असम की दो युवा लड़कियों ने सोशल मीडिया पर एक मार्मिक अपील जारी की है। इसमें उन्होंने कहा है कि 'हम असम में रहते हैं लेकिन हम भी भारतीय हैं। बाक़ी भारत के लोग हमें भूलें नहीं। हमारी पहचान संकट में है।' नाम के हिसाब से ये लड़कियाँ हिंदू लगती हैं। असम अपनी असमीयत की पहचान बरक़रार रखने के लिए भारत की आज़ादी के पहले से लड़ रहा है। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून ने पूरे देश में खलबली मचा दी है। एक तरफ़ दिल्ली से अलीगढ़, लखनऊ, पटना होते हुए कोलकाता और गुवाहाटी तक सुलग रहा है और दूसरी तरफ़ इसकी आँच मुंबई भी पहुँच गई है। सरकार और उसके समर्थक यह बताने की कोशिश कर रहे हैं कि विरोध सिर्फ़ मुसलमान कर रहे हैं क्योंकि पाकिस्तान, बाँग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान से अवैध रूप से भारत आए मुसलमानों को नागरिकता से वंचित कर दिया गया है। लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है। असम, बंगाल, बिहार, उत्तर प्रदेश से लेकर मुंबई तक विरोध करने वालों में बड़ी तादाद हिंदुओं की भी है। यह सही है कि विरोध-प्रदर्शनों में मुसलमान भी शामिल हैं। लेकिन वे अकेले नहीं हैं।
हिंदू बहुमत में हैं और जब तक हिंदू खड़े नहीं होते तब तक कोई बड़ा आंदोलन खड़ा नहीं हो सकता। केंद्र सरकार ने तीन तलाक़ को अवैध और अपराध क़रार कर दिया। हिंदू इसके ख़िलाफ़ खड़े नहीं हुए तो बाक़ी कोई भी विरोध के लिए आगे नहीं आया। कश्मीर से अनुच्छेद 370 के कुछ प्रावधानों को ख़त्म करने और राज्य को दो हिस्सों में बाँटने का क़ानून पास हो गया। इसका भी सड़कों पर विरोध नहीं हुआ। अयोध्या के राम जन्मभूमि-बाबरी मसजिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले पर भी खामोशी छायी रही। ये सारे फ़ैसले सत्ताधारी बीजेपी के हिंदू एजेंडे का हिस्सा हैं। लेकिन मुख्य विरोध अब नागरिकता क़ानून को लेकर दिखायी दे रहा है। इसका एक बड़ा कारण यह लगता है कि लोग महसूस करने लगे हैं कि सरकार अब संविधान की मूल आत्मा पर चोट पहुँचा रही है।
संविधान देश को सिर्फ़ धर्मनिरपेक्ष नहीं बताता है, बल्कि धर्म, जाति, समुदाय या किसी अन्य आधार पर भेदभाव की इजाज़त नहीं देता। नागरिकता संशोधन क़ानून पहली बार धर्म के आधार पर भेदभाव करता है। यह क़ानून दिसंबर 2014 तक अवैध या शरणार्थी के रूप में भारत आए हिंदू, सिख, बौद्ध, जैन, पारसी और ईसाई को भारत की नागरिकता देने की इजाज़त देता है लेकिन मुसलमानों को इससे अलग रखा गया है। लेकिन असम का आंदोलन तो सभी शरणार्थियों या अवैध रूप से भारत आए लोगों को असम में बसाने या नागरिकता देने के ख़िलाफ़ था। एक बात और है कि नागरिकता भी सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान, पाकिस्तान और बाँग्लादेश से आए लोगों को दी जाएगी। श्रीलंका से भारत आए हिंदू तमिलों को भी यह सुविधा नहीं दी जाएगी।
सरकार के इस धर्म आधारित खंडित सोच ने उन सभी लोगों के मन में खलबली मचा दी है जो धर्म या जाति/नस्ल के आधार पर भेदभाव नहीं चाहते हैं। यहाँ एक महत्वपूर्ण सवाल यह भी है कि जो लोग इसके पहले के धर्म विशेष को प्रभावित करने वाले फ़ैसलों पर खामोश रहे, वे अब अचानक उत्तेजित क्यों हो रहे हैं? शायद इसका एक बड़ा कारण यह है कि लोग महसूस करने लगे हैं कि सरकार का ‘हिंदू एजेंडा’ आगे चल कर बड़ी मुसीबत खड़ा कर सकता है। गृह मंत्री अमित शाह घोषणा कर चुके हैं कि सरकार राष्ट्रीय नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी पूरे देश में लागू करने के लिए क़ानून जल्द ही लाएगी। एनआरसी अब तक सिर्फ़ असम में लागू है। इस रजिस्टर के हिसाब से जिन क़रीब 20 लाख लोगों को अवैध माना गया है उनमें आधे यानी क़रीब 10 लाख लोग हिंदू हैं। बड़ी संख्या में असम के आदिवासी भी नागरिकता से वंचित हो गए हैं क्योंकि उनके पास भारत की नागरिकता साबित करने के लिए दस्तावेज़ नहीं हैं। नागरिकता के सबूत के तौर पर सरकार ज़मीन के स्वामित्व जैसे दस्तावेज़ माँगती है। असम के खेतिहर आदिवासियों के पास भी ये दस्तावेज़ नहीं थे, इसलिए वे नागरिकता से वंचित हो गए। लोगों के पास वोटर कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस, आधार कार्ड यहाँ तक कि भारत का पासपोर्ट भी है। 30-40 वर्षों तक सेना या सरकार में काम करने का रिकॉर्ड भी है, तब भी उनका नाम नागरिक रजिस्टर में शामिल नहीं हुआ।
एनआरसी पूरे देश में लागू होने पर उन ग़रीबों का क्या होगा जिनके पास ज़मीन नहीं है। और है भी तो उसका दस्तावेज़ उनके पास नहीं है। ग़रीब मज़दूर किस तरह से अपने आप को नागरिक साबित करेगा। एनआरसी आने का ख़ौफ़ भी इस स्वत:स्फूर्त विरोध को हवा दे रहा है।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह आंदोलन पूरी तरह से स्वत:स्फूर्त है और अब तक इसका नेतृत्व ग़ैर-राजनीतिक छात्रों के हाथों में है। दिल्ली के जामिया मिल्लिया इसलामिया में इसके ख़िलाफ़ छात्र खड़े हुए। अलीगढ़, लखनऊ, पटना और मुंबई में भी छात्रों ने मोर्चा संभाला। देश का पस्त पड़ा हुआ विपक्ष अभी भी समर में कूदने से परहेज कर रहा है। एकाध जगह जैसे कोलकाता छोड़ दें तो नेता सिर्फ़ ट्विटर पर लड़ते दिखाई दे रहे हैं। दिल्ली में कांग्रेस ने ज़रूर एक आम सभा की। बंगाल में ममता बनर्जी भी सड़क पर उतरीं।
छात्रों के विरोध का संकेत
यह आंदोलन 1974 के बिहार आंदोलन की तर्ज पर बढ़ता दिखायी दे रहा है। 1974 के आंदोलन का नेतृत्व छात्रों के हाथों में था। बहुत बाद में ग़ैर-कांग्रेसी राजनीतिक दल भी छात्रों के पीछे आ गए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की एक टिप्पणी जिसमें उन्होंने कहा कि कपड़ा देख कर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि कौन लोग विरोध कर रहे हैं, पूरे संघर्ष का सरलीकरण है। जामिया या अलीगढ़ विश्वविद्यालयों में सिर्फ़ मुसलमान नहीं पढ़ते हैं। यहाँ पढ़ने वालों में हिंदू और दूसरे धर्मों के लोग भी हैं। जिस तरह से देश भर में आंदोलन की लहर दिखायी दे रही है, वह एक संकेत है। 1974 का छात्र आंदोलन भी गुजरात के एक कॉलेज के मेस में खाने की क़ीमत बढ़ाने को लेकर शुरू हुआ था। भ्रष्टाचार, बेरोज़गारी, ग़रीबी, बिगड़ती शिक्षा-व्यवस्था सब इससे जुड़ते गए। अंत में इसकी परिणति 1975 के इमरजेंसी और 1977 में पहली बार केंद्र में कांग्रेस की सत्ता के अंत के रूप में सामने आयी।
नागरिकता क़ानून के पीछे-पीछे, इस बार ख़राब अर्थव्यवस्था, 45 सालों में सबसे ज़्यादा बेरोज़गारी और तेज़ी से बढ़ती महँगाई जैसे मुद्दे मौजूद हैं। सरकार को 1974, 1975 और 1977 याद नहीं हों तो हाँगकाँग के ताज़ा संघर्ष से सबक़ लेना चाहिए।
हाँगकाँग का आंदोलन भी एक क़ानून में बदलाव से शुरू हुआ। इस बदलाव के ज़रिए हाँगकाँग के अपराध की सज़ा चीन की अदालतों को देने की तैयारी थी। अब यह आंदोलन हाँगकाँग के स्वायत्त अस्तित्व को बरक़रार रखने का आंदोलन बन चुका है। केंद्र सरकार के पास अब भी वक़्त है। सोचना चाहिए कि जिस असम में एनआरसी के समर्थन में आंदोलन हुआ था वह नागरिकता क़ानून के ख़िलाफ़ क्यों खड़ा है। पूर्वोत्तर के ज़्यादातर राज्य विरोध में हैं। शिवसेना के सुर बदले हुए हैं। आम लोगों के भीतर लंबे समय से एक घुटन दिखायी दे रही है। इसमें विस्फोट कभी भी हो सकता है। यह सही है कि धर्म लोगों को भावनात्मक भ्रम में लंबे समय तक रखता है। लेकिन बुनियादी ज़रूरतें, जिसमें आज़ादी भी शामिल है, कभी न कभी सबसे महत्वपूर्ण बन जाती हैं।
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