'सबका साथ, सबका विकास' एक बहुत सही नारा और उद्देश्य है। नारों और प्रचार द्वारा तालियाँ बजवाई जा सकती हैं और जयकारे लगवाये जा सकते हैं। किन्तु इसे जनजीवन और राजकाज या गवर्नेन्स में लागू किये बिना यह नारा धोखा और यह उद्देश्य एक छलावा बन जाता है।
थोथा निकला 'सबका साथ, सबका विकास' का मोदी का वादा
- विश्लेषण
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- 5 Apr, 2019

सरकारी नीतियों के नकारेपन के कारण उदारीकरण-वैश्वीकरण के दौर में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं और रोज़गार के आँकड़े भी बेहद ख़राब हैं।
काला धन, उसका और उसके साथ जुड़े ग़ैर क़ानूनी धन का मिलाजुला राखनुमा सलेटी या ग्रे रूप में अभूतपूर्व सुरसा सा बढ़ता प्रसार, इस अनैतिक गतिविधि में सामान्य जन की प्रलोभनों द्वारा प्रेरित, उकसायी भागीदारी, आतंकवादियों की बढ़ी हरक़तों में दिखती उनकी अवैध धन-दौलत तक पहुँच, दिहाड़ी काम और अस्थाई रोजगार में गिरावट आदि साफ़ प्रमाण हैं कि राजकीय आर्थिक-वित्तीय आतंकवादनुमा 2016 की नोटबन्दी पूरी तरह नकारा निकली। दरअसल, घोषित मंशा से पूरी तरह उलटे काले-ग्रे धन को नवजीवन मिला।