हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी की ‘कमज़ोर’ जीत का हर्ज़ाना अब उसे भुगतना पड़ रहा है। लोकसभा चुनावों में मोदी की प्रचंड जीत ने विपक्ष को इस क़दर हतोत्साहित कर दिया था कि उसने हरियाणा और महाराष्ट्र, दोनों जगह चुनाव में बीजेपी को वाकओवर दे दिया था। उसके नेता इस क़दर हैरान-परेशान थे कि उन्हें लगने लगा था कि अब मोदी को हटाना असंभव है और विपक्ष को लंबे समय तक राजनीति के बियाबान में रहना पड़ेगा। नतीजे आए तो सब हतप्रभ। बीजेपी दोनों राज्यों में बहुमत के आँकड़े से दूर। हरियाणा में जहाँ उसे उम्मीद थी कि वह 75 से अधिक सीटें लेकर आयेगी वहाँ वह 40 पर सिमट गयी और महाराष्ट्र में जहाँ वह अपने बल पर सरकार बनाने का सपना देख रही थी वहाँ वह 105 से आगे नहीं बढ़ पायी। हरियाणा में तो फिर भी वह सरकार बना पायी लेकिन महाराष्ट्र में सरकार भी खो बैठी और तीस साल पुराना साथी भी। और देवेंद्र फडणवीस जिसे सब भारतीय राजनीति का सबसे चमकता सितारा मान बैठे थे उसकी बोलती बंद हो गयी।

अटल बिहारी वाजपेयी की कार्यशैली थी कि जितना ज़्यादा से ज़्यादा संभव हो उतना सलाह-मशविरा कर लो। प्रधानमंत्री मोदी का मामला इसके उलट है। चाहे पार्टी हो या कैबिनेट या फिर सहयोगी दल, मोदी किसी की परवाह नहीं करते। विचार-विमर्श में उनको ज़्यादा यक़ीन नहीं है। वह ‘वन मैन आर्मी’ की तरह सरकार भी चलाते हैं और राजनीति भी। ज़ाहिर है सहयोगियों को यह तरीक़ा पसंद नहीं आता है।
अभी महाराष्ट्र में सरकार किसी की नहीं बनी है, लेकिन संकेत बीजेपी के लिए बहुत साफ़ हैं। न केवल विपक्ष के पैरों में थिरकन दिखाई देने लगी है, बल्कि उसके अपने सहयोगी, उसे आँख दिखाने लगे हैं। 24 अक्टूबर के पहले यही सहयोगी भीगी बिल्ली बने बैठे थे। और इस इंतज़ार में रहते थे कि कब मोदी और अमित शाह की नज़र उन पर पड़ जाए और वे अपने को उपकृत मानें। शिवसेना ने पहला वार किया। उसने 24 अक्टूबर के बाद बीजेपी की चकरघिन्नी बना दी है। उसने न केवल असंभव-सी शर्त सामने रखी बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि बीजेपी की सरकार न बन पाए। आज की तारीख़ में शिवसेना कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने जा रही है। यानी वह रिश्ता जो कभी अटल-आडवाणी के युग में अटूट लगता था वह मोदी-शाह के समय क्षणभंगुर साबित हो गया है। यह शिवसेना की जीत भले ही न हो, पर बीजेपी की हार ज़रूर है।
पत्रकारिता में एक लंबी पारी और राजनीति में 20-20 खेलने के बाद आशुतोष पिछले दिनों पत्रकारिता में लौट आए हैं। समाचार पत्रों में लिखी उनकी टिप्पणियाँ 'मुखौटे का राजधर्म' नामक संग्रह से प्रकाशित हो चुका है। उनकी अन्य प्रकाशित पुस्तकों में अन्ना आंदोलन पर भी लिखी एक किताब भी है।