा व्यापक और गहरा असर) किन्हीं भी अर्थों में नहीं दिखता है। इनके विपरीत बाजार का चरित्र धन्ना सेठों, विशाल कम्पनियों, विदेशी पूंजी तथा शहरी सम्पन्न लोगों से वाहवाही बटोरने के सरकारी कामों का असर शहरों, महंगे माल से अटे-पटे शाॅपिंग मॉलों तथा भव्य अट्टालिकाओं के रूप में त्रासद ग़ैर-बराबरी, ग़रीबी और अभावों की कहानी कहता है। इसे बेहतर हालात वाले लोगों की ज़्यादा बेहतरी और बदतर हालात में जिन्दा रहने को मज़बूर लोगों की पीठ पर ज़्यादा बोझ बढ़ाने के रूप में भी देखा जा सकता है। इस तरह की नीतियों, निर्णयों का एक ताज़ा और शर्मसार करने वाला नमूना अरबों-रूपयों के निवेश द्वारा संचालित हवाई-यात्रा कम्पनी जेट-एयरवेज को दिवालियेपन से बचाने के लिये सरकारी बैंकों द्वारा इस कम्पनी के गहरे गड्ढे में जनता का और ज़्यादा धन लगाने का सरकारी फरमान है। इसी तरह देश की एक सबसे बड़ी वित्तीय कम्पनी को भी आम जन के धन से बचाने की मुहिम चल रही है।
जेट एयरवेज नाम की एक हवाई जहाज़ कम्पनी अपने कर्मचारियों को वेतन नहीं दे पाती है। जहाज़ों की कीमत या उनके किराये की किश्त नहीं भर पाती है। वह जहाज़ों की दर्जनों उड़ानें रद्द करने को विवश है। अमीर-परस्त सरकार को इस स्थिति से बेहद चिन्ता होती है। कम्पनी के नियंत्रकों, मालिकों पर इस पतन का कोई बोझ नहीं पड़ रहा है। वह दंश तो शेष देश भुगत रहा है।
कम्पनी को दिवालिया होने और कारोबार बन्द करने की नौबत से बचाने के लिये आनन-फानन में बैंकों को आज्ञा दी जाती है कि इस कम्पनी को डूबने से बचाने के लिये 1500 करोड़ रूपये का कर्ज दें।
कुल मिलाकर बिना पुराने कर्ज का एक भी पैसा चुकाये नये विशाल कर्ज की इस एयर कम्पनी को दी गई ‘भेंट’ हज़ारों करोड़ का अंक छू रही है।
महंगे हवाई जहाज़ों को हैंगर्स में खड़ा कर दिया गया है। इन सम्पत्तियों को बेचकर बकायेदारों का भुगतान करना तो दूर, डूबते को और बढ़ाने के लिये, इसमें नया पैसा डालकर मानो एक जहाज कम्पनी को बचाना बड़ा राष्ट्रीय दायित्व है।
कम्पनी मालिकों की अकुशलता और उसके पीछे छिपे कारनामों की कोई तहक़ीक़ात किये बिना नये निवेश की सौगात बख्शी जा रही है। यह राष्ट्रप्रद है या एक व्यक्ति या परिवार की आर्थिक-सामाजिक सुरक्षा?
जेट एयरवेज़ एक भारतवंशी की छत्रछाया में देश की एक विशाल निजी कम्पनी बन गया। एक व्यवसायी परिवार के पास इनकी पूंजी का बहुमत था। देश के कोने-कोने में ‘जेट’ का जाल फैल गया। अनेक नये रुट खोज दिये गये। क्या कम्पनियों को दिवालिया बनाने वालों की शान-शौकत में रत्ती भर भी कमी आती है?
दूसरी ओर, चाहे गाँव-कस्बों में बसों की भीड़ बदस्तूर बढ़ती रहे, लोग बसों का इंतजार करते रहें और बस चालक और सवारियों को ठूंस-ठूंस कर, छतों पर बैठाकर बस चलायें। असुरक्षित और कष्टप्रद अपर्याप्त परिवहन सेवा दें। ऐसी ग्रामीण और शहरी बस सेवा को ज़रूरत के मुताबिक़, बढ़ाने के लिये ठीक और पर्याप्त व्यवस्था नहीं की गयी। संसाधनों का अभाव और घाटे का रोना रोया गया। किन्तु धनी-मनी लोगों को हवाई-यात्रा की सुख-सुविधा बदस्तूर जारी रहे, इस हेतु अरबों रूपये का निवेश होता रहा, यह कोशिश हुई कि एयर इंडिया में हज़ारों करोड़ रूपये फूंकने के बाद भी लाखों का वेतन पाने वालों को पगार नियमित मिलती रहे। दूसरी ओर चाहे करोड़ों युवक-युवतियाँ पहले रोज़गार तक की प्रतीक्षा में, असमय बुढ़ापे की ओर बढ़ते रहें।
मौसम की मार और बाज़ार की नादिरशाही तथा सरकारी नीतियों के नकारेपन के कारण उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में लाखों किसान निराश-हताश होकर अपने जीवन की डोर अपने ही हाथों काट चुके हैं। उनके बचाव और विकास की बात तो दूर, उनकी इज्जत और जिन्दगी बचाने की कोशिशें मात्र थोथे वादे भर रह गये। अब आप ही सोचें, क्या ऐसा ही होता है “सबका साथ, सबका विकास”?
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