चीन ने लद्दाख में गलवान घाटी पर अवैध क़ब्ज़ा कर लिया है और उसकी सेना ने भारतीय सेना के एक कर्नल और 20 जवानों को मार दिया है। कुछ लोग सोचते हैं कि यह घटना केवल सीमा के मुद्दे को लेकर किसी ग़लतफ़हमी के कारण हुई है; वे ग़लत हैं और उन सभी को अपनी आँखों से पर्दा हटाकर वास्तविक सत्य को देखने की ज़रूरत है।
आज का चीन साम्यवादी देश होने का केवल दिखावा करता है पर वास्तव में यह एक पूंजीवादी देश है। यह लाभदायक निवेश, क़ब्ज़ा करने के लिए बाज़ारों और सस्ते कच्चे माल को प्राप्त करने के लिए पूंजी की तलाश में है। औद्योगीकरण के बाद एक निश्चित स्तर पर विकसित होने वाला देश साम्राज्यवादी हो जाता है, अर्थात यह विदेशी बाज़ारों और कच्चे माल की तलाश करता है। इसीलिए इंग्लैंड ने भारत पर विजय प्राप्त की और फ्रांस ने अल्जीरिया और वियतनाम पर।
साम्राज्यवाद दो प्रकार के होते हैं, विस्तारवादी साम्राज्यवाद और रक्षात्मक साम्राज्यवाद। इनमें दूसरा कहीं अधिक ख़तरनाक होता है।
1930 और 1940 के दशक में दुनिया के लिए नाज़ी जर्मन साम्राज्यवाद वास्तविक ख़तरा था न कि ब्रिटिश या फ्रांसीसी साम्राज्यवाद। इसका कारण यह था कि हिटलर जर्मनी का साम्राज्यवाद विस्तार और आक्रामक साम्राज्यवाद था जबकि ब्रिटिश और फ्रांसीसी रक्षात्मक साम्राज्यवाद। दूसरे शब्दों में, ब्रिटिश और फ्रांस केवल अपने उपनिवेशों पर क़ब्ज़ा बनाये रखना चाहते थे जबकि नाज़ी जर्मनी अन्य देशों को जीतना और ग़ुलाम बनाना चाहते थे।
इसी तरह, आज दुनिया के लिए ख़तरा अमेरिका या यूरोप नहीं बल्कि चीन है क्योंकि चीन दुनिया में आक्रामक विस्तार के रास्ते पर चल रहा है। बड़े पैमाने पर अपने माल और सस्ते रॉ मटीरियल्स के लिए बाज़ार की माँग के साथ, अपने विशाल 3.2 ट्रिलियन डॉलर विदेशी मुद्रा रिजर्व के लाभदायक निवेश के लिए आक्रामक विस्तारवाद की राह पर तेज़ी से बढ़ रहा है और इसी कारण चीन दुनिया के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है।
यह सच है कि वर्तमान में चीन नाज़ी जर्मनी की तरह सैन्य रूप से विस्तार नहीं कर रहा है लेकिन वह दुनिया के कई देशों की अर्थव्यवस्था को भेद कर, घटा कर, आक्रामक रूप से आर्थिक विस्तार कर रहा है।
पिछले दशक में चीनी विदेशी निवेश आसमान छू गया है। आज चीनी लगभग हर जगह हैं, एशिया, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और निस्संदेह संयुक्त राज्य अमेरिका और यूरोप में भी।
उनका बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सड़कों, रेलवे, तेल पाइपलाइनों, बिजली ग्रिड, बंदरगाहों और अन्य बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं का एक नेटवर्क है जो चीन को दुनिया से जोड़ता है। इसका उद्देश्य चीन और बाक़ी यूरेशिया के बीच बुनियादी ढाँचे और कनेक्टिविटी में सुधार करना है ताकि चीन इन पर हावी हो सके। चीन का ध्यान अक्सर बंदरगाहों जैसे महत्वपूर्ण बुनियादी ढाँचे पर रहा है। पाकिस्तान में ग्वादर, ग्रीस में पीरियस और श्रीलंका में हंबनटोटा जिसका उद्देश्य इन देशों में एक रणनीतिक पायदान हासिल करना है।
चीन की बाज़ार नीति
जिस क़ीमत पर अमेरिकी या यूरोपीय निर्माता सामान बेच सकते हैं, उससे आधी क़ीमत पर सामान बेचकर, चीनियों ने कई अमेरिकी और यूरोपीय उद्योगों को नष्ट कर दिया है। अब चीनी अविकसित देशों में बाज़ारों और कच्चे माल को बहुत कम दामों पर डंप करके स्थानीय उत्पाद को अप्रतिस्पर्धी बनाने की कोशिश कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए, पाकिस्तान सस्ते चीनी सामानों से भरा पड़ा है। विदेशी बाज़ारों पर क़ब्ज़ा करते समय, चीनी उच्च टैरिफ़ द्वारा सावधानीपूर्वक अपनी रक्षा करते आये हैं। इस बात का श्रेय राष्ट्रपति ट्रम्प को देना चाहिए कि उन्होंने चीनियों के इस झाँसे को सबके सामने रखा और चीन को स्पष्ट रूप से कहा कि यह नहीं चलेगा। जब अमेरिका में कारों के आयात के लिए केवल 2.5 % टैरिफ लगता है तो चीन में ऑटोमोबाइल के आयात पर 25 % टैरिफ नहीं लगाया जा सकता।
ट्रम्प ने कई चीनी सामानों पर शुल्क लगाया है और भविष्य में और अधिक शुल्क लगाने की घोषणा की है। इस फ़ैसले के कारण चीन ने प्रतिशोधी टैरिफ की घोषणा की परन्तु इससे अमेरिकियों को थोड़ा नुक़सान भी होगा।
यह सर्वविदित है कि चीनियों में कोई व्यावसायिक नैतिकता नहीं है और यही कारण है कि कई अमेरिकी और यूरोपीय कंपनियाँ चीनियों को काम पर लेने से हिचकते हैं क्योंकि वे अक्सर औद्योगिक रहस्यों की जासूसी करते हैं।
भारत 1947 तक एक ब्रिटिश उपनिवेश था, और ब्रिटिश नीति भारत को औद्योगीकरण से दूर रखने की थी। हालाँकि, आज़ादी के बाद भारत में कुछ हद तक औद्योगीकरण हुआ और हमने उन चीज़ों का उत्पादन शुरू किया, जिन्हें हम पहले आयात करते थे।
अब कुछ हद तक चीनियों ने हमारे घरेलू बाज़ार में प्रवेश कर, अपनी जगह बना ली है।
चीन को भारतीय निर्यात 16 बिलियन डॉलर का है, मुख्य रूप से कच्चे माल का। लेकिन चीन से भारत का आयात 68 बिलियन डॉलर का है जिसमें मुख्य रूप से मोबाइल फ़ोन, प्लास्टिक, इलेक्ट्रिकल सामान, मशीनरी और इन चीज़ों को बनाने में लगने वाले पुर्ज़े हैं। यह एक उपनिवेश और साम्राज्यवादी देश जैसा संबंध है। चीनी कंपनियाँ आक्रामक मूल्य निर्धारण, स्टेट सब्सिडी, संरक्षणवादी नीतियों और सस्ते वित्तपोषण का उपयोग करती हैं। कुछ क्षेत्रों में चीनी कंपनियों का भारतीय बाज़ार पर वर्चस्व है। दूरसंचार क्षेत्र में 51% चीनी ने क़ब्ज़ा कर लिया है। भारतीय घरों में चीनी सामानों की भरमार है। फिटिंग, लैंपशेड, ट्यूबलाइट आदि।
चीनी कंपनियों को संरक्षण
अब चीनी इससे भी कई क़दम आगे जाना चाहते हैं। उनकी कंपनियों जैसे हुआवेई, जेड टी ई, लेनोवो, श्याओमी, सीएसआईटीईसी, सीएमआईईसी, हायर, टीसीएल, जिआंगसु ओवरसीज ग्रुप कंपनियों और फाइबरहोम टेक्नोलॉजीज को दुनिया भर में फैलाने के लिए चीन सरकार और आक्रामक कूटनीति द्वारा सहायता प्राप्त है।
ये कंपनियाँ उच्च तकनीक, इंटरकॉम, कंप्यूटर, धातु विज्ञान, स्टील आदि जैसे क्षेत्रों में हैं और भारत में गहराई से प्रवेश कर चुकी हैं। जो लोग सोचते हैं कि मीठे शब्दों और चापलूसी से चीनी ख़तरे को कम किया जा सकता है वे सभी चीनी साम्राज्यवाद की प्रकृति को समझने में विफल हैं।
यह सोचते रहना कि भारत और चीन के बीच संबंधों में सुधार हो सकता है, यह एक भ्रम है। ऐसी कल्पना करना यह कहने के सामान है जैसे कि लोमड़ी और मुर्गी एक ही पिंजड़े में साथ रह सकते हैं।
इस ख़तरे को नज़रअंदाज़ करना एक शुतुरमुर्ग की भाँति बर्ताव करने जैसा होगा, जैसे कि नेविल चेम्बरलेन ने किया था, जो सोचते रहे कि हिटलर से कोई ख़तरा नहीं है पर जब उन्हें यह एहसास हुआ तब तक काफ़ी देर हो चुकी थी। आज के चीनी, दुष्ट भेड़ियों के समान हैं और सभी देश एकजुट हो कर ही इनका सामना कर सकते हैं।
लद्दाख की गलवान घाटी में जो कुछ हुआ है, उसको समझने के लिए ऊपर कही गयी सभी बातों पर ग़ौर करना चाहिए। चीनी साम्राज्यवाद को रोकने के लिए हमारी सरकार को सभी चीनी उत्पादकों पर तुरंत प्रतिबन्ध लगा देना चाहिए और सभी चीनी कंपनियों को भारत से निकाल बाहर करना चाहिए।
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